विशेष
विधानसभा चुनाव की आहट सुनते ही ताल ठोंकने लगी छोटी पार्टियां
जयराम महतो की जेबीकेएसएस ने 55 सीटों पर प्रत्याशी देने का कर दिया एलान
भारतीय जनतंत्र मोर्चा ने भी ढाई दर्जन सीटों पर उम्मीदवार देने का किया है फैसला
दूसरे छोटे दल भी कर रहे हैं बड़े-बड़े दावे, पर किसी को नहीं है हकीकत का एहसास
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद अब विधानसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है। राजनीतिक दलों के बीच लोकसभा चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में अगले छह महीने में होनेवाले विधानसभा चुनाव में पैदा होनेवाली परिस्थितियों के अनुरूप समीकरण तैयार करने की होड़ मची है, तो दूसरी तरफ नये समीकरण साधने की कोशिशें भी शुरू हो गयी हैं। इस बीच इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि झारखंड के छोटे-छोटे राजनीतिक दल भी अभी से ही ताल ठोंकने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में गिरिडीह सीट पर 3.47 लाख से अधिक वोट लाकर राजनीतिक सनसनी पैदा करनेवाले झारखंडी भाषा खतियानी संघर्ष समिति (जेबीकेएसएस) के जयराम महतो ने विधानसभा चुनाव में 55 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का एलान कर सभी को चौंका दिया है। उधर चर्चित निर्दलीय विधायक सरयू राय द्वारा स्थापित पार्टी भारतीय जनतंत्र मोर्चा ने भी विधानसभा चुनाव में 30 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है। झारखंड में वैसे तो राजनीतिक दलों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन इन दोनों दलों को किसी फैसले पर पहुंचने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनके पास इतनी सीटों पर चुनाव लड़ने लायक संसाधन है या नहीं। झारखंड में भाजपा, कांग्रेस और झामुमो जैसे स्थापित राजनीतिक दल तो इतनी सीटों पर चुनाव लड़ने से कतराते रहे हैं, फिर सोचनेवाली बात यह है कि ये छोटे राजनीतिक दल इतने प्रत्याशी कहां से लायेंगे और उन्हें चुनाव कैसे लड़ाया जायेगा। क्या है इन छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के दावे और इनकी हकीकत, क्या है झारखंड के छोटे राजनीतिक दलों के इन फैसलों की पृष्ठभूमि में इनका इतिहास और भविष्य, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद जिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है, उनमें झारखंड भी है। झारखंड विधानसभा की 81 सीटों के लिए अगले पांच-छह महीने में चुनाव होगा। इसकी तैयारियां होने लगी हैं। राजनीतिक दलों में इस चुनाव की रणनीति बनने लगी है और लोकसभा चुनाव के परिणाम की पृष्ठभूमि में राजनीतिक समीकरणों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों की रणनीति और राजनीतिक समीकरण जहां रांची के साथ दिल्ली में भी तय किये जा रहे हैं, वहीं झामुमो और आजसू जैसी क्षेत्रीय पार्टियों में भी इस मुद्दे पर विचार-मंथन लगातार जारी है। इन तमाम राजनीतिक गतिविधियों के बीच झारखंड में सबसे दिलचस्प है छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े दावे और अधिक से अधिक सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा।
55 सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे जयराम महतो
लोकसभा चुनाव में महज दो विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त लानेवाले झारखंडी भाषा खतियानी संघर्ष समिति (जेबीकेएसएस) के प्रमुख जयराम महतो ने आगामी विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ कहा है कि वह 55 सीटों पर उम्मीदवार देंगे। इनमें सवर्ण उम्मीदवार भी होंगे और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग भी। बता दें कि लोकसभा चुनाव में जयराम महतो खुद गिरिडीह सीट से प्रत्याशी थे और उन्हें 3.47 लाख से अधिक वोट मिले थे। इसके अलावा रांची में उनके प्रत्याशी देवेंद्र महतो को 1.32 लाख से अधिक और हजारीबाग में संजय मेहता को 1.57 लाख से अधिक वोट मिले थे। इन तीन सीटों पर कुल मिला कर सवा छह लाख वोट लाना जेबीकेएसएस के लिए बड़ी सफलता है, लेकिन यह इतनी भी बड़ी नहीं है कि इसे झारखंड की राजनीति में बड़ा मान लिया जाये। बकौल जयराम, गोड्डा लोकसभा क्षेत्र पर पार्टी का ध्यान है। इस बार प्रत्याशी नहीं मिल पाने की वजह से लोकसभा चुनाव में कोई प्रत्याशी नहीं दिया गया, मगर विधानसभा चुनाव में जरूर संथाल क्षेत्र में प्रत्याशी उतारे जायेंगे।
30 सीटों पर ताल ठोंकेगा भारतीय जनतंत्र मोर्चा
इसी तरह झारखंड के चर्चित निर्दलीय विधायक सरयू राय द्वारा स्थापित भारतीय जनतंत्र मोर्चा ने आगामी विधानसभा चुनाव में राज्य की 30 सीटों पर चुनाव लड़ने का विचार करने की बात कही है। सरयू राय इस पार्टी के संरक्षक हैं और धर्मेंद्र तिवारी अध्यक्ष। तिवारी ने कहा है कि अगले एक-दो दिनों में इस पर अंतिम फैसला हो जायेगा। इस पार्टी के प्रमुख धर्मेंद्र तिवारी ने लोकसभा चुनाव में रांची संसदीय सीट से किस्मत आजमायी थी और 3094 वोट ला सके थे।
कहां से प्रत्याशी लायेंगे ये दल
अब जरा इन राजनीतिक दलों के दावों-फैसलों पर गौर करें। जयराम महतो ने 55 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा तो कर दी है, लेकिन यह नहीं बताया कि इतनी बड़ी संख्या में उनके पास उम्मीदवार कहां से आयेंगे। जयराम महतो एक तात्कालिक मुद्दा के साथ राजनीति के मैदान में उतरे हैं और ऐसे तात्कालिक मुद्दे बहुत दिनों तक नहीं रहते। फिर चुनावी राजनीति ऐसे तात्कालिक मुद्दों से नहीं चलती है। यदि एक बारगी यह मान भी लिया जाये कि जयराम महतो को उम्मीदवार तो मिल जायेंगे, लेकिन उन्हें चुनाव लड़ने लायक संसाधन कहां से मिलेगा और कौन देगा, इसका जवाब न तो जयराम महतो के पास है और न ही उनके संभावित उम्मीदवारों के पास।
लगभग यही हाल भारतीय जनतंत्र मोर्चा का भी है। जिस पार्टी का संगठन अब तक सभी विधानसभा क्षेत्रों में खड़ा भी नहीं हो सका है, वहां उम्मीदवार उतारना राजनीतिक दृष्टिकोण से कितना उचित है, यह अच्छी तरह समझा जा सकता है। उम्मीदवार जुटाने से लेकर संसाधन एकत्र करने और चुनाव प्रबंधन की तमाम तकनीकी जरूरतों को पूरा करना आसान काम नहीं है और यह केवल दावों-फैसलों से पूरा नहीं होता, यह बात समझनी होगी।
झारखंड में छोटे दलों का इतिहास
ऐसा नहीं है कि झारखंड में छोटे-छोटे राजनीतिक दलों का अस्तित्व नहीं है। झारखंड पार्टी से लेकर झारखंड विकास मोर्चा और झारखंड नवनिर्माण दल से लेकर झारखंड जनाधिकार पार्टी और सदान विकास मोर्चा से लेकर जन अधिकार पार्टी तक न जाने कितने दल अस्तित्व में आये और नेपथ्य में चले गये। झारखंड विकास मोर्चा की स्थापना बाबूलाल मरांडी ने की थी और 2009 के चुनाव में उसके 11 प्रत्याशी विधानसभा में पहुंचे थे। इसी तरह 2014 में भी उसके नौ प्रत्याशी जीते थे। लेकिन बाद में इस पार्टी का भाजपा में विलय हो गया। कभी झामुमो के सबसे बड़े नेताओं में शुमार सूरज मंडल ने झारखंड नवनिर्माण दल बनाया था, लेकिन वह आज नेपथ्य में है। झारखंड पार्टी सिमेडगा-खूंटी इलाके में दिखाई देती है, तो दूसरे छोटे-छोटे दल कहीं गायब से हो गये हैं। इसका कारण यह है कि झारखंड के लोग किसी नयी राजनीतिक ताकत को अपनाने में समय लेते हैं और इस गलाकाट राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के माहौल में उतने दिन तक टिके रहना बेहद मुश्किल होता है। जहां तक आजसू पार्टी का सवाल है, तो उसने कई बरसों तक इसका इंतजार किया और तब जाकर राजनीतिक मैदान में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो सकी।
इन तमाम परिस्थितियों में यह बात विचारणीय है कि आखिर इन छोटे दलों के दावों और हकीकत में कितनी दूरी है। ये छोटे-छोटे दल कैसे इतना बड़ा दावा कर रहे हैं, जबकि झारखंड में बड़े राजनीतिक दल भी इतनी सीटों पर उम्मीदवार उतारने में हिचकते हैं। तो इसका मतलब है कि ये दल भी चुनाव के दिनों में टिकट देने के लिए उम्मीदवारों की तलाश करने का अभियान चलायेंगे। यह भी संभव है कि उम्मीदवार उतारने की कोशिश में ये दल ऐसे लोगों को टिकट दे दें, जो बाद में इनके गले की फांस बन जायें। 2019 के चुनाव में आजसू ने ऐसी ही गलती की थी। भाजपा के साथ सीटों का तालमेल नहीं होने के बाद उसने जोश में आकर लगभग 55 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। इस घोषणा को अमली जामा पहनाने के लिए उसने कई दलों से चुके हुए नेताओं को पार्टी में शामिल कर लिया। कई बड़े नाम आजसू के टिकट पर चुनाव मैदान में उतर गये। प्रदीप बलमुचू से लेकर राधाकृष्ण किशोर तक चुनाव मैदान में कूद गये। पर रिजल्ट क्या हुआ। आजसू दो सीटों पर सिमट गयी। इसका मुख्य कारण यह था कि उसके पास उतनी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए न तो अपने उम्मीदवार थे और न ही संसाधन। जो थोड़े-बहुत संसाधन थे, दूसरे दलों से आये बड़े लोगों ने हथिया लिया। संसाधनों की कमी के कारण ही पार्टी माडू, बड़कागांव सहित कई श्योर सीटों पर चुनाव हार गयी। रामगढ़ जैसी प्रतिष्ठित सीट पर उसे हार का सामना करना पड़ा। दरअसल, पार्टी के जो तपे-तपाये उम्मीदवार थे, उनके लिए संसाधनों की कमी पड़ गयी। जब रिजल्ट आया, तो आजसू को अपनी गलती का एहसास हुआ। बाद में वे तमाम बड़े चेहरे आजसू छोड़ कर दूसरे दलों में जा मिले।