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    Home»Breaking News»माटी की रक्षा के लिए जब बीस हजार आदिवासियों ने दे दी अपनी जान
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    माटी की रक्षा के लिए जब बीस हजार आदिवासियों ने दे दी अपनी जान

    adminBy adminJune 30, 2022Updated:June 30, 2022No Comments4 Mins Read
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    रांची। 30 जून 1855 को पहली बार गुलाम भारत की वादियों में आवाज गूंजी-अंग्रेजो, हमारी माटी छोड़ो। यह आवाज थी सिदो की। सिदो की आवाज गूंजते ही चार सौ गांवों से बीस हजार आदिवासी अपनी माटी के लिए कुर्बान होने निकल पड़े।
    वैसे तो स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई 1857 में मानी जाती है, लेकिन तीन साल पहले ही आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया था। वर्तमान के झारखंड राज्य के संथाल परगना में संथाल हूल और संथाल विद्रोह के कारण अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। सिदो-कान्हू दो भाइयों के नेतृत्व में 30 जून 1855 को वर्तमान साहेबगंज जिले के भोगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिदो ने घोषणा की थी-करो या मरो, अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो।
    इतिहासकार कहते हैं कि संथाल परगना के लोग प्रारंभ से ही वनवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। इसका जमींदारों और बाद में अंग्रेजों ने खूब लाभ उठाया। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़िया तथा अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी। इसके बाद यहां के लोगों की आर्थिक स्थिति चरमरा गयी और लोग कर्ज में डूबने लगे। कर्ज चुकाने के लिए उन्हें दूसरों के यहां मजबूदी करनी पड़ती थी। इस कारण यहां के लोगों में अंदर ही अंदर विद्रोह पनपने लगा।
    नागपुरी साहित्य और इतिहासकार बीपी केशरी ने अपनी एक किताब में लिखा है कि यह विद्रोह भले ही संथाल हूल हो, परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेजों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। इस जन आंदोलन के नायक भोगनाडीह निवासी ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिदो, कान्हू, चांद और भैरव थे।
    बीपी केशरी लिखते हैं कि इन चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिदो को स्वप्न में बोंगा (जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, और संथाली जिनकी पूजा करते थे) आये थे। बोंगा ने बताया कि-जुमींदार, महाजोन, पुलिस आर राजरेन अमलो को गुजुकमा जिसका मतलब है-जमींदार, पुलिस, राज के अमले और सूदखोरों का नाश हो। इस संदेश को डुगडुगी पिटवा गांवों-गांवों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल पेड़ की टहनी को लेकर गांव-गांव की यात्रा की।
    आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत अस्त्रों से लैस होकर 30 जून 1855 को चार सौ गांवों के लोग भोगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गयी कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेजों ने इन चारों भाइयों सिदो, कान्हू, चांद और भैरव को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए जिस पुलिस दारोगा को वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसको चारों तरफ से घेर लिया और उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया।
    साहिबगंज सहित आसपास के क्षेत्रों की सुरक्षा कड़ी कर दी गयी थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी और जम कर गिरफ्तारियां की गयीं। विद्रोहियों पर काबू पाने के लिए सेना ने उन पर गोलियां बरसाने लगी। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गयी। बरहेठ में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गये। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक एनल्स आॅफ रूलर बंगाल में लिखा है कि संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।
    जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिदो और कान्हू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भोगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांग कर फांसी की सजा दे दी गयी।

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