पीएम रहते हुए पहले कभी अयोध्या नहीं गये नरेंद्र मोदी पांच अगस्त को राम मंदिर निर्माण के लिए किये जा रहे भव्य भूमि पूजन कार्यक्रम में शिरकत करेंगे और निर्माण के लिए पहला पत्थर रखेंगे। इसके साथ ही एक नयी किस्म की राजनीति के युग की भी शुरुआत होने के आसार हैं। आजाद भारत में सबसे लंबे और पेंचीदे कानूनी मुकदमों में से एक रहे राम जन्मभूमि मामले में यह एक निर्विवाद युग की शुरुआत होगी। इतना ही नहीं, 80 के दशक के अंतिम वर्षों से राजनीति के केंद्र में रहा यह मुद्दा भाजपा की प्राण वायु भी है। धर्मनिरपेक्ष भारत में हिंदुत्व की लहर का मुख्य कारण बनने के साथ ही अयोध्या राजनीतिक पार्टी के तौर पर भाजपा के विकास की वजह भी रहा। 1984 में महज दो सांसदों से शुरू हुई भाजपा की यात्रा अयोध्या के सहारे प्रचंड बहुमत तक आ पहुंची है। इसलिए कहा जा सकता है कि अयोध्या ने भाजपा के सियासी सफर को न केवल ऊंचाई दी, बल्कि बहुसंख्यक भारतीय समाज में इसकी गहरी पैठ का कारण भी बना। अब जबकि राम मंदिर के आंदोलन का लक्ष्य पूरा हो गया है और मंदिर के शिलान्यास में चार दिन बाकी रह गये हैं, यह जानना दिलचस्प होगा कि अयोध्या के सहारे भाजपा ने कैसे इतनी दूरी तय की। इस पूरे प्रकरण पर प्रकाश डालती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में 1980 के दशक को अलग तरीके से याद किया जाता है। आपातकाल के अंधेरे से निकलने के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का शासन देश देख चुका था और जनता पार्टी के असफल राजनीतिक प्रयोग ने भारत की राजनीति में तीसरे ध्रुव के उदय की संभावनाएं पैदा कर दी थीं। मोरारजी देसाई की सरकार के पतन का कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े नेताओं को बताया गया और देश में उप चुनाव हुए। इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ 1980 का दशक शुरू हुआ था। 1980 में ही जनसंघ और जनता पार्टी के एक धड़े ने साथ आकर भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी थी। तभी से हिंदुत्व के नजरिये को लेकर पार्टी के बीते 40 साल बड़े घुमावदार रहे। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले अध्यक्ष बने और स्थापना के बाद से ही भाजपा ने राम जन्मभूमि को मुद्दा बना लिया। पार्टी का यह फैसला संघ के उस आंदोलन पर आधारित था, जो 1949 के बाद से ही लगातार चल रहा था, हालांकि तब इसका राजनीतिकरण नहीं हुआ था। संघ ने ‘अयोध्या राम जन्मस्थान की आजादी’ को लेकर आंदोलन छेड़ रखा था। भाजपा ने इसे बहुमत आधारित राजनीति में हिंदुत्व की धारणा से जोड़ा। लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या ने भाजपा के राजनीतिक मंसूबों पर ब्रेक लगा दिया। इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर राजीव गांधी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटे। भाजपा को उस चुनाव में महज दो सीटें मिली थीं। राजनीतिक इतिहासकार यह भी मानते हैं कि उस चुनाव में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने का एक कारण यह भी था कि पार्टी ने अयोध्या को पूरी तरह से अंगीकार नहीं किया था और वह दक्षिणपंथी विचारधारा की बजाय बीच के रास्ते पर चलने लगी थी। पार्टी का हिंदुत्व नरमवादी था, जिसे लोगों ने खारिज कर दिया।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ और भाजपा के लिए जरूरी था कि वे नये सिरे से रणनीति बनायें। तब दोनों ने राम मंदिर आंदोलन में पूरी ताकत झोंकने की योजना बनायी। उस समय यूपी में भी कांग्रेस की ही सरकार थी, इसलिए आंदोलन ने जोर पकड़ा।
संघ और भाजपा ने अपने अनुषंगी संगठनों, मसलन विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की मदद से लोगों को यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली कि राम मंदिर नहीं बनने का कारण कांग्रेस है। जिस समय पूरे देश में राम मंदिर के लिए आंदोलन चल रहा था, प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आये राजीव गांधी की परेशानी बढ़ती जा रही थी। उनकी सरकार मुसीबतों में घिरने लगी। इस मुसीबत का कारण शाहबानो का मामला था। एक मुस्लिम महिला शाहबानो को अदालत ने गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। इस पर अमल रोकने के लिए राजीव गांधी सरकार ने एक नया कानून बना दिया, जिसकी वजह से उन पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगे और सरकार दबाव में आ गयी। कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण की शिकायत करने वाले हिंदुओं को खुश करने का एक तरीका ढूंढ़ा और राम मंदिर के मुद्दे को अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाया। एक फरवरी 1986 को फैजाबाद के न्यायाधीश केएम पांडेय ने हिंदुओं को पूजा करने के लिए बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का आदेश दिया। वहां 1949 से रामलला की मूर्ति रखी थी, लेकिन अंदर जाकर पूजा करने पर प्रतिबंध लगा था। अदालत के आदेश पर सरकार ने आनन-फानन में ताला खोल दिया। लेकिन उसका संदेश यह गया कि शाहबानो के मामले में हुए राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए ही कांग्रेस ने ऐसा किया है। इस तरह राजीव गांधी सरकार का यह कदम अयोध्या पर कांग्रेस की पकड़ को कमजोर कर गया और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी और इसके सहयोगी हिंदुत्व परिवार के दलों को इसने ताकत दे दी। लगभग उसी समय एक और मुद्दे ने राजीव गांधी सरकार को लिबरल हिंदुओं की नाराजगी झेलने पर मजबूर कर दिया। वह मुद्दा था, भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध लगाना। रुश्दी ने ‘सैटेनिक वर्सेज’ (शैतान की आयतें) नामक एक किताब लिखी। दुनिया भर के मुसलमानों ने
इसका विरोध किया। ईरान और कई अन्य इस्लामिक देशों ने रुश्दी की हत्या का फतवा भी जारी कर दिया। उस समय फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन के प्रमुख यासिर अराफात और ईरान के अयातुल्लाह खुमैनी के दबाव में आकर राजीव गांधी ने रुश्दी की किताब को प्रतिबंधित कर दिया। उनके इस फैसले का भारत के लिबरल हिंदुओं और नयी पीढ़ी के प्रगतिशील लोगों ने भारी विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि अयोध्या में ताला खुलवाने के कारण कट्टरपंथी मुस्लिमों से दूर हो चुकी कांग्रेस से लिबरल हिंदू भी अलग होने लगे। हिंदुओं में इन फैसलों से सरकार से अधिक मुसलमानों से नफरत की भावना पैदा हुई। तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के बारे में हिंदुओं में एक स्पष्टता आयी। बहुत से हिंदुओं ने पहली बार नागरिक की तरह नहीं, बल्कि हिंदू के तौर पर सोचना शुरू कर दिया। इसके बाद 1989 का आम चुनाव आया। कांग्रेस ने उसमें भी हिंदुओं को मनाने की भरपूर कोशिश की। राम मंदिर के लिए संघ-विहिप के आंदोलन को नकारने के लिए कांग्रेस सरकार ने हिंदू समाज को रामराज का सपना दिखाया। खुद राजीव गांधी फैजाबाद गये और अपने चुनावी अभियान का आगाज रामराज लाने के वादे से किया। इतना ही नहीं, बाद में मंदिर की नींव रखने के लिए कराये गये शिलान्यास में भी उनकी अहम भूमिका रही। लेकिन कांग्रेस का हिंदुत्व के प्रति झुकाव अस्थायी साबित हुआ। इसका कारण उसकी दुविधा रही। कांग्रेस यह तय नहीं कर सकी कि दोनों में से कौन सी लाइन ली जाये। राजीव गांधी ने हिंदुत्व का मुद्दा तो पकड़ा, लेकिन आगे जाकर पता नहीं किस कारण इसे छोड़ दिया। भाजपा ने इसका फायदा उठा लिया। कांग्रेस की इस अधूरे मन से की गयी कोशिश की तुलना शरद पूर्णिमा को बनायी जानेवाली खीर से की जा सकती है। शरद पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर छत पर रखने और इसे सुबह खाने की परंपरा है। कहा जाता है कि रात भर में उस खीर में आसमान से टपकनेवाला अमृत जमा हो जाता है। कांग्रेस ने शरद पूर्णिमा की खीर तो बना कर छत पर रख दी, लेकिन वह देर तक सोती रही। इस कारण भाजपा को वह अमृत तुल्य खीर नसीब हो गयी।
अयोध्या में ताला खुल चुका था और भाजपा ने इस मुद्दे पर कांग्रेस की दुविधा का भरपूर लाभ उठाया। उसे पता चल गया था कि इस एक मुद्दे की मदद से वह कामयाबी के शिखर तक पहुंच सकती है। 1989 के पालमपुर (हिमाचल) सम्मेलन में पार्टी ने तय किया कि उसका मुख्य राजनीतिक एजेंडा ‘राम जन्मभूमि को मुक्त करवाकर विवादित स्थान पर भव्य मंदिर बनवाना’ होगा। तब तक लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के कट्टरवादी खेमे का चेहरा बन चुके थे। उनको पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। उस साल हुए चुनाव में राजीव गांधी हार गये और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। उन्हें भाजपा के 85 सांसदों ने समर्थन दिया था। इसके साथ ही वाम मोर्चा के 45 सांसदों का भी समर्थन उन्हें हासिल था। वीपी सिंह इन दो धुर विरोधी विचारधाराओं के बीच तालमेल बिठाने में असफल रहे। यह उभरते हुए राष्ट्रवाद की शुरुआत थी। आडवाणी ने देश के बदलते हुए मूड को भांप लिया था। राम जन्मभूमि के आंदोलन ने बिखरे हुए राष्ट्रवाद को धर्म से जोड़कर इसे एक हिंदू राष्ट्रवाद के राजनीतिक आंदोलन में बदल दिया। राम जन्मभूमि आंदोलन ने भारत में पहली बार हिंदू राष्ट्रवाद को एक सामूहिक विवेक में तब्दील कर दिया। मंदिर मुद्दे पर भाजपा की बढ़ती हुई लोकप्रियता और इसके अध्यक्ष आडवाणी के ऊंचे होते हुए कद से जनता दल की सरकार घबरा गयी। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भाजपा के बढ़ते असर को कम करने के लिए 1990 में मंडल कमीशन के आरक्षण को लागू करने की घोषणा कर दी।
मंडल बनाम कमंडल की जंग में जीत भाजपा की हुई। आडवाणी ने सितंबर 1990 में रथयात्रा निकाली, ताकि कारसेवक 20 अक्टूबर को राम मंदिर के निर्माण में हिस्सा ले सकें। रथयात्रा के दौरान मुंबई में आडवाणी ने कहा था, लोग कहते हैं, मैं अदालत के फैसले (राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के मुकदमे में) को नहीं मानता, क्या अदालत यह तय करेगी कि राम का जन्म कहां हुआ। आडवाणी की रथयात्रा ने भारतीय मतदाता को वह सब कुछ दिया, जो उसके मन में था कि उसे नहीं मिला। आडवाणी की रथयात्रा ने भाजपा को एक ऐसा प्लेटफॉर्म दिया, जिससे भाजपा के लिए आॅल इंडिया पार्टी बनने का रास्ता खुल गया। वह समय राजनीतिक रूप से बेहद उथल-पुथल वाला था। केंद्र के साथ-साथ हिंदी पट्टी के दो राज्यों, उत्तरप्रदेश और बिहार में कांग्रेस ढलान पर थी। यूपी में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव का मुख्यमंत्री बनना राजनीति में नयी सोशल इंजीनियरिंग का सबूत बन चुका था। मंडल कमीशन और पिछड़ी जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों को भी राम मंदिर मुद्दे का फायदा मिलता साफ दिख रहा था। 1990 में कारसेवकों पर फायरिंग के आदेश देने पर जहां मुलायम सिंह को ‘मौलाना मुलायम’ का खिताब मिला, वहीं समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार किये जाने पर लालू को भी हिंदू विरोधी राजनीतिज्ञ का प्रचार मिलना शुरू हुआ। भाजपा को जब इस आंदोलन से बड़े फायदे की उम्मीद थी, तभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हो गयी। इससे भाजपा के राजनीतिक समीकरण बिगड़ गये और उस 10वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में भाजपा की सदस्य संख्या 123 तक पहुंच गयी। लेकिन राम मंदिर आंदोलन बेकार नहीं हुआ और पार्टी ने यूपी की सत्ता हासिल कर ली। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बन गये। भाजपा के शासनकाल में राम मंदिर मुद्दे को काफी ताकत मिली। तब तक अयोध्या विवाद अदालती लड़ाई में बदल चुका था।
1992 आते-आते यह तय हो गया कि भाजपा ने आस्था और राजनीति का शानदार मिश्रण तैयार कर लिया है, जो हिंदुत्व के उसके एजेंडे को आसानी से परवान चढ़ा सकती थी। छह दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार के आश्वासन के बावजूद विवादित ढांचे को ढहा दिया गया। केंद्र में पीवी नरसिंह राव की सरकार महज मूकदर्शक बनी रही। कांग्रेस के पतन के रास्ते की यह अंतिम कील थी। इस चूक की बड़ी कीमत पार्टी को लंबे समय तक चुकानी पड़ेगी। भारत के राजनीतिक इतिहास में यह एक निर्णायक मोड़ था। ढांचा ढाहे जाने को जिस स्तर पर प्रचार मिला, उससे यूपी और बिहार में पहले ही सिमट चुकी कांग्रेस को पूरे हिंदी क्षेत्र में धक्का लगना तय था। एक तरफ हिंदुत्व, तो दूसरी तरफ जाति आधारित राजनीति और मंडल और दलित राजनीति कसर पूरी कर रही थी। 1996 में चुनाव हुए और भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। उसे सरकार बनाने का मौका मिला, लेकिन बहुमत नहीं जुटा पाने के कारण वाजपेयी सरकार गिर गयी। राजनीतिक उथल-पुथल और अस्थिरता के शोर में राम मंदिर का मुद्दा दब सा गया। लेकिन 1999 के चुनावों में भाजपा को खासी कामयाबी मिली और देश में पहली बार पूरे कार्यकाल वाली भाजपा सरकार बनी। दूसरी तरफ राज्यों में मुलायम, मायावती और लालू जैसे नेताओं की राजनीति चमक रही थी। तब तक राम ?मंदिर का मुद्दा भी जोर पकड़ चुका था। भाजपा को भी लगा कि अयोध्या से उसने अधिकतम लाभ ले लिया है। इसलिए पार्टी ने एक बार फिर नरमवादी रुख की रणनीति अपनाने का फैसला किया। इसका नतीजा उसे 2004 में मिला, जब पार्टी चुनाव हार गयी और सत्ता से बाहर हो गयी। 2004 के चुनाव में पार्टी ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया और विकास की बात की। पार्टी चुनाव हार गयी।
2009 में पार्टी ने राम मंदिर का मुद्दा सामने रखा, लेकिन पूरी ताकत से नहीं। आर्थिक उदारीकरण और एकध्रुवीय हो चुके विश्व की राजनीति का असर भारत में भी दिखाई देना शुरू हुआ था। डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और आर्थिक मुद्दा ही केंद्र में रह गया। राम के नाम पर वोट पाना कठिन हो रहा था। 2009 के चुनाव में भी कमोबेश यही स्थिति रही। तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा चुनाव नहीं जीत सकी, हालांकि उसकी सीटें थोड़ी बढ़ जरूर गयीं।
तब भाजपा को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने अगले पांच साल राम मंदिर के सहारे राजनीति की। इसका नतीजा यह हुआ कि 2014 आते-आते नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने खुद को दोबारा खड़ा किया और कभी मुख्य एजेंडा रहा राम मंदिर मुद्दा पार्टी का फुटनोट बन कर सामने आ गया। हालांकि मोदी खुद को हिंदुत्व का नया चेहरा बनाने में कामयाब हो चुके थे, लेकिन उन्होंने अयोध्या के राम मंदिर से दूरी बनाये रखना ही ठीक समझा। प्रधानमंत्री रहते हुए कभी अयोध्या किसी कार्यक्रम में नहीं पहुंचे मोदी ने यही कहा कि मंदिर का रास्ता कोर्ट से ही निकलेगा। इसके बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने राम मंदिर की जगह विकास को प्राथमिकता दी और आज भाजपा भारत की सबसे बड़ी पार्टी बन कर सामने है। नरेंद्र मोदी को देखकर लोगों को लगा कि यह एक बहुत अच्छा मिक्स है कि वह एक हिंदू नेता हैं, जो विकास की बात करते हैं। आखिरकार हुआ भी यही, जब 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया। एक लंबी कानूनी और सियासी लड़ाई पर विराम लगा। अदालत का फैसला आने से पहले देश में चुनाव हुए और मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत हासिल की। 305 सीटें जीत कर भाजपा ने सत्ता में वापसी की। अब पीएम रहते हुए मोदी आगामी पांच अगस्त को अयोध्या जायेंगे और राम मंदिर के निर्माण की नींव का पहला पत्थर रखेंगे। इस शिलान्यास के साथ ही देश में एक नये किस्म की राजनीति की बुनियाद भी पड़ने की उम्मीद है। ‘राम मंदिर के लिए बेचैनी’ के बाद अब भाजपा अपने दीर्घकालिक राजनीतिक एजेंडे को ‘आखिरकार हर कीमत पर वादा निभाने’ की तर्ज पर जनता की अदालत में एक नयी सियासत शुरू करेगी।
कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा के उदय में केवल मंदिर मुद्दे का हाथ नहीं है। मंदिर से पार्टी को ताकत जरूर मिली, लेकिन कांग्रेस की नाकामियों ने, राजीव गांधी के बाद कांग्रेस में नेतृत्व के संकट और दूसरी विपक्षी पार्टियों में आपसी फूट जैसे कारणों ने भी भाजपा के उदय में मदद की। हालांकि विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि राम मंदिर मुद्दे ने भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया है। उनके अनुसार यह मुद्दा न केवल भारतीय जनता पार्टी के उदय का कारण बना, बल्कि कांग्रेस के पतन की वजह भी।