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    Home»विशेष»तेजस्वी की चुनाव बहिष्कार की धमकी बेमतलब
    विशेष

    तेजस्वी की चुनाव बहिष्कार की धमकी बेमतलब

    shivam kumarBy shivam kumarJuly 26, 2025Updated:July 27, 2025No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनाव बहिष्कार का कोई नैतिक आधार नहीं
    चुनाव है सभी अपना-अपना दाव-पेंच चलाते र26हते हैं
    चुनाव आयोग तो अब सबसे पहला निशाना होता है

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    बिहार में चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता विशेष गहन पुनरीक्षण, यानी एसआइआर के खिलाफ विपक्षी महागठबंधन के विरोध के बीच अब आसन्न चुनाव के बहिष्कार की बात भी उठायी गयी है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने यह शिगूफा छोड़ा है। उन्होंने कहा है कि वह विधानसभा चुनाव का बहिष्कार करने के बारे में विपक्ष की दूसरी पार्टियों से बातचीत करेंगे और जनता की राय भी लेंगे। तेजस्वी यादव ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग पर हमला करते हुए यह भी कहा कि जब बेइमानी से सब कुछ तय कर रखा है कि किसको कितनी सीटें देनी हैं, तो देखा जायेगा कि क्या किया जा सकता है। उनके कहने का आशय यह था कि अगर विपक्षी पार्टियों में सहमति बनती है और जनता का रुख सकारात्मक दिखता है, तो विपक्ष चुनाव का बहिष्कार कर सकता है। तेजस्वी की बात का मतलब है कि ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।’ इससे जाहिर होता है कि बिहार में विपक्ष को चुनाव का बहिष्कार नहीं करना है, बल्कि चुनाव के बहिष्कार की बात करके पूरी चुनाव प्रक्रिया और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगाना है। तेजस्वी के बयान के बाद अब बिहार में इस पर चर्चा भी होने लगी है और जाहिर है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में इस तरह का व्यवधान न केवल अनुचित, बल्कि बेवजह भी है। महागठबंधन के नेताओं ने जिस तरह चुनाव आयोग को निशाने पर ले रखा है, उससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होती है और संविधान की सर्वोच्चता की अवधारणा को ठेस पहुंचती है। क्या है चुनाव बहिष्कार के इस शिगूफे की पूरी पृष्ठभूमि और क्या हैं इसके विभिन्न पहलू, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    बिहार में वोटर लिस्ट सुधारने के लिए हो रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआइआर) से बवाल खड़ा हो गया है। टेंशन इसलिए भी ज्यादा क्योंकि चुनाव आयोग ने बता दिया है कि 56 लाख वोटर मिल ही नहीं रहे, यानी इनका नाम कटना तय है। चुनाव आयोग द्वारा जारी अभियान का महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव और राहुल गांधी विरोध कर रहे हैं। वे आरोप लगा रहे हैं कि वोटों की चोरी की जा रही है। तेजस्वी ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए यहां तक कह दिया कि अगर ऐसी ही स्थिति रही, तो चुनाव में हिस्सा लेने का क्या फायदा। उन्होंने चुनाव का बहिष्कार करने तक की बात कह दी। स्वाभाविक तौर पर तेजस्वी के बयान से सियासी सनसनी फैली है और ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि अगर महागठबंधन में शामिल सभी दल चुनाव का बहिष्कार कर दें, तो क्या चुनाव नहीं होगा। इस पर कानून क्या कहता है और क्या पहले भारत के किसी राज्य में ऐसा हुआ है।

    विपक्षी नेताओं के स्टैंड क्या हैं:
    सबसे पहले बात विपक्षी नेताओं के स्टैंड की। वास्तविकता यह है कि विपक्ष ने चुनाव आयोग पर जिस तरह के आरोप लगाये हैं, उसके बाद कोई कारण नहीं दिखता है कि विपक्ष चुनाव का बहिष्कार न करे। दिल्ली में राहुल गांधी से लेकर पटना में तेजस्वी यादव और मुंबई में उद्धव ठाकरे से लेकर लखनऊ में अखिलेश यादव तक कोई भी विपक्षी नेता नहीं बचा है, जिसने चुनाव आयोग पर सरकार के साथ मिल कर काम करने और विपक्ष को चुनाव हराने के बंदोबस्त करने के आरोप नहीं लगाये हैं। राहुल गांधी ने हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में जनादेश चुरा लेने का आरोप लगाया है।

    भारत में चुनाव बहिष्कार की अवधारणा नहीं:
    भारत में कभी भी विपक्षी पार्टियों ने चुनाव के बहिष्कार के बारे में नहीं सोचा है। वे हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हैं, इवीएम सेट होने की बात करते हैं, मैच फिक्सिंग का दावा करते हैं और फिर चुनाव में शामिल होते हैं। अगर जीत गये, तो कभी भी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठाते हैं और हार गये, तो आरोपों को दोहराने लगते हैं। इससे चुनाव आयोग की साख जितनी खराब हुई है उतनी ही विपक्ष की साख भी खराब हुई है। अब विपक्ष के आरोपों पर लोग यकीन नहीं करते हैं। इसलिए भारत में विपक्षी पार्टियां चुनाव का बहिष्कार नहीं करती हैं, क्योंकि उनको अपने आरोपों पर खुद ही भरोसा नहीं है। विपक्षी पार्टियों के बीच इतने बड़े मसले पर सहमति भी नहीं है। वैसे भी भारत के संविधान में चुनाव बहिष्कार की अवधारणा मौजूद ही नहीं है।

    क्या होगा अगर विपक्ष चुनाव लड़ने से इनकार कर दे
    चुनाव आयोग का काम समय पर चुनाव कराना है। भले ही उसमें कोई दल हिस्सा ले या नहीं। अगर केवल सत्तारूढ़ दल चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करता है या कोई निर्दलीय प्रत्याशी भी होता है, तो भी चुनाव कराना आयोग की जिम्मेदारी है। संविधान के तहत चुनाव रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है, जब तक कि कोई असाधारण परिस्थिति, जैसे हिंसा या प्राकृतिक आपदा न हो। मतलब साफ है कि अगर पूरा महागठबंधन भी चुनावों का बहिष्कार कर दे, तो भी चुनाव होगा। इस पर कहीं कोई रोक नहीं लगायी जा सकती। अगर केवल सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी ही होते हैं और कोई दूसरा प्रत्याशी नहीं होगा, तो वे सभी निर्विरोध जीत जायेंगे।

    क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे चुनाव रोक सकता है
    विपक्ष यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट जा सकता है कि बिना मतदान के चुनाव कराना असंवैधानकि है। बता दें कि जया बच्चन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पारदर्शिता बनाना और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना जरूरी है। लेकिन यहां भी चुनाव पर रोक वाली कोई बात नहीं हो सकती। 1989 के मिजोरम विधानसभा चुनाव में ऐसी ही स्थिति आयी थी और सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया कि इसकी वजह से चुनाव पर रोक नहीं लगायी जा सकती।

    क्या पहले ऐसा हुआ है
    भारत में ऐसी स्थिति का सीधा उदाहरण नहीं मिलता, जहां सभी मुख्य विपक्षी पार्टियों ने एक साथ चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया हो। लेकिन कुछ मामले ऐसे हैं, जिनसे इसके बारे में सीधा समझ आ जाता है। 1989 के मिजोरम विधानसभा चुनाव में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ विरोध में चुनाव का बहिष्कार किया था। नतीजा कांग्रेस ने सभी 40 सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन विपक्षी दलों ने बाद में इसे अदालत में चुनौती दी। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, जहां कोर्ट ने कहा कि बहिष्कार से चुनाव रद्द नहीं होता, बशर्ते प्रक्रिया वैध हो। बिहार पर यह बिल्कुल फिट बैठता है। इसी तरह 1999 के जम्मू-कश्मीर चुनाव का कुछ विपक्षी दलों खासकर अलगाववादी समूहों ने चुनाव का बहिष्कार किया। इसके बावजूद चुनाव हुए और नेशनल कांफ्रेंस ने सरकार बनायी। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में नहीं गया, लेकिन यह दिखाता है कि बहिष्कार से चुनाव रद्द नहीं होता, क्योंकि सरकार कायम रही। फिर 2014 के हरियाणा पंचायत चुनाव के दौरान कुछ क्षेत्रों में विपक्षी दलों ने शिक्षा और आय मानदंडों के विरोध में चुनाव का बहिष्कार किया। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने चुनाव करवाये और इसे वैध माना गया। हालांकि विरोध की वजह से वोटिंग प्रतिशत में भारी गिरावट दर्ज की गयी थी, क्योंकि विपक्षी दलों को वोट करने वाले वोटर बाहर नहीं निकले।

    सुप्रीम कोर्ट का रुख
    सुप्रीम कोर्ट ने पीपुल यूनयिन फॉर सिविल लिबर्टी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले की 2013 में सुनवाई के दौरान कहा था कि चुनाव में भागीदारी और प्रतिस्पर्द्धा लोकतंत्र का आधार है। हालांकि कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग को यह तय करने का अधिकार है कि चुनाव कैसे आयोजित हों। किसी के बहिष्कार करने से चुनाव की प्रक्रिया रद्द नहीं होती, जब तक कि यह संवैधानिक मानकों का उल्लंघन न हुआ हो। ऐसे में यह साफ है कि बिहार में चुनाव बहिष्कार की बात करना केवल राजनीतिक बयानबाजी का ही हिस्सा है, क्योंकि इसका न तो कोई नैतिक आधार है और न ही संवैधानिक। इसके अलावा तेजस्वी का यह बयान यह भी दिखाता है कि महागठबंधन के नेता चुनाव आयोग के कामकाज में अनावश्यक दखलंदाजी कर उस पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

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