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भाजपा के बुलावे पर 38 दल आये, तो बेंगलुरु में जुटे 26 विपक्षी दल
लालू प्रसाद, तेजस्वी और नीतीश का प्रेस कांफ्रेंस से पहले निकल जाना चर्चा का विषय
देश में अगले साल होनेवाले आम चुनाव की तैयारियों के दृष्टिकोण से 18 जुलाई 2023 की तारीख बेहद महत्वपूर्ण रही। देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली से लेकर दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में सत्ताधारी दल और विपक्षी दलों की बैठकें हुईं, तो स्वाभाविक रूप से इनके फलाफल पर दुनिया भर का ध्यान लगा रहा। ऐसे में इन दोनों बैठकों का मूल्यांकन इस लिहाज से भी जरूरी हो जाता है कि अगला चुनाव कितना रोमांचक हो सकता है। इन दोनों बैठकों को सियासी शक्ति प्रदर्शन का पहला राउंड कहा जा सकता है और जहां तक इनके परिणाम की बात है, तो यह राउंड निश्चित रूप से सत्ताधारी दल के पक्ष में रहा। लगातार तीसरी बार देश की सत्ता हासिल करने की तैयारी में जुटी भाजपा ने दिल्ली की बैठक में अपने साथ 38 दल जोड़ लिये, जबकि तमाम प्रयासों के बावजूद विपक्ष के कुनबे में 26 दल ही जुट सके। इस राउंड में भाजपा के भारी पड़ने का एक और कारण यह है कि एनडीए अपने नेता के रूप में नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर चुका है, जबकि विपक्ष अब भी नेता के चेहरे के नाम पर एकमत नहीं हो सका है। इसके अलावा कई ऐसे मसले हैं, जिन्हें सुलझाना एनडीए के लिए आसान है, जबकि उन्हीं मसलों पर विपक्षी एकता की पूरी इमारत के दरकने का खतरा बरकरार है। भाजपा के नेतृत्व में 38 दलों का एनडीए का कुनबा बनाम 26 दलों के गठबंधन, जिसका नामकरण ‘इंडिया’ (भारतीय राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समावेशी गठबंधन) के रूप में किया गया है, की वास्तविक ताकत क्या है, इसका पता तो अगले आम चुनाव के बाद ही पता चलेगा, लेकिन फिलहाल इतना तय हो गया है कि इन दोनों का मुकाबला बेहद रोमांचक होनेवाला है। इन दोनों गठबंधनों की बैठकों के फलाफल का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
एनडीए : मोदी का चेहरा, मोदी का काम और 38 दलों की ताकत
लगातार तीसरी बार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सत्ता हासिल करने की कोशिश में जुटी भाजपा के आह्वान पर दिल्ली में हुई राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह छाये रहे। बैठक में एक स्वर से संकल्प लिया गया कि गठबंधन में शामिल सभी दलों की सामूहिक ताकत के साथ नरेंद्र मोदी के नाम और काम के बल पर अगला चुनाव लड़ा जायेगा और जीत हासिल होगी। एनडीए की इस बैठक का उद्देश्य जहां लगभग पूरा होता दिखाई दिया, वहीं अब तय हो गया है कि भाजपा के नेतृत्व में एनडीए का मिशन 2024 कामयाबी के रास्ते पर बढ़ चला है। एनडीए की बैठक इसलिए सफल मानी जा सकती है, क्योंकि इसमें जो दल शामिल हुए हैं, उनका प्रभाव चुनावी नजरिये से बेहद अहम है।
भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है कि यहां महज कुछ जिलों तक सिमटे दल भी अपने साथ जुड़े खास वोट बैंक के सहारे बड़ी-बड़ी पार्टियों को पानी पिलाते रहे हैं। भाजपा के साथ आये 38 दलों में से अधिकांश ऐसे ही हैं। इन दलों के पास अभी भले ही बहुत ज्यादा विधायक या सांसद ना हों, लेकिन अपने-अपने खास कोर एरिया में उनकी मतदाताओं पर पकड़ एक पूरे प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने वाली है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण बिहार है, जहां चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), उनके चाचा पशुपति नाथ पारस की लोक जनशक्ति पार्टी, जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और मुकेश सहनी की वीआइपी अब एनडीए के साथ है। इन दलों की बिहार के कुल वोट बैंक में करीब 30 फीसदी पर पकड़ है। दरअसल बिहार में 16 फीसदी दलित वोट हैं, जिनमें से करीब छह फीसदी पासवान वोट और छह फीसदी मुसहर वोट हैं। पासवान वोट पर चिराग और पारस, तो मुसहर वोट पर मांझी की मजबूत पकड़ है। मांझी इसके अलावा भी महादलित वोट में और सेंध लगा सकते हैं। इसी तरह कुशवाहा समाज के आठ फीसदी वोट और मल्लाह समुदाय के करीब 10 फीसदी वोट बिहार में माने जाते हैं। ये दोनों उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी के कोर वोट बैंक हैं। इससे भाजपा उन सीटों पर भरपाई कर सकती है, जो नीतीश कुमार की जदयू के बिहार में भाजपा का साथ छोड़ कर इंडिया का दामन थामने से नुकसान में आ सकती हैं। इसी तरह उत्तरप्रदेश में एनडीए के साथ ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, डॉ संजय निषाद की निषाद पार्टी और अनुप्रिया पटेल का अपना दल (एस) खड़े हैं। इन दलों के वोट बैंक का प्रभाव यूपी के पूर्वांचल और मध्यांचल की सीटों पर है। पूर्वांचल में पिछली बार भाजपा को 26 में से छह सीटों पर हार मिली थी। भाजपा इस बार राजभर, निषाद और पटेल, यानी कुर्मी वोट से इन सीटों को कब्जे में करना चाहती है। राजभर अकेले दम पर चुनाव जीतने की हैसियत नहीं रखते, लेकिन उनका कोर वोट बैंक यानी राजभर समुदाय पूर्वांचल की 12 से ज्यादा सीटों पर प्रभावी संख्या में है। उधर भाजपा के मिशन साउथ की झंडाबरदार जयललिता के समय से ही अन्नाद्रमुक रही है। भाजपा को तमिलनाडु की जनता ने अब तक स्वीकार नहीं किया है। इसके चलते भाजपा को वहां अन्नाद्रमुक और तमिल मनीला कांग्रेस के जरिये ही अपना झंडा बुलंद करना होगा। आंध्रप्रदेश में भी भाजपा लगातार कोशिश के बावजूद ज्यादा पैठ नहीं बना पायी है। हालांकि आंध्र से अलग हुए तेलंगाना में भाजपा अपना वोट बैंक तैयार करने में सफल रही है। ऐसे में आंध्र में उसने अपने साथ फिल्म स्टार पवन कल्याण की जनसेना को जोड़ा है।
अब भाजपा एनडीए में 38 दलों से आगे भी कुछ नये चेहरे जोड़ने की कोशिश में जुटी हुई है। आंध्रप्रदेश में वह मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाइएसआर कांग्रेस को साथ लाने की कोशिश में है। जगन का झुकाव भी पिछले दिनों भाजपा की तरफ रहा है और तमाम मुद्दों पर दोनों दल साथ दिखे हैं। इसी कारण भाजपा ने अपने पुराने सहयोगी दल टीडीपी को आंध्र में अब तक खास तवज्जो नहीं दी है। केरल में भी भाजपा कांग्रेस से टूटे हिस्से केरल कांग्रेस (थॉमस) को जोड़ने की तैयारी में है। केरल कांग्रेस पहले भी भाजपा के साथ थी, लेकिन 2021 के चुनाव में उसने भाजपा का साथ छोड़ दिया था। इसके अलावा उत्तरप्रदेश में भी रालोद की तरफ से भाजपा खेमे में एंट्री की इच्छा के संकेत आ रहे हैं, लेकिन अब तक दोनों ही तरफ के नेताओं ने स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा है।
छोटे दलों के वोट बैंक होते हैं प्रभावी
यदि भारतीय राजनीति के इतिहास को देखा जाये, तो छोटे दलों के वोट बेहद प्रभावी साबित होते रहे हैं। जहां मुकाबला कांटे का होता है, वहां स्थानीय स्तर के ऐसे दल का साथ मिलनेवाले दल को सीधे तौर पर चार-पांच फीसदी की बढ़त मिल जाती है। यही बढ़त निर्णायक साबित होती है।
इंडिया : 26 आये साथ, पर पांच जटिल मुद्दों को सुलझाना बाकी
बेंगलुरु में हुई विपक्षी दलों की बैठक में 26 दलों के गठबंधन का नाम ‘इंडिया’, यानी भारतीय राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समावेशी गठबंधन (इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्लूसिव एलायंस) रखा गया है। बैठक में इस नामकरण के अलावा दूसरा कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया। इससे लगता है कि विपक्षी एकता का अभियान अब अगली बैठक तक के लिए मुल्तवी हो गया है। विपक्षी गठबंधन के नाम का भी सियासी मतलब निकाला जाने लगा है। वैसे भी नाम की सियासत इन दिनों हावी है। खासतौर पर अंग्रेजी के शब्दों का अलग-अलग मतलब निकालने का भी चलन हो गया है। भाजपा इस काम में आगे थी। भाजपा ने विपक्ष से जुड़ी तमाम पार्टियों के नामों का जिक्र करके उसका अलग मतलब निकाला। यह चर्चा में भी रहा। यही कारण है कि इस बार विपक्ष ने इस मामले में बड़ा दांव खेल दिया है। ‘इंडिया’ नाम रखने से विपक्ष को सबसे बड़ा फायदा यही होगा कि भाजपा उसका मजाक या तंज नहीं कस पायेगी। देश के नाम पर गठबंधन का नाम पड़ने से भाजपा के लिए यह बड़ी चुनौती होगी। वैसे इस बात के आसार कम हैं कि गठबंधन के नाम पर वोट इधर-उधर हो। वोटर तो किसी दल या प्रत्याशी को वोट देता है, गठबंधन से उसे बहुत अधिक मतलब नहीं रहता है। इस लिहाज से इस नाम का चुनावी लाभ शायद ही विपक्ष को अपेक्षित रूप में मिल सकेगा।
इंडिया की बैठक में कुछ दलों के बीच मनमुटाव की बात सामने आयी, मगर उसे कम करने का भी तंत्र विकसित किये जाने की बात कही गयी है। इस मनमुटाव को दूर करने के लिए एक ‘बफर जोन’ तैयार किया गया है, जिसमें वैसे मुद्दों को डाला जायेगा, जिन पर आम सहमति नहीं बनेगी। विवादित मुद्दों पर अंतिम फैसला करने के लिए पांच नेताओं की टीम बनाने की बात कही जा रही है।
विपक्षी दलों की बैठक के बाद जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे तो यही लगता है कि विपक्षी एकता के लिए भले ही तमाम प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर अभी तक विभिन्न दलों के बीच पूर्ण सहमति नहीं बन सकी है। केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग, महंगाई या संसद में विपक्ष को बोलने का पूरा मौका न दिया जाना जैसे मुद्दों पर विपक्षी कुनबा एकमत है। लेकिन नेता, सीटों का बंटवारा और न्यूनतम साझा कार्यक्रम जैसे मुद्दे अभी सुलझाये जाने बाकी हैं।
बैठक में एक स्वर से कहा गया कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को जीत की हैट्रिक बनाने से रोकना जरूरी है। इसके अलावा सभी दल ज्यादा से ज्यादा सीट भी जीतना चाहते हैं, ताकि आगे सरकार बनने पर उनका प्रभाव सबसे ज्यादा रहे। लेकिन ‘एक सीट-एक उम्मीदवार’ का सबसे बड़ा मुद्दा इस बैठक के एजेंडे से पूरी तरह गायब रहा। बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने साफ किया कि उनकी पार्टी न गठबंधन का नेता पद चाहती है और न उसे पीएम पद की महत्वाकांक्षा है, लेकिन कांग्रेस के भीतर उनका यह ‘बलिदानी बयान’ कितना स्वीकार्य होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है। बैठक में शामिल नेताओं ने माना कि विपक्षी एकता के रास्ते में सबसे ज्यादा परेशानी पश्चिम बंगाल, दिल्ली, पंजाब, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में है। इन राज्यों में लोकसभा की करीब 220 सीटें हैं, यानी देश की कुल सीटों में सबसे बड़ी शेयरिंग इन पांच राज्यों की है। यदि इन सभी सीटों पर हिस्सेदारी का मुद्दा सुलझा लिया गया, तो फिर आगे का रास्ता सुगम हो सकता है। लेकिन बेंगलुरु में इस पर चर्चा नहीं होना साबित करता है कि विपक्षी दलों को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है। बैठक में सभी दलों ने मिल कर चुनाव लड़ने के लिए एक ऐसा न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने की बात की, जिस पर सभी दल सहमत हों। हालांकि इसमें भी सवाल उठ रहा है कि यह न्यूनतम साझा कार्यक्रम कैसे तय होगा, क्योंकि इसे तय करने के लिए कई दलों को उन नीतियों से समझौता करना पड़ सकता है, जिनके आधार पर वे राज्य की राजनीति में एक-दूसरे का विरोध करते हैं। इसका सबसे सशक्त उदाहरण पचिम बंगाल में कांग्रेस, वामपंथी दलों और तृणमूल कांग्रेस का रिश्ता है। बैठक में इस मुद्दे को भी टाल दिया गया।
विपक्षी दलों ने अगला आम चुनाव ‘इंडिया’ बनाम ‘एनडीए’ होने की बात तो कही, लेकिन अपने नेता के नाम पर एकमत नहीं हो सके। सिर्फ पीएम का ही नहीं, गठबंधन के नेता का नाम भी बेंगलुरु में तय नहीं हो पाया, जिसका सीधा मतलब यही निकाला जा सकता है कि विपक्षी दलों का एक ही उद्देश्य है और वह है किसी भी तरह भाजपा को सत्ता में आने से रोकना। जानकारों की मानें, तो गठबंधन की यह राजनीति भारत को 1977-1999 के उस दौर में ले जा सकती है, जब राजनीतिक अनिश्चितताओं के भंवर में फंस कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की नाव डगमगाने लगी थी। बैठक के बाद एक बड़ा सवाल उठने लगा है: प्रेस कांफ्रेंस के पहले लालूप्रसाद, तेजस्वी और नीतीश कुमार क्यों चले गये!