लॉकडाउन की मार : अर्थव्यवस्था को गति और घर लौटे प्रवासियों को रोजगार है बड़ी चुनौती

कोरोना की दूसरी लहर के खिलाफ जंग के कारण पिछले सवा महीने के आंशिक लॉकडाउन ने ऊपरी तौर पर भले ही कोई खास नुकसान नहीं किया हो, लेकिन हकीकत यह है कि इसने अर्थव्यवस्था पर जल्द न सूखनेवाली गहरी चोट की है। इसलिए झारखंड के लिए असली चुनौती अब शुरू होनेवाली है। सीमित संसाधनों के बावजूद सरकार के संकल्प और लोगों के जज्बे ने राज्य में कोरोना की दूसरी लहर को कमोबेश नियंत्रण में कर लिया है, लेकिन बात यहीं तक होती, तो गनीमत थी। अब सरकार के पास अर्थव्यवस्था की गाड़ी को एक बार फिर गति देने की चुनौती के साथ उन हाथों को काम देना होगा, जो अपना सब कुछ गंवा कर बाहर से लौटे हैं। कोरोना के कारण ये लोग अभी तो घरों में हैं, लेकिन अब इनके बाहर निकलने और काम-धंधे की तलाश शुरू करने का वक्त आ गया है। इनमें से अधिकांश अकुशल हैं और इन्हें खेती-किसानी के अलावा छोटा-मोटा व्यवसाय करना ही आता है। कुशल श्रमिकों को तो काम मिल जायेगा, लेकिन अकुशल लोगों को काम देने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान देना होगा। इन लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था तो सरकार कर रही है, लेकिन जरूरी है कि इन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाये, ताकि इनका शरीर भी चलता रहे और राज्य की अर्थव्यवस्था भी। हेमंत सोरेन सरकार इस चुनौती को भी अच्छी तरह समझ रही होगी और उससे निबटने के तरीकों पर काम भी कर रही होगी। कोरोना काल की चुनौतियों और इससे निबटने की हेमंत सोरेन सरकार की संभावित रणनीति का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के टीकाकार राकेश सिंह की खास रिपोर्ट।

कोरोना की दूसरी लहर के कमजोर होने के साथ झारखंड ने राहत की सांस तो ली है, लेकिन अब तीसरी लहर का सामना करने की तैयारी के अलावा इसके सामने सामाजिक और आर्थिक मोर्चे की चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं। करीब सवा महीने के आंशिक लॉकडाउन और उससे पहले संक्रमण के बढ़ते मामलों ने राज्य की अर्थव्यवस्था की गाड़ी की रफ्तार को धीमी कर दी है। अब यह मिनी लॉकडाउन खत्म होने की प्रक्रिया शुरू होगी और इसके साथ ही बाहर से लौटे श्रमिक काम-धंधे की तलाश में बाहर निकलेंगे। सरकार को इन पर सबसे अधिक ध्यान देना है। झारखंड ने कोरोना की दूसरी लहर को जिस संकल्प और जज्बे के साथ नियंत्रित किया, उसी तरह के प्रयास को जारी रखने का समय भी आ रहा है। यह हेमंत सोरेन सरकार की असली परीक्षा होगी, जिससे राज्य में आर्थिक गतिविधियों को रफ्तार भी मिलेगी और लोगों को काम भी। मोटे अनुमान के अनुसार राज्य में पिछले ढाई महीने के दौरान करीब एक लाख लोग बेरोजगार हुए हैं और करीब सात लाख लोग बाहर से लौटे हैं। इनमें से तीन चौथाई लोग अब शायद ही बाहर जाने की स्थिति में होंगे। इन सभी के लिए झारखंड में काम उपलब्ध कराना बड़ी चुनौती है। घर लौटनेवाले इन लोगों के लिए खाने की व्यवस्था तो हेमंत सोरेन सरकार कर रही है और आगे भी करती रहेगी, लेकिन रोजगार देने के लिए आर्थिक गतिविधियों को सुदृढ़ करना होगा।

विशेषज्ञ कहते हैं कि घर लौटनेवाले प्रवासी श्रमिकों में से केवल 15 प्रतिशत ही कुशल हैं। बाकी के पास कौशल के नाम पर कुछ नहीं है। वे या तो खेतिहर मजदूर बन सकते हैं या फिर हजार-दो हजार की पूंजी लगाकर छोटा-मोटा व्यवसाय कर सकते हैं। झारखंड में खेती की हकीकत बहुत अधिक उजली नहीं है।

इस स्थिति में हेमंत सरकार को हर हाथ को काम भी देना है और अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर भी लानी है। मौजूदा समय में इससे उबरने का सबसे बेहतर विकल्प कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्र ही हो सकते हैं। परंपरागत कृषि की सोच से उबरते हुए हमें इस क्षेत्र में कुछ नया प्रयोग करने की आवश्यकता है। कृषि वानिकी को बढ़ावा देना होगा। राज्य सरकार ने इस दिशा में सराहनीय पहल भी की है। यह कड़वी हकीकत है कि झारखंड में कृषि वानिकी को बढ़ावा देने को लेकर सरकारों का रवैया अब तक उदासीन ही रहा है। नतीजा यह है कि झारखंड की अधिसंख्य भूमि में एक फसलीय खेती होती रही है और काम के अभाव में लोग दूसरे राज्यों की ओर पलायन करते रहे हैं। जीडीपी के मानक भी इसकी पुष्टि करते हैं। राज्य की जीडीपी में कृषि का योगदान महज 14-15 फीसदी ही है। आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए थी कि कृषि और इससे जुड़े संबद्ध क्षेत्रों का जीडीपी में योगदान 25-30 फीसदी होता। झारखंड में फसल घनत्व 120 है, अर्थात खरीफ फसल में तो शत प्रतिशत कृषि संसाधनों का उपयोग होता है, लेकिन रबी में महज 20 प्रतिशत। झारखंड में एक फसलीय खेती होने के कारण उत्पादकता करीब दो टन प्रति हेक्टेयर है। झारखंड में खरीफ के चार-पांच माह छोड़ दें, तो अन्य शेष माह जमीन खाली पड़ी रहती है। लोग इससे ऊब जाते हैं और रोजी-रोजगार के लिए दूसरे राज्यों का रुख करते हैं। आज भी खाली जमीन बहुत है, लेकिन लोगों के पास रोजगार नहीं है। अब समय आ गया है कि हमें वृक्ष आधारित खेती की ओर देखना होगा। यह झारखंड के अनुकूल भी होगी और यहां के लोगों की आय का साधन बनकर उन्हें अपने प्रदेश में रोक कर भी रखेगी। इसके माध्यम से न सिर्फ रोजगार का सृजन होगा, बल्कि राज्य के लिए हरित परिसंपत्ति भी तैयार होगी। इसके अलावा झारखंड की भूमि बागवानी के लिए उपयुक्त है। कृषि वानिकी को बढ़ावा देकर प्रति हेक्टेयर उत्पादकता को प्रति हेक्टेयर दो टन से से बढ़ कर आठ टन तक ले जाया जा सकता है। ऐसा हुआ तो जीडीपी के आकड़े स्वत: बदल जायेंगे। हेमंत सोरेन सरकार ने पिछले साल बिरसा हरित ग्राम योजना शुरू की थी, जिसका अनुकूल परिणाम सामने आया है। मनरेगा के साथ इस योजना को जोड़ कर फलदार वृक्ष बड़े पैमाने पर लगाये गये हैं। इससे भूमि और पानी की उत्पादकता बढ़ेगी। वर्ष भर रोजगार मुहैया होंगे और इसकी लागत का रिटर्न भी अच्छा मिलेगा। योजना के तहत पांच करोड़ पौधे पांच सालों में रोपे जाने हैं। पहले वर्ष एक करोड़ पौधे रोपे जाने का लक्ष्य था, जिसे लगभग पूरा कर लिया गया है। इस योजना की सफलता की राह में कुछ चुनौतिया भी हैं। कृषकों में कृषि वानिकी के अनुभव की कमी है। हमारे यहां से पलायन करनेवाले लोग अच्छे श्रमिक तो हो सकते हैं, लेकिन वे बागवानी के जानकार नहीं हैं। उन्हें लगातार प्रशिक्षण की जरूरत है, जिससे वे इसे आजीविका के स्तर पर शुरूआत कर व्यावसायिक स्तर तक पहुंच सकें।। सरकार को उनका कौशल बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास करने होंगे। कृषि-बागवानी का कौशल, खाद्यान्न उत्पादन के कौशल से इतर और थोड़ा ऊपर दर्जे का होता है। ग्राम सभा के स्तर पर बागवानी मित्र जैसे लोगों की जरूरत पड़ेगी, जो बता सकें कि बागवानी कैसे करनी है। अच्छे पौधों की उपलब्धता भी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा झारखंड ने पशुपालन, डेयरी और मछली पालन में हाल के वर्षों में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। इनको बढ़ावा दिये जाने से काम के अवसर पैदा होंगे। झारखंड में दलहन की फसल के लिए उपयुक्त जमीन है। यहां दलहन की उत्पादकता राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। रबी के मौसम में सिंचाई की व्यवस्था हो जाने से यहां दलहन और तेलहन उत्पादन की काफी संभावना है। एक संतोषजनक बात यह है कि झारखंड कृषि और उससे जुड़े उत्पादों के मामले में राष्ट्रीय सूचकांक में थोड़ा पीछे है। इस कारण इस क्षेत्र में निवेश की अपार संभावना है। झारखंड में सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाये, तो कृषि उत्पादन बेहतर होगा।

हेमंत सोरेन सरकार को अब अगले एक साल के लिए एक कार्य योजना तैयार करनी होगी, ताकि आनेवाली चुनौतियों का सामना किया जा सके। लगभग खाली हो चुके खजाने को भरने के साथ इस चुनौती का सामना हेमंत सोरेन कैसे कर पाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। इसके लिए उन्हें छोटी-छोटी आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देना होगा और साथ ही मध्यम दर्जे के घरेलू उद्योगों को भी मदद करनी होगी।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version