कोरोना के कहर से बचाने के लिए लागू देशव्यापी लॉकडाउन को चार महीने हो चुके हैं। इस दौरान दस दिन के लिए अनलॉक भी किया गया लेकिन काम धंधा बंद होने से परेशान श्रमिकों की जिंदगी अनलॉक नहीं हो सकी। इन चार महीनों में परदेस में रह रहे श्रमिकों ने जो जलालत झेली है, उसका वर्णन करना संभव नहीं है। परदेस से लौट रहे श्रमिक जो दर्द भरी दास्तां सुनाते हैं, वह सुनकर बड़े-बड़े लोगों के हौसले पस्त हो सकते हैं। कई दिनों तक भूखे रहे, चुरा और मिर्च खाकर जिंदगी गुजारी, इनके बच्चे दूध के लिए बिलबिलातेे रहे। घर में ना राशन था, ना जेब में राशन खरीदने के लिए पैसे, सरकारों ने कहा कि सभी को खाना खिलाएंगे, लेकिन आधे श्रमिकों को भी खाना नहीं मिल सका। वह तो भला हो कुछ स्थानीय दुकानदारों, सामाजिक कार्यकर्ता और नेताओं का, जिन्होंने इनके दुख दर्द को समझा और भोजन उपलब्ध कराने में मदद की। केंद्र सरकार स्पेशल ट्रेन चला रही है तो दोगुने दाम पर दलाल के माध्यम से टिकट खरीदकर लोग घर आ रहे हैं। घर आ रहे अधिकांश श्रमिक अब किसी भी हालत में परदेस जाने के लिए तैयार नहीं हैं, हां यहां काम नहीं मिला, स्वरोजगार की व्यवस्था नहीं हुई तो यह फिर परदेस जा सकते हैं। रोसड़ा के रामबाबू दास, शंभू दास, मनोज दास, विपिन दास, सुशील तांती तथा बैजनाथ तांती समेत 15 से अधिक लोग असम के कोकराझार में कई वर्षों से रहकर मजदूरी कर रहे थे। लॉकडाउन हो गया तो इन लोगों का काम बंद हो गया, यह सब अपने घर में लॉक होने को मजबूर हो गए। लेकिन पेट लॉक नहीं हो सकता है, थक हार कर इन लोगों ने घर से पैसे मंगाए और किसी तरह दिन गुजारते रहे। अब गांव आ गए हैं तथा गांव में ही रहेंगे। उन्हें भले ही चार-पांच दिन तक खाना नहीं मिला, इन्होंने चुरा खाकर अपनी जान बचाई। लेकिन अब यह सब गांव में रहकर स्वरोजगार करेंगे तथा खुद के परिवार के साथ-साथ गांव वालों के लिए भी रोजी रोजगार की व्यवस्था करेंगे। बेगूसराय स्टेशन पर बातचीत के दौरान शंभू एवं विपिन ने बताया कि बिहार में काम नहीं मिलने के कारण हम लोग परदेस में रह रहे थे। लेकिन कभी सोचा भी नहीं था कि इतना कठिन परिश्रम करने के बावजूद रोटी पर आफत आ जाएगी। असम की हालत लॉकडाउन में बहुत बदतर हो गई, वहां की सरकार सभी लोगों को एक समय भी खाना खिला सकी। बाहर निकलने पर पुलिस बगैर कुछ कहे सुने लाठी चला देती थी, जिनके यहां काम करते थे उन्होंने घर जाने को कह दिया। जब भोजन पर आफत आई और उन्हें फोन किया तो फोन नहीं रिसीव किया गया, उनके घर पर गए तो गेट नहीं खोला गया। अनलॉक होने के बाद भी हम लोगों के साथ मनमानी की गई। इसके बाद दलालों के माध्यम से टिकट लेकर जब गांव के लिए चल दिए तो फोन किया गया कि मत जाओ घर काम देंगे, टिकट का भी पैसा दे देंगे। लेकिन हम लोगों ने जो जलालत झेली थी उस स्थिति में वहां रहना असंभव था। अब यहीं पर हम लोग प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत केेे सपनों को पूरा करेंगे, इस योजना से कर्ज लेकर सीमेंट का ईंट बनाने समेत भवन निर्माण का पूरा काम करेंगे। सीमेंट का ईंट, अगरबत्ती और सर्फ बनाने का काम शुरू करेंगे तो हम लोगों के साथ गांव वालों को भी रोजगार मिलेगा। हम खुद गांव में रहकर आर्थिक रूप से मजबूत होने के साथ-साथ अपने गांव वालों के भी आर्थिक प्रगति का द्वार खोल लेंगे। जिससे फिर किसी को परदेस जाकर जलालत नहीं झेलनी पड़े।