सुधीर कुमार: बेतहाशा औद्योगीकरण, कल-कारखानों से अनियंत्रित मात्रा में निकलते अशोधित अपशिष्ट तथा सीवरेज से निकलने वाली गंदगियों की वजह से देश के हर कोने में नदियां प्रदूषण के बोझ से दबी जा रही हैं। ऐसे में लगता है कि सरकार की नदी जोड़ो परियोजना भी निरर्थक साबित होगी, क्योंकि गाद-मलबों की अधिकता की वजह से नदियां सतत रूप से न तो प्रवाहित हो पा रही हैं और न ही उनमें अब जल धारण करने की क्षमता ही शेष है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसून में एकाएक आई तेजी की वजह से इस समय देश के उत्तर तथा उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में उत्पन्न बाढ़ की स्थिति ने वहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है। उत्तराखंड, ओड़िशा, बिहार, असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश आदि राज्य बाढ़ की चपेट में हैं। दुखद है कि बाढ़ का यह स्वरूप धीरे-धीरे जानलेवा होता जा रहा है। केवल पूर्वोत्तर से अब तक सौ से अधिक लोगों के मरने की खबरें आयीं हैं।
सबसे बुरा असर प्रभावित इलाकों के ग्रामीण समाज तथा अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। जलप्लावन की वजह से अनेक गांव तबाह हो चुके हैं, लाखों लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। बेजुबान पशुओं के लिए भी यह बाढ़ आफत साबित हो रही है, वहीं लाखों हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसलें भी नष्ट हो चुकी हैं। हालांकि, बरसात के महीने में बाढ़ आना कोई नई बात नहीं है। जून से सितंबर तक दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के चार महीनों की समयावधि में होने वाली अत्यधिक वर्षा से उत्पन्न बाढ़ की वजह से मुख्यत: उत्तर तथा पूर्वोत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में हालात नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं।
बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का दृश्य कुछ पल के लिए मरघट-सा हो जाता है। एक तरफ, लोगों के समक्ष सुरक्षित स्थानों पर जाकर अपने जीवन को बचाने की चुनौती होती है, वहीं इसके बाद प्रभावित आबादी के बीच भोजन, पेयजल, दवा जैसी मूलभूत सुविधाओं को प्राप्त करने की व्याकुलता भी बढ़ जाती है। इन दिनों नदियों के उफान पर बहने के कारण करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित हुआ है। रेल की पटरियों और सड़कों पर पानी भर जाने से यातायात व्यवस्था पूरी तरह ठप हो चुकी है। मूसलाधार बारिश की वजह से संचार व्यवस्था भी बाधित हुई है। एनडीआरएफ यानी राष्ट्रीय आपदा निरोधक बल की कई टीमें तत्काल सहायता के लिए उपलब्ध करायी जा रही हैं, ताकि लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा सके।
भारत में बाढ़ की विभीषिका से प्रतिवर्ष लाखों लोगों का घरबार उजड़ जाता है। इसके अलावा, इस आपदा से बड़े पैमाने पर जान-माल की हानि भी होती है। गंगा, ब्रह्मपुत्र, कोसी, महानंदा, दामोदर, हुगली, गंडक, कावेरी, कृष्णा, सतलज आदि नदियां बरसात के दिनों में और बरसात के बाद बाढ़ लाने के लिए जानी जाती रही हैं। इन नदियों में आयी बाढ़ से हर साल अनगिनत परिवारों की जिंदगी सूनी हो जाती है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में रहने वाली आबादी तो हर साल इसी डर के साए में अपना जीवन व्यतीत करती है। भारत में लगभग 400 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ के खतरे वाला है, जिसमें से प्रतिवर्ष औसतन 77 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है। हर साल लगभग 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसलें नष्ट हो जाती हैं। योजना आयोग (अब नीति आयोग) के एक अनुमान के अनुसार, देश में प्रतिवर्ष औसतन कोई डेढ़ हजार लोग बाढ़ के कारण मारे जाते हैं।
बाढ़ के चलते फसलों, मकानों, मवेशियों तथा सार्वजनिक संपत्तियों का भी बड़े पैमाने पर नुकसान होता है। गौरतलब है कि देश के किसी भी हिस्से में जब बाढ़ आती है तो हमारे सामने नदियों की मंद पड़ी गति का प्रश्न खड़ा हो जाता है। दरअसल, देश में बारहमासी नदियों के साथ-साथ बरसाती नदियां भी प्रदूषण की मानक रेखा से ऊपर बह रही हैं। गाद-मलबे की अधिकता के कारण नदियों की प्राकृतिक गति सुस्त पड़ गयी है। ऐसे में, हल्की बारिश होने पर भी नदियां जल संग्रहण नहीं कर पाती हैं और बाढ़ के फैलाव का सबसे बड़ा कारण बन जाती हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट की मानें, तो देश की 445 नदियों में से 275 नदियां बुरी तरह प्रदूषित हैं। बेतहाशा औद्योगीकरण, कल-कारखानों से अनियंत्रित मात्रा में निकलते अशोधित अपशिष्ट तथा सीवरेज से निकलने वाली गंदगियों की वजह से देश के हर कोने में नदियां प्रदूषण के बोझ से दबी जा रही हैं।
ऐसे में लगता है कि सरकार की नदी जोड़ो परियोजना भी निरर्थक साबित होगी, क्योंकि गाद-मलबे की अधिकता की वजह से नदियां अब सतत रूप से न तो प्रवाहित हो पा रही हैं और न ही उनमें अब जल धारण करने की क्षमता ही शेष है।
बेशक, सरकार ने गंगा और यमुना जैसी चंद नदियों को प्रदूषण-मुक्तकरने के लिए भारी व्यय वाली योजनाएं बना रखी हैं, पर बहुतेरी नदियां आज भी सरकारी उपेक्षा की शिकार हैं। यही उपेक्षित नदियां बाढ़ को आमंत्रण दे रही हैं। बेशक बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है,लेकिन इसके लिए स्थितियां निर्मित करने में मानव समाज और उसके स्वार्थपरक क्रियाकलाप की भूमिका भी हमेशा रही है, और यह बढ़ती जा रही है। दरअसल, यह सब नतीजा है विकास के उस आधुनिक दृष्टिकोण का, जिसके तहत मानव प्रकृति को अपना मित्र समझने के बजाय गुलाम समझता रहा है। इस दृष्टिकोण के हावी रहने से विकास, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का पर्याय हो गया है।
वनों की मौजूदगी मृदा को जकड़े रखती है। लेकिन कृषिगत तथा औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर जंगलों का बड़े पैमाने पर सफाया हो रहा है। ऐसे भू-क्षेत्र बाढ़ के जल को रोके रखने में अक्षम होते हैं। नतीजतन, तबाही आती है। वर्षा के आगमन से पूर्व जलस्रोतों से गाद की सफाई होनी चाहिए थी। लाखों तालाबों का जीर्णोद्धार कराए जाने के साथ ही लोगों को ह्यवर्षा जल संग्रहणह्ण के लिए जागरूक तथा उत्साहित किया जाना चाहिए था। लेकिन यह सब नहीं किया गया।
बाढ़ आने पर पर्यावरणविदों तथा देश के कथित बौद्धिक वर्ग के लोगों के बीच विकास और पर्यावरण में संतुलन को लेकर चर्चा और चिंतन का दौर शुरू हो जाता है, लेकिन बाढ़ का पानी जैसे-जैसे कम होता जाता है उसी अनुपात में पर्यावरण संरक्षण का मुद््दा भी गौण होने लगता है। 2013 में उत्तराखंड, 2014 में जम्मू-कश्मीर तथा 2015 में तमिलनाडु में आई बाढ़ जनित विपदा के बाद उम्मीद थी कि मौजूदा हालात बदलेंगे। लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। मशहूर पर्यावरणविद सुंदरलाल बहगुणा, ह्यजल-पुरुषह्ण राजेंद्र सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर जैसे लोग लंबे समय से इस दिशा में सरकार को आगाह करते रहे हैं, लेकिन उनकी बातें न तो सुनी जाती हैं और न उन पर चर्चा ही होती है। आज जरूरत है विकास के टिकाऊ यानी सततपोषणीय स्वरूप को अपनाने की है। औद्योगिक विकास की जितनी आवश्यकता है, उतना ही आवश्यक है विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन। संतुलन की यह डोर जब टूट जाती है, तो मानव समाज को बार-बार आपदाओं का सामना करना पड़ता है।