विशेष
वक्फ संशोधन बिल के खिलाफ प्रदर्शन कर राजद ने ले लिया है लीड
कांग्रेस भी अपने पुराने वोट बैंक को हासिल करने की कोशिश में जुटी
मुसलमानों के 17 प्रतिशत वोट राज्य की दो दर्जन सीटों पर हैं निर्णायक

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए माहौल लगातार गरम होता जा रहा है और वोट बैंक के समीकरणों को अपने पक्ष में करने के लिए सभी राजनीतिक दल कोशिशों में जुट गये हैं। इन पार्टियों के लिए अगली बड़ी परीक्षा बिहार विधानसभा चुनाव है। इसमें भी मुस्लिम वोट बैंक खास है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद होनेवाला यह पहला चुनाव होगा, जिसमें गैर-भाजपाई दलों को अल्पसंख्यक वोट बैंक, विशेष रूप से मुस्लिम मतदाताओं के संदर्भ में, एक लिटमस टेस्ट की तरह परखेंगे। बिहार में करीब 17% मुस्लिम आबादी है और इस वोट बैंक पर कांग्रेस, राजद और जदयू तीनों की नजर टिकी हुई है। यह लड़ाई सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर करीब 20% मुस्लिम वोट खास कर कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए निर्णायक हो सकते हैं। बिहार में मुस्लिम वोटर राज्य की करीब दो दर्जन सीटों पर निर्णायक हो सकते हैं। इनमें सीमांचल की सीटें भी शामिल हैं, जहां पिछली बार ओवैसी की पार्टी ने पांच सीटें जीत ली थीं। इसलिए राजद और कांग्रेस अभी से ही सतर्क हैं। राजद ने तो पटना में वक्फ कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर अपने इरादे साफ कर दिये हैं और कांग्रेस का मुस्लिम मिशन भी अब और स्पष्ट हो गया है। कांग्रेस, राजद और जदयू के बीच अल्पसंख्यक वोट बैंक को लेकर कड़ी टक्कर होनी तय है। इसलिए बिहार में मुस्लिम वोट बैंक के लिए इस बार झकझूमर तय है। इस झकझूमर में कांग्रेस की क्या रणनीति होगी और वह कितनी असरदार होगी, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

बिहार में साल के अंत में होनेवाला विधानसभा चुनाव अभी से ही बेहद दिलचस्प नजारे पेश कर रहा है। वोटरों-सामाजिक समीकरणों को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए सभी दल एक-दूसरे से होड़ करते दिखाई दे रहे हैं। विपक्षी महागठबंधन की ओर से पटना में 29 जून को आयोजित वक्फ कानून विरोधी प्रदर्शन को भी इसी राजनीतिक कवायद की एक कड़ी के रूप में देखा जा रहा है। इसे राजद ने आयोजित किया था और महागठबंधन के दूसरे घटक दलों के नेता भी इसमें शामिल हुए थे। इस प्रदर्शन को बिहार के मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में करने की कोशिश भी कहा जा रहा है।

17 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक का सवाल
बिहार में वैसे तो सामाजिक समीकरणों को अपने पक्ष में करने के लिए तरह-तरह के जुगत भिड़ाये जा रहे हैं, लेकिन इनमें से मुस्लिम वोट बैंक पर कांग्रेस और राजद के साथ जदयू की नजर है। इस लिहाज से बिहार विधानसभा का चुनाव ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद इन दलों के लिए पहली बड़ी परीक्षा होगी। हालांकि मुस्लिम वोट की यह लड़ाई सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर करीब 20 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस और दूसरे गैर-भाजपाई दलों के व्यापक पुनरुद्धार रणनीति के लिए गेम-चेंजर साबित हो सकता है। कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि यह वही वोट बैंक है, जिसने 90 के दशक में कांग्रेस को स्थायित्व दिया था, लेकिन बाद में क्षेत्रीय दलों की ओर खिसक गया।

बिहार में कांग्रेस की रणनीति
पिछले कुछ सालों में कांग्रेस ने हिंदुत्व समर्थकों को लुभाने और अल्पसंख्यक वोटरों को आकर्षित करने के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है। हालांकि, वह अच्छी तरह से जानती है कि हिंदू वोट बैंक के मामले में भाजपा स्वाभाविक रूप से पहली पसंद बनी हुई है। जिन क्षेत्रों में कांग्रेस को हिंदू वोट मिलते हैं, वहां अक्सर धार्मिक कारणों से नहीं, बल्कि स्थानीय परिस्थितियों या भाजपा से असंतोष के कारण होते हैं। इस वास्तविकता को देखते हुए पार्टी अब अपने पारंपरिक गढ़ यानी मुस्लिम वोट पर वापस लौटती दिख रही है। यह अकारण नहीं था कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने एक बार सच्चर समिति की सिफारिशों को तेजी से लागू करने की वकालत की थी और मुसलमानों के अधिकारों को बढ़ाने पर जोर दिया था। यह नीतिगत रुख अल्पसंख्यक कल्याण और सामाजिक न्याय के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता को दिखाता है। हिंदू वोट पाने की कोशिश करने के बाद और निरंतर सफलता न मिलने पर कांग्रेस अब अल्पसंख्यक समुदायों को आकर्षित करने पर जोर देती दिख रही है। लेकिन यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल। न केवल उसे राजद और जदयू जैसी क्षेत्रीय पार्टियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि अपने सहयोगियों के साथ वोट शेयरिंग की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। बिहार में 17 फीसदी मुस्लिम वोट शेयर को लेकर कड़ी टक्कर है और कांग्रेस सहयोगियों और विरोधियों दोनों के साथ दौड़ में है।

कांग्रेस की बदली रणनीति
इस व्यापक संदर्भ से कांग्रेस की ओर से हाल ही में अपनाये गये कई राजनीतिक रुखों को समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लिया जा सकता है। बालाकोट एयरस्ट्राइक पर सवाल उठाने के लिए मिली प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने इस बार अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया, जबकि सार्वजनिक रूप से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर सरकार के रुख का समर्थन किया। हालांकि पार्टी के कुछ नेताओं ने भी सूक्ष्मता से सवाल उठाये। उदित राज ने ऑपरेशन के नाम के धार्मिक उपक्रम पर सवाल उठाया, यह सुझाव देते हुए कि भाजपा सैन्य कार्रवाइयों को हिंदू प्रतीकों से जोड़ने की प्रवृत्ति रखती है। इसके पीछे संदेश स्पष्ट था कि अपने अल्पसंख्यक आधार को यह बताना कि कांग्रेस अभी भी भाजपा के बहुसंख्यकवादी झुकाव को चुनौती देती है। इरान-इजराइल संघर्ष पर पार्टी का रुख भी इसकी बदलती अल्पसंख्यक रणनीति को दर्शाता है। प्रियंका गांधी वाड्रा ने गाजा पर सरकार की चुप्पी की कड़ी आलोचना की। उन्होंने सरकार पर मानवाधिकार उल्लंघनों की अनदेखी करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि इजरायल एक राष्ट्र को नष्ट कर रहा है और भारत चुप है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस की सहानुभूति कहां है। संसद में प्रो फिलीस्तीनी बैग लेकर जाना भी इसी संदेश को और मजबूत करता है और वह है अल्पसंख्यक भावना के साथ जुड़ने का एक सोचा-समझा प्रयास।

कांग्रेस का मुस्लिम परस्त चेहरा
कांग्रेस का मुस्लिम परस्त चेहरा उन राज्यों में भी सामने आ चुका है, जहां वह सत्ता में है। कर्नाटक कांग्रेस सरकार ने हाल ही में सरकारी ठेका और नौकरियों में मुसलमानों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की और अल्पसंख्यकों के लिए आवास आरक्षण को 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत करने का प्रस्ताव रखा। ये निर्णय सिर्फ शासन के कदम नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक संकेत भी हैं। यह दर्शाते हुए कि केंद्र या बिहार या केरल जैसे राज्यों में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अल्पसंख्यक कल्याण को प्राथमिकता देगी।

अब बिहार की बात
जहां तक बिहार की बात है, तो सीट बंटवारे पर बातचीत और बिहार चुनाव कांग्रेस की अल्पसंख्यकों तक पहुंच बनाने की रणनीति के लिए अहम पल होंगे। राजद के साथ गठबंधन के बावजूद कांग्रेस स्पष्ट रूप से मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी स्वतंत्र अपील बनाने की कोशिश कर रही है। जदयू के पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी और अन्य पसमांदा मुस्लिम नेताओं को अपने पाले में शामिल करना इसी कोशिश का हिस्सा है। हालांकि मुस्लिम वोटों को फिर से हासिल करने और साथ ही कुछ हिंदू मतदाताओं को खुश करने की कोशिश में कांग्रेस अक्सर दिशाहीन दिखती है। परस्पर विरोधी आवेगों के बीच फंसी हुई। मुस्लिम वोटों को एकजुट करने और सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलने के बीच चुनाव करने की उसकी जद्दोजहद पार्टी को राजनीतिक चौराहे पर ला खड़ा करती है।

राजद और जदयू भी शांत नहीं
मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए राजद और जदयू भी शांत नहीं हैं। जदयू को जहां अपने पुराने नेताओं-कार्यकर्ताओं पर भरोसा है, वहीं राजद को लालू के एम-वाइ समीकरण पर विश्वास है। पटना में वक्फ कानून विरोधी प्रदर्शन राजद की इसी रणनीति का हिस्सा था। इसलिए इस बार बिहार में जो सीन बनता दिखाई दे रहा है, उसमें मुस्लिम वोट को हासिल करने के लिए मची आपाधापी ही सबसे दिलचस्प नजारा पेश कर रही है।

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