कोयले की कमर्शियल माइनिंग के फैसले पर पिछले डेढ़ महीने से जारी विवाद को झारखंड ने सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा दिया है। अब केंद्र सरकार ने इस विवाद के समाधान के लिए बातचीत की पहल की है, जिसके तहत केंद्रीय कोयला मंत्री खुद रांची आ रहे हैं। यह झारखंड सरकार की बड़ी कामयाबी मानी जा सकती है, मगर यह केंद्र सरकार की भी साहसिक पहल है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कोयले की कमर्शियल माइनिंग पर इतना विवाद भी नहीं होना चाहिए था, क्योंकि झारखंड सरकार भी केंद्र के फैसले के साथ थी। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने तो बातचीत की पहल 13 जून को ही की थी, जब उन्होंने केंद्रीय कोयला मंत्री को एक पत्र भेज कर नीलामी प्रक्रिया को कुछ दिनों के लिए स्थगित करने का आग्रह किया था। जब झारखंड की बात नहीं सुनी गयी, तब हेमंत ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। केंद्र ने देर से ही सही, हेमंत के आग्रह को स्वीकार कर लिया है। केंद्रीय मंत्री के साथ बातचीत का नतीजा कुछ भी निकले, एक बात साफ हो गयी है कि किसी भी समस्या का समाधान बातचीत से निकाला जा सकता है और इसके दरवाजे कभी बंद नहीं होने चाहिए। केंद्रीय मंत्री के साथ सीधी बातचीत में हेमंत सोरेन झारखंड के हितों की बात जरूर करेंगे और अब प्रह्लाद जोशी भी उस पर गंभीरता से ध्यान देंगे, ऐसी उम्मीद जगी है। दो विरोधी दलों की सरकारों के बीच बातचीत की इस शानदार पहल की पृष्ठभूमि में कोयले की राजनीति पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
कहा जाता है कि यदि कौरवों ने पांच गांव देने का पांडवों का प्रस्ताव मान लिया होता, तो महाभारत नहीं हुआ होता। यह तो पौराणिक कथा है, लेकिन आधुनिक युग में भी इसके प्रमाण कई बार मिले हैं। पिछली शताब्दी के सातवें-आठवें दशक में शीत युद्ध की समाप्ति भी बातचीत के जरिये ही हुई थी और यहां तक कि पश्चिम एशिया का संकट भी बातचीत के जरिये ही सुलझाया गया था। भारत में तो बातचीत के जरिये कई जटिल मुद्दे आसानी से सुलझाये जाने के प्रमाण भारी तादाद में मौजूद हैं। बातचीत की इस शानदार परंपरा में एक अध्याय अगले 24 घंटे में झारखंड में लिखा जायेगा, जब केंद्रीय कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी कोयले की कमर्शियल माइनिंग पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से सीधे बात करेंगे। यह एक ऐतिहासिक अवसर होगा, क्योंकि हाल के दिनों में किसी राज्य के हितों के लिए न तो किसी मुख्यमंत्री को इतने तार्किक ढंग से अड़ते हुए देखा गया है और न ही केंद्र सरकार की ओर से बातचीत की पहल किये जाने का कोई प्रयास ही हुआ है। इस लिहाज से झारखंड इतिहास के एक और स्वर्णिम अध्याय के दरवाजे पर खड़ा है।
कोरोना संकट के दौर में जून की शुरूआत में केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत ऊर्जा के सबसे बड़े स्रोत कोयले के वाणिज्यिक खनन को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की घोषणा की थी, तब इस पर खूब हल्ला मचा था। केंद्र के फैसले का समर्थन तो राज्यों ने किया, लेकिन सबसे अधिक कोयला उत्पादन करनेवाले झारखंड ने कोल ब्लॉक की नीलामी प्रक्रिया को कुछ दिनों तक स्थगित रखने का आग्रह किया। 13 जून को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस बारे में केंद्रीय कोयला मंत्री को एक पत्र भी भेजा। पत्र में नीलामी प्रक्रिया रोकने के पीछे ठोस तर्क दिये गये थे। केंद्र ने उस समय झारखंड के इस आग्रह को नहीं माना और नीलामी की प्रक्रिया शुरू कर दी। तब झारखंड सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चली गयी। वहां यह याचिका स्वीकार कर ली गयी है और अदालत ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर अपना पक्ष रखने को कहा है।
कोल ब्लॉक की नीलामी पर छिड़े इस विवाद को केंद्र-राज्य के बीच के टकराव के रूप में देखा जा रहा था। हालांकि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इसे टकराव की बजाय अपने हितों की रक्षा के लिए उठाया गया कदम मानते हैं। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने से पहले उन्होंने साफ कहा था कि केंद्र का फैसला झारखंड के हितों की अनदेखी करता है। इसलिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा है।
अब केंद्र सरकार ने महसूस किया है कि कोयले पर छिड़ा यह विवाद बातचीत से सुलझाया जा सकता है। इसलिए उसने केंद्रीय कोयला मंत्री को झारखंड भेजने का फैसला किया है। केंद्र की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। भारतीय संघवाद में राजनीति के लिए पर्याप्त जगह दी गयी है, लेकिन यह मुद्दा सीधे-सीधे राज्यहित से जुड़ा हुआ है। इसलिए इस पर संबंधित राज्य को भरोसे में लिया जाना आवश्यक है। हेमंत सोरेन ने अपनी चिट्ठी में कमर्शियल माइनिंग के फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए उसका समर्थन किया था। इससे केंद्र को समझना चाहिए था कि झारखंड इस फैसले से सबसे अधिक प्रभावित होनेवाला राज्य है और इसलिए उसे विश्वास में लिया जाना जरूरी है। यदि उस समय ही झारखंड के साथ बातचीत कर ली गयी होती, तो न यह विवाद पैदा होता और न ही यह राजनीतिक टकराव का विषय बनता। इतना ही नहीं, इस मुद्दे पर दोनों पक्षों में जो सियासी घात-प्रतिघात हुए, उससे भी बचा जा सकता था। कोयले की कमर्शियल माइनिंग कहीं से भी राजनीतिक मुद्दा नहीं था, लेकिन चूंकि झारखंड की राजनीति कोयले से बहुत प्रभावित होती है, इसलिए इस पर स्वाभाविक रूप से सियासी रंग चढ़ गया।
कुल मिला कर केंद्र सरकार की यह पहल बेहद शानदार है, क्योंकि उसने देर से ही सही, लेकिन मान लिया है कि झारखंड सरकार द्वारा उठायी गयी आपत्तियों में दम है। केंद्रीय कोयला मंत्री जब इस मुद्दे पर झारखंड सरकार के मुखिया से बातचीत करेंगे, तो कुछ वैसे मुद्दे भी सामने आयेंगे, जिनके बारे में न केंद्र ने सोचा होगा और न ही झारखंड ने। यह भी हो सकता है कि पहले दौर की बातचीत में ही मुद्दे का समाधान नहीं निकले, लेकिन इसका महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि यह बातचीत गतिरोध टूटने का संकेत है। झारखंड के सवा तीन करोड़ लोग इस बातचीत से बहुत उम्मीद लगाये बैठे हैं, क्योंकि यह उनके हक और अधिकार का मुद्दा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बातचीत का सिलसिला शुरू होने के बाद मुद्दे के सुलझने तक यह जारी रहेगा।