हेमंत की राजनीति में उनका फिट होना मुश्किल

कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई के सड़क पर आने से महज तीन दिन पहले इसके प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार ने कहा था कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 40 सीटों पर लड़ेगी। उन्होंने यहां तक कह दिया था कि झारखंड में झाविमो और राजद का कोई अस्तित्व नहीं है। वामपंथी दलों को वह काफी पहले खारिज कर चुके थे। उनकी इस अपमानजनक टिप्पणी को झाविमो सुप्रीमो और राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने चुपचाप पी लिया था। बाबूलाल मरांडी ऐसे राजनीतिज्ञों में शुमार हैं, जिनकी कोई भी प्रतिक्रिया हल्की नहीं होती और उसे गंभीरता से लिया जाता है। इसलिए जब डॉ अजय ने यह टिप्पणी की, विपक्षी खेमे के साथ-साथ कांग्रेस के भीतर भी इसका विरोध शुरू हो गया। यह महज संयोग है कि तीन दिन बाद ही उनके खिलाफ उनकी पार्टी में खुली बगावत हो गयी और लड़ाई सड़कों पर पहुंच गयी।
इस माहौल में यह सवाल स्वाभाविक ही है कि डॉ अजय की राजनीति कांग्रेस को किधर लेकर जा रही है। यह बात सभी जानते हैं कि विधानसभा चुनाव में विपक्षी महागठबंधन की कमान झामुमो के हाथों में रहेगी और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में भाजपा से मुकाबला होगा। लेकिन इसमें बाबूलाल मरांडी की पार्टी को पूरी तरह खारिज करना राजनीतिक अपरिपक्वता ही होगी। डॉ अजय भले ही हेमंत का नेतृत्व स्वीकार कर चुके हैं, कांग्रेस के दूसरे नेता और महागठबंधन के दूसरे घटक दलों में इसको लेकर अब भी सहजता नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के साथ बाबूलाल मरांडी, बंधु तिर्की और अन्य विपक्षी नेता हेमंत सोरेन और झामुमो की राजनीति में फिट नहीं बैठते हैं।
घटक दलों को मिलेगा फायदा!
राजनीतिक हलकों में यह कयास भी लगाये जा रहे हैं कि कांग्रेस की कलह का महागठबंधन के दूसरे घटक दल लाभ भी उठा सकते हैं। इसमें सबसे पहला नाम झाविमो का ही आता है। दूसरे नंबर पर राजद का नाम आता है। डॉ अजय ने झाविमो और राजद के बारे में ही कहा था कि झारखंड में इनका अस्तित्व नहीं है। कांग्रेस की लड़ाई का प्रत्यक्ष लाभ वामदलों को भले ही न हो, लेकिन वे भी इसी फिराक में हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें खारिज कर देनेवाले डॉ अजय के खिलाफ बगावत होती रहे। लेकिन झामुमो और हेमंत सोरेन निश्चित रूप से इस स्थिति से खुश नहीं होंगे। कांग्रेस में केवल डॉ अजय ही हैं, जिन्होंने हेमंत सोरेन को नेता मान लिया है। हालांकि झामुमो के एक धड़े का मानना है कि यदि कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन होता है, तो नये अध्यक्ष पर दबाव बनाना अपेक्षाकृत आसान हो जायेगा। उस स्थिति में गठबंधन के घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा आसान हो जायेगा।
कांग्रेस में बिखराव की संभावना
कांग्रेस में मची कलह के बाद इस बात के पक्के आसार हैं कि यदि आलाकमान ने इसे जल्द नहीं सुलझाया, तो पार्टी में बिखराव होगा। अभी केवल सुबोधकांत सहाय का खेमा खुल कर सामने आया है। फुरकान अंसारी और उनके विधायक पुत्र डॉ इरफान अंसारी पहले ही डॉ अजय के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। कांग्रेस के अन्य दिग्गज, मसलन राजेंद्र प्रसाद सिंह, ददई दूबे, आलमगीर आलम, सुखदेव भगत, डॉ रामेश्वर उरांव और डॉ अरुण उरांव भी डॉ अजय की कार्यशैली से बहुत खुश नहीं हैं। ये ऐसे नेता हैं, जिन्हें हेमंत सोरेन का नेतृत्व कभी स्वीकार नहीं होगा, क्योंकि इनमें से हरेक का चेहरा पूरे झारखंड के लिए है, जबकि झामुमो का प्रभाव क्षेत्र अभी तक संथाल और कोल्हान ही है। छोटानागपुर में उसे अपनी पहचान कायम करनी है।
इसलिए यदि कांग्रेस की कलह का लाभ सबसे अधिक झाविमो को ही मिलना स्वाभाविक है, क्योंकि पुराने नेताओं के लिए भाजपा का दरवाजा बंद हो चुका है। भाजपा में 65 पार वाले नेताओं के लिए अवसर नहीं है। झामुमो में ये लोग जा नहीं सकते, क्योंकि वहां अब गुरुजी का युग खत्म हो चुका है। ऐसे में उनके सामने बाबूलाल मरांडी ही बचते हैं, जिनके नेतृत्व में इन्हें राजनीति करने में कोई परेशानी नहीं होगी।
फिर अपरिहार्य बन रहे हैं बाबूलाल
लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद बाबूलाल मरांडी को चुका हुआ मान लिया गया। ऐसा लगभग हर चुनाव से पहले होता रहा। झाविमो की यह विडंबना ही है कि चुनावी सफलता उससे दूर ही रहती है। आज भी बाबूलाल मरांडी प्रदेश के सबसे सुलझे हुए नेताओं में शुमार हैं। उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता है। उनके नेतृत्व से या उनकी कार्यशैली से किसी को परेशानी भी नहीं है। इसलिए उनके विरोधी भी उनका सम्मान करते हैं। ताजा राजनीतिक हालात से साफ है कि बाबूलाल मरांडी एक बार फिर खड़े हो रहे हैं। यदि कांग्रेस का कुनबा बिखरता है, तो इसके कई अनमोल मोती झाविमो के पाले में आकर गिरेंगे, इसमें कोई शक नहीं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस आलाकमान झारखंड की राजनीति में क्या गुल खिलाता है। उसके सामने करो या मरो की स्थिति पहले ही उत्पन्न हो चुकी है। यदि वह कोई कड़ा फैसला नहीं करता है, तो इसका खामियाजा उसे भुगतना होगा, जबकि लाभ उठाने में महागठबंधन के दूसरे दल पीछे नहीं रहेंगे।

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