विशेष
-विधानसभा चुनाव में बड़े आदिवासी चेहरों को उतारेगी भाजपा
-अर्जुन, सुदर्शन, समीर, सुनील और गीता कोड़ा को मौका देगी पार्टी
-दूसरी पार्टियों के बागी नेताओं पर भी दांव लगाने की बनी है रणनीति
-इन कद्दावर नेताओं के सामने खुद को साबित करने का होगा चैलेंज
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
भारतीय जनता पार्टी झारखंड में तीन से चार महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पूर्व केंद्रीय मंत्रियों सहित राज्य में बड़े कद वाले आदिवासी नेताओं को मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है। भाजपा ने 2019 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी सीटों पर खास प्रदर्शन नहीं किया था। उसे आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों में से महज दो पर ही सफलता मिल सकी थी। इसके अलावा हाल के लोकसभा चुनाव में भी आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी पांच सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद से ही पार्टी आदिवासी मतदाताओं के बीच पैठ बढ़ाने की रणनीति पर लगातार काम कर रही है। पार्टी का मानना है कि बड़े कद वाले आदिवासी नेताओं को उम्मीदवार बनाये जाने से उनकी सीटों के साथ-साथ आसपास की सीटों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ये नेता किन सीटों से चुनाव लड़ेंगे, इसका फैसला इसी माह होने की उम्मीद है। राज्य में इस बार चुनावी लड़ाई को भाजपा कितनी गंभीरता से ले रही है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि रणनीति की कमान राष्ट्रीय स्तर के दो दिग्गज नेताओं शिवराज सिंह चौहान और हिमंता बिस्वा सरमा को सौंपी गयी है। ये दोनों नेता लगातार झारखंड का दौरा कर स्थितियों का आकलन कर रहे हैं। इन दोनों नेताओं ने पिछले एक महीने में झारखंड आकर उन मुद्दों को समझा है, जिनका चुनाव पर असर हो सकता है। पार्टी का मानना है कि लोकसभा चुनाव हार चुके आदिवासी नेताओं को खुद को साबित करने का एक और मौका दिये जाने से पार्टी में अच्छा संदेश जायेगा। क्या है भाजपा की पूरी रणनीति और कैसे इस पर काम कर रही है पार्टी, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड में तीन-चार महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मी कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है। हेमंत सोरेन के मुख्यमंत्री बनने से इंडिया गठबंधन का जोश हाइ है, तो झारखंड की सत्ता में वापसी के लिए भाजपा भी पूरा दम लगा रही है। पर भाजपा जानती है कि रूठे आदिवासियों को मनाये बिना यह सियासी अरमान पूरा नहीं हो सकता है। इसलिए लोकसभा चुनाव में दूर रहे आदिवासी वोट बैंक को आने वाले विधानसभा चुनाव से पहले साधने के लिए भाजपा ने केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा जैसे दिग्गज नेताओं को मिशन झारखंड पर लगा दिया है।
इसके साथ ही भाजपा ने विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीटों पर अपने प्रमुख आदिवासी नेताओं को मैदान में उतारने का फैसला कर लिया है। इनमें वो चेहरे भी शामिल होंगे, जिन्हें हाल ही के लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है। लोहरदगा से चुनाव हारे समीर उरांव को सिसई और पूर्व सांसद सुदर्शन भगत को लोहरदगा या बिशुनपुर से चुनाव लड़ाने की योजना है। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को उनकी पारंपरिक सीट खरसावां या फिर कोल्हान की किसी विधानसभा सीट पर प्रत्याशी बनाया जायेगा। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी राजधनवार की सामान्य सीट से ही चुनाव लड़ेंगे। चाइबासा से लोकसभा चुनाव हार चुकीं गीता कोड़ा को भी भाजपा विधानसभा चुनाव में उनकी परंपरागत जीत जगन्नाथपुर से उम्मीदवार बनाने की योजना बना चुकी है। इसी तरह भारतीय पुलिस सेवा से त्यागपत्र देकर राजनीति में सक्रिय हुए डॉ अरुण उरांव को गुमला जिले की किसी सीट से प्रत्याशी बनाने की संभावना है।
आदिवासी सुरक्षित सीट पर बड़े नाम से होगा असर
मौजूदा विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के पास मात्र दो आदिवासी सुरक्षित सीट से विधायक हैं। इनमें खूंटी से नीलकंठ सिंह मुंडा और तोरपा से कोचे मुंडा शामिल हैं। विधानसभा में जीत और राज्य में सरकार बनाने के लिए पार्टी ज्यादा से ज्यादा आदिवासी सीटों पर जीत की योजना बना रही है। संताल परगना में सीता सोरेन को अपने पाले में लाने से दुमका और जामा जैसी सुरक्षित सीटों पर भाजपा को बढ़त की उम्मीद है। दुमका से पूर्व मंत्री लुइस मरांडी और पूर्व सांसद सुनील सोरेन दोनों की दावेदारी है। इनके अलावा ताला मरांडी को भी उतारा जायेगा। पार्टी की राष्ट्रीय सचिव डॉ आशा लकड़ा को मांडर सीट से टिकट दिये जाने की पूरी संभावना है।
दूसरी पार्टियों के बागियों पर भी नजर
भाजपा ने विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए उन तमाम कदमों के लिए खुद को तैयार कर लिया है, जिनके जरिये वह दूसरे राज्यों में सफल हो चुकी है। इनमें दूसरी पार्टियों के बागियों को अपने पाले में करने जैसा कदम भी शामिल है। भाजपा की नजर झामुमो के दो बागियों, लोबिन हेंब्रम और चमरा लिंडा पर है। इनके अलावा समीर मोहंती की घर वापसी की भी कोशिश की जा रही है। हाल ही में हेमंत कैबिनेट से हटाये गये कांग्रेस के बादल पत्रलेख और खिजरी विधायक राजेश कच्छप को भी टटोला जा रहा है।
इन बड़े चेहरों के सामने होगा बड़ा चैलेंज
लोकसभा चुनाव हार चुके भाजपा के इन कद्दावर नेताओं के सामने विधानसभा चुनाव में खुद को साबित करने का बड़ा चैलेंज होगा। पार्टी का मानना है कि इन नेताओं को एक और मौका दिया जाना चाहिए, ताकि पार्टी के भीतर सकारात्मक संदेश जाये कि यहां नेता केवल चुनाव लड़ने के लिए नहीं होते हैं। पार्टी को उनकी प्रतिष्ठा का पूरा ध्यान है। यदि इस बार ये नेता खुद को साबित नहीं करते हैं, तो फिर इनके बारे में अलग से सोचा जायेगा।
झारखंड में आदिवासियों का दम
झारखंड में सबसे ज्यादा 26 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। झारखंड विधानसभा की 81 में से 28 सीट आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में सत्ता हासिल करने के लिए ये सीटें बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में झामुमो ने सबसे ज्यादा 19 और कांग्रेस ने छह आदिवासी सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा आदिवासियों के प्रभाव वाली सिर्फ दो सीट ही जीत सकी और उसे सत्ता से भी बेदखल होना पड़ा।
2019 से 2024 के बीच क्या बदला
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 50.96 फीसदी वोट मिले थे, पर 2024 में भाजपा के वोट घट कर 44.60 फीसदी रह गये। 2019 में कांगेस को 15.63 फीसदी वोट मिले थे, पर इस बार कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ कर 19.19 फीसदी हो गया, जबकि झामुमो को 2019 में 11.51 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार बढ़ कर 14.60 प्रतिशत हो गया। 2019 की तुलना में 2024 में भाजपा के वोट छह फीसदी तो घटे ही, पार्टी के लिए चिंता की बात यह भी है कि आदिवासियों के लिए आरक्षित पांच में से चार सीट पर उसकी हार का अंतर 1.2 लाख से भी ज्यादा वोट का रहा। भाजपा की अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव खुद लोहरदगा से 1.39 लाख वोट के बड़े अंतर से हारे और खूंटी से अर्जुन मुंडा जैसे अनुभवी आदिवासी नेता की हार का अंतर 1.49 लाख वोट का रहा। चुनाव से पहले कांग्रेस से पाला बदल कर भाजपा में जानेवाली गीता कोड़ा करीब 1.68 लाख वोट से मात खा गयीं। सिर्फ दुमका में भाजपा मुकाबले में दिखी। वहां झामुमो उम्मीदवार नलिन सोरेन ने झामुमो प्रत्याशी रही सीता सोरेन को 22,527 वोट से हराया। भाजपा के इस निराशाजनक प्रदर्शन पर इसलिए भी सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि चुनाव से पहले मोदी सरकार ने आदिवासियों का दिल जीतने के लिए पूरा जोर लगा दिया था।