रांची। यदि 15 नवंबर, 2000 झारखंड का स्थापना दिवस है, तो 29 दिसंबर, 2019 को झारखंड के पुनर्जागरण के दिन के रूप में इतिहास में शुमार किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि इस दिन झारखंड ने पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार को आत्मसात किया और अपनी माटी के बेटे हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनते देखा। हेमंत सोरेन ने सवा तीन करोड़ झारखंडियों की अगुवाई करने का जो भार अपने कंधों पर लिया था, उसके छह महीने पूरे हो चुके हैं। लेकिन कहीं कोई ताम-झाम या शोरगुल नहीं हुआ, क्योंकि हेमंत सोरेन प्रचार में नहीं, काम में विश्वास करते हैं। पिछले छह महीने का एक-एक दिन झारखंड के नाम रहा। हेमंत सोरेन ने राज्य के हौसले को नयी ताकत दी है, जिसके कारण राज्य के सपने अंगड़ाई लेने लगे हैं। देश और दुनिया में हेमंत सोरेन के कामों की चर्चा हो रही है।
पिछले छह महीने में झारखंड ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं। हेमंत सोरेन ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं, जो लगभग हर शाम मीडिया से मुखातिब होते हैं और अपनी बात बेबाकी से सामने रखते हैं। मुख्यमंत्री बनने से एक सप्ताह पहले 23 दिसंबर को, जब विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए और हेमंत को ऐतिहासिक जनादेश मिला, झामुमो के इस युवा नेता ने दुनिया को आश्वस्त किया था कि वह बदले की भावना से कोई काम नहीं करेंगे। इस भरोसे को उन्होंने कायम रखा है। उन्होंने कहा था कि अब हर फैसला झारखंड के हितों को ध्यान में रख कर किया जायेगा और पिछले छह महीने में उनका एक भी फैसला राज्य हित के खिलाफ नहीं गया है। चाहे कोरोना संकट हो या कोयला खदान की नीलामी, प्रवासी मजदूरों के लिए विशेष ट्रेन की व्यवस्था करने का सवाल हो या गरीबों के लिए दूसरी कल्याण योजनाएं शुरू करने का मामला हो, हेमंत ने इन छह महीनों में ही साबित कर दिया है कि वह सचमुच काम में यकीन रखते हैं। यही कारण है कि उन्होंने राज्य के प्रशासनिक ढांचे में कोई बड़ा फेरबदल नहीं किया है। पांच साल में 18 हजार से अधिक तबादले का गवाह बने झारखंड ने पिछले छह महीने में किसी भी उपायुक्त को बदलते नहीं देखा है।
शुरुआती दिनों में ही हेमंत सोरेन को पता चल गया था कि झारखंड के सामने समस्याएं बड़ी हैं। विकराल चुनौतियां हैं और संसाधनों का भयंकर अभाव है। तमाम अवरोधों के बावजूद हेमंत ने आगे कदम बढ़ाया और अपनी मजबूत इच्छाशक्ति, प्रशासनिक कौशल और राजनीतिक सूझबूझ से अवरोधों को एक-एक कर हटाया। उनके सामने कोरोना की चुनौतियां आयीं, तो उन्होंने सबसे पहले खतरे को भांपा और अपनी तैयारी शुरू कर दी। यह हेमंत की प्रशासनिक क्षमता का ही परिणाम है कि पिछले सवा तीन महीने में राज्य में एक भी व्यक्ति भूखा नहीं रहा। समाज के अंतिम कतार पर बैठे व्यक्ति के पास तक प्रशासन पहुंचा और उसे पेट भर खाना मिलता रहा। प्रवासी मजदूरों के संकट का भी हेमंत सोरेन ने हिम्मत के साथ सामना किया। यह उनके दृढ़ निश्चय का ही परिणाम था कि देश में पहली श्रमिक स्पेशल ट्रेन झारखंड ही आयी और प्रवासी कामगारों को लेकर पहला विमान भी झारखंड में ही उतरा। इतना ही नहीं, प्रवासी मजदूरों को घर में ही काम देने का सिलसिला भी सबसे पहले झारखंड में ही शुरू हुआ।
अपनी सरकार के छह माह पूरे होने के अवसर पर हेमंत सोरेन ने न कोई भाषण दिया और न ही कोई समारोह। यह झारखंड के लिए सुखद संकेत है। झारखंड की आगे की चुनौतियां हेमंत सोरेन जैसे मुख्यमंत्री के फौलादी इरादों के आगे बौनी साबित होंगी।
हेमंत सोरेन के छह माह : एक-एक दिन झारखंड के नाम
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