विशेष
-विधानसभा चुनाव से पहले खूब हो रहा जातिगत महासभाओं का आयोजन
-कांग्रेस के लिए चुनौतीपूर्ण है इस संवेदनशील समीकरण को पक्ष में मोड़ना
राजस्थान में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। इलाकों, सीटों और जातिगत समीकरणों के लिहाज से राज्य के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नेताओं का दबदबा रहा है। कुछ इलाकों में भाजपा मजबूत है, तो कुछ जगहों पर कांग्रेस दमखम दिखाती नजर आयी है। ऐसे में जब गहलोत और पायलट के बीच सियासी खींचतान बरकरार है, आगामी विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होनेवाला है। इसका एक प्रमुख कारण राज्य का जातीय समीकरण है। वैसे तो राजस्थान की सियासत में जातिगत समीकरण लगभग हर चुनाव में हावी रहे हैं, लेकिन इस बार इसका जोर कुछ ज्यादा दिखाई दे रहा है। राज्य में जाट, राजपूत, गुर्जर और मीणा समाज का दबदबा रहा है। नौ फीसदी आबादी के साथ जाट यहां सबसे बड़ा जातीय समूह बनाते हैं। शेखावाटी और मारवाड़ के 31 निर्वाचन क्षेत्रों में इनका दबदबा है। राज्य की दो सौ सदस्यीय विधानसभा में 37 सीटें जाटों के दबदबे वाली हैं, जबकि 17 सीटों पर राजपूतों का वर्चस्व है। 35 से 40 सीटों पर गुर्जर समाज का दबदबा है। इस साल भी चुनाव में ये जातिगत फैक्टर बेहद महत्वपूर्ण होंगे। इसके अलावा सियासी क्षत्रपों के जनाधार भी बेहद मायने रखते हैं। सवाल दोनों पार्टियों के लिए बराबर है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने राजस्थान दौरे के दौरान जिस तरह से कन्हैयालाल हत्याकांड में कांग्रेस को घेरा है, उससे दलितों का बड़ा वर्ग अब भाजपा के प्रति झुकता दिख रहा है, हालांकि कांग्रेस की तरफ से इसके डैमेज कंट्रोल की कोशिश की जा रही है, लेकिन वह असरदार होती नहीं दिख रही है। इस तरह राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों में जातीय समीकरण को साधना दोनों दलों के लिए बड़ी चुनौती होगी। कांग्रेस या भाजपा या कोई और, जिसकी सोशल इंजीनियरिंग में दम होगा, जीत उसके हाथ लगेगी। राजस्थान के इस संवेदनशील जातीय समीकरण का राजनीतिक विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
राजस्थान में इन दिनों जातीय समूहों की लगातार हो रही महासभाओं ने राज्य की राजनीति को गरमा दिया है। पिछले चार महीनों में राजधानी जयपुर में जाटों, राजपूतों, ब्राह्मणों, गुर्जरों, कुम्हारों, कुमावतों, अहीरों और मालियों की बड़ी सभाएं हुई हैं। आनेवाले दिनों में और भी महासभाएं होनेवाली हैं। प्रत्येक भव्य रैली में चुनावी टिकट और जाति आधारित आरक्षण की मांग की जा रही है और इसका मकसद जाति को ‘सम्मान’ दिलाना है। दो सप्ताह पहले एक महासभा ने एक नया मोड़ ला दिया, जिसमें जातिविहीन होकर लोग शामिल हुए। यह युवा बेरोजगार महासम्मेलन या बेरोजगारों की भव्य सभा थी। राजस्थान का यह माहौल बिहार में पिछली शताब्दी के अंतिम दशक के दौर की याद दिलाता है, जब पटना में जातीय सम्मेलन और रैलियों का आयोजन होता था। उन रैलियों के दम पर जाति के आधार पर विधानसभा चुनाव के लिए टिकट की सौदेबाजी होती थी और राजनीतिक दलों को जातीय नेताओं के सामने सरेंडर करना पड़ता था।
आज लगभग यही स्थिति राजस्थान की है। यहां की चुनाव पूर्व राजनीतिक परंपरा में विभिन्न मांगों को लेकर राजनीतिक दलों पर दबाव डालने के लिए हजारों लोग जमा होकर बड़ी बैठकें कर रहे हैं। ओबीसी की उप-श्रेणियां बनाने की दिशा में नरेंद्र मोदी सरकार के जोर और विधानसभा चुनाव से पहले समुदाय पर भाजपा के फोकस के साथ नये गुट महासभाओं के जरिये ताकत दिखा रहे हैं। इसे ब्लैकमेल की राजनीति कहा जा सकता है। कोई भी इसे सीधे तौर पर तो नहीं कहता है, लेकिन पार्टियों के बीच समुदाय के वोट खोने का डर बना रहता है। विभिन्न जातीय समूहों के साथ नजर आने के लिए नेता इन बैठकों में भाग लेने के लिए कतार में रहते हैं।
क्या है राजस्थान का जातीय समीकरण
राजस्थान में एक सौ से अधिक विधानसभा सीटों पर ओबीसी जाति समूहों का प्रभाव है। लेकिन यह पहली बार है कि माली, कुम्हार और कुमावत जैसी छोटी जातियां अपनी विशिष्ट मांगों की सूची के साथ महासभा का भव्य आयोजन कर रही हैं। जाति जनगणना, ओबीसी आरक्षण 21 फीसदी से बढ़ा कर 27 फीसदी और आबादी के अनुपात में राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की उनकी मांगें हैं। ये सभाएं गुर्जर, जाट, ब्राह्मण और राजपूत जैसे प्रमुख जातीय समूहों द्वारा आयोजित बड़ी रैलियों की तरह ही शक्ति प्रदर्शन है। इसके पीछे कारण यह है कि पिछले चार-पांच वर्षों में छोटी जातियों में अपने अस्तित्व को लेकर जागरूकता आयी है। ओबीसी जातियों को बांट कर कांग्रेस ने वर्ग और जातीय पहचान को पुनर्जीवित किया है। इसने न केवल उपजातियों को विभाजित किया है, बल्कि सूक्ष्म स्तर पर वोटों का ध्रुवीकरण भी किया है। यही कारण है कि मार्च के बाद से 10 से अधिक जातीय समूहों ने सांसदों/विधायकों और कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेताओं की उपस्थिति में महासभा आयोजित की है। अज राजस्थान का हर नेता खुद को जाति से पहचाने जाने पर जोर दे रहा है।
वैसे सवर्ण वर्ग परंपरागत रूप से भाजपा के प्रति निष्ठावान रहता है, जबकि दलित और मुस्लिम समुदाय कांग्रेस के पक्ष में एकजुट रहे हैं। लेकिन जाट और ओबीसी वर्ग के वोट राज्य में एक पार्टी से दूसरी में समय-समय पर शिफ्ट होते रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस की नजर इन फ्लोटिंग वोटरों पर ही सबसे ज्यादा टिकी है। यह 2018 के विधानसभा चुनाव परिणाम से स्पष्ट है कि जाट उम्मीदवारों ने 37 सीटें जीतीं, राजपूतों ने 17 सीटें और ओबीसी ने 35 सीटें जीतीं। 2018 के चुनाव में जाट, राजपूत, गुर्जर, मीणा, ब्राह्मण और मुस्लिमों के 106 विधायक थे, जबकि 59 सीटें एससी/एसटी के लिए आरक्षित थीं। कांग्रेस ने 15 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जिनमें से सात जीते।
भाजपा के पक्ष में दिख रहा है समीकरण
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह राजस्थान में थे। वहां उन्होंने कन्हैयालाल हत्याकांड का मुद्दा उठा कर ओबीसी समुदाय को साधने की कोशिश का स्पष्ट संकेत दिया। वैसे ओबीसी वोट को लुभाने की भाजपा की कोशिश पिछले साल जोर पकड़ने लगी थी। सितंबर 2022 में पार्टी ने सीएम गहलोत के गृहनगर जोधपुर में अपनी ओबीसी मोर्चा की बैठक आयोजित की, जहां केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अध्यक्षीय भाषण दिया। पिछले आठ महीनों में पीएम मोदी पांच बार राजस्थान का दौरा कर चुके हैं।
राजस्थान की सियासी पृष्ठभूमि
1980 के दशक के उत्तरार्ध में राजस्थान में ट्रेड यूनियनों, किसान यूनियनों और महिला-नेतृत्व वाले संगठनों का चुनावों पर प्रभाव था। लेकिन एक बार जब जातीय समूहों ने अपने हितों के लिए काम करना शुरू कर दिया, तो उनकी आवाजें दबने लगीं। इसलिए कहा जाता है कि राजस्थान में जो जातिगत समीकरणों को साध लेता है, सत्ता उसी के हाथ में होती है। अशोक गहलोत ने बार-बार यह कर के दिखाया है। टिकट वितरण के दौरान यह देखा जाता है कि उम्मीदवार जिस जातीय समूह से संबंधित है, उसमें उसका कितना प्रभाव है।
महासभाओं की राजनीति
जयपुर विधानसभा के पास स्थित विद्याधर स्टेडियम इन महासभाओं का केंद्र बन चुका है। लगभग हर महीने सैकड़ों वैन, ट्रक और कारें सीकर, जालौर, जोधपुर, पाली, बीकानेर समेत राजस्थान के अन्य हिस्सों से हजारों लोगों को लेकर यहां आती हैं। भीड़ जुटाने की इस शैली को ‘चौटाला मॉडल’ कहा जाता है। ओम प्रकाश चौटाला इसी तरह से हरियाणा में खाप पंचायतों के जरिये भीड़ जुटाते थे। महासभा के आयोजकों ने भारी भीड़ पर फूल बरसाने के लिए निजी हेलीकॉप्टर तक किराये पर लिये। गायक उत्साह और जातीय गौरव के नाम पर दर्शकों का मनोरंजन करते हैं और ड्रोन कैमरे कार्यक्रम को रिकॉर्ड करते हैं। इन महासभाओं या रैलियों में क्या कहा जाता है, उसका एक उदाहरण हाल में आयोजित ब्राह्मण महासभा है। इसमें ‘कहो गरज कर हम हिंदू और हिंदुस्तान हमारा है’ बजाया गया, जबकि अभिनेता आशुतोष राणा की कविता ‘संत भी मैं हूं, अंत भी मैं हूं, आदि और अनंत भी मैं हूं’ को रीमिक्स मोड में भी इस्तेमाल किया गया। जाट महाकुंभ में दर्शक ‘जिंदाबाद जवानी, जिंदाबाद किसानी’ जैसे गानों पर खूब थिरके। अधिकांश जातीय समूहों के अपने धार्मिक प्रतीक हैं, जो उन्हें एकजुट करते हैं। ब्राह्मण समाज भगवान परशुराम के नाम पर, जाट समाज वीर तेजाजी के नाम पर, कुम्हार समाज श्रीश्री यादे माता के नाम पर और गुर्जर समाज देवनारायण जी के नाम पर एकजुट होते हैं।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि राजस्थान का चुनाव इस बार पूरी तरह नहीं तो, कम से कम आंशिक तौर पर जातीय समूहों का मुकाबला बन सकता है। जाहिर है इसमें भाजपा मजबूत साबित होगी, क्योंकि उसके पास लगभग सभी जातीय समूहों के प्रभावशाली नेता हैं। दूसरी तरफ अंदरूनी कलह से जूझ रही कांग्रेस के लिए इस समीकरण को साधना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा है।