झारखंड की पांचवीं विधानसभा में झाविमो के चुनाव चिह्न पर जीत कर आये तीन विधायकों का मामला एक बार फिर दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों में फंस गया है। इसके साथ ही भारत के संसदीय इतिहास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कानूनों में से एक माने गये इस कानून को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गयी है कि आखिर कब तक इस कानून के प्रावधानों की राजनीतिक व्याख्या होती रहेगी। आज से 35 साल पहले जब यह कानून बनाया गया था, तब इसके उद्देश्य राजनीतिक रूप से बेहद पवित्र और विशिष्ट थे, लेकिन अब तो इसकी व्याख्या हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से करने लगा है। इसके कारण हकीकत में इस कानून का कोई औचित्य नहीं रह गया है। ऐसा नहीं है कि केवल झारखंड में ही ऐसा हो रहा है, बल्कि हाल के दिनों में देश के कई राज्यों में दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की गयी है। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान और मणिपुर में सरकार गिराने-बचाने के लिए इस कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल किया गया और विधायकों की खरीद-फरोख्त तक के आरोप लगे। इसलिए अब इस कानून में कुछ ऐसे संशोधन की जरूरत महसूस होने लगी है, जिससे दलबदल पर सख्ती से रोक लग सके। झारखंड में पैदा हुए विवाद की पृष्ठभूमि में दलबदल विरोधी कानून में संशोधन के औचित्य को रेखांकित करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
आज से 35 साल पहले 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने संविधान में 52वां संशोधन कर देश के संसदीय इतिहास में एक क्रांतिकारी बदलाव किया था। वह बदलाव दलबदल पर अंकुश लगाने का था। संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ कर दलबदल विरोधी कानून देश में लागू किया गया। लेकिन अब इस कानून के कई प्रावधान इतने कमजोर साबित हो रहे हैं कि इस कानून के औचित्य पर ही सवाल उठने लगे हैं।
शुरूआत झारखंड से करते हैं। राज्य की पांचवीं विधानसभा के लिए पिछले साल दिसंबर में हुए चुनाव में झारखंड विकास मोर्चा नामक एक क्षेत्रीय पार्टी के टिकट पर तीन प्रत्याशी विधायक चुने गये। विधायक बनने के बाद इस पार्टी का विलय भाजपा में कर दिया गया। पार्टी के एक विधायक बाबूलाल मरांडी, जो पार्टी के अध्यक्ष भी थे, ने विलय की औपचारिकताएं पूरी कर लीं। दो अन्य विधायक प्रदीप यादव, जिन्हें विधानसभा में झाविमो विधायक दल का नेता चुना गया था और बंधु तिर्की को बाबूलाल ने निष्कासित कर दिया और इन दोनों ने कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा कर दी। इसके बाद झाविमो का राजनीतिक अस्तित्व तो खत्म हो गया, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने न तो बाबूलाल मरांडी को भाजपा का विधायक माना और न ही प्रदीप-बंधु को कांग्रेस का। हालांकि चुनाव आयोग ने बाबूलाल मरांडी को भाजपा का विधायक मान लिया है और बाकी दोनों को असंबद्ध करार दिया है। अब विधानसभा अध्यक्ष ने इस मुद्दे को लेकर तीनों विधायकों को नोटिस भेज कर स्थिति स्पष्ट करने को कहा है।
स्पीकर के फैसले के बाद एक बार फिर दलबदल कानून और संविधान की 10वीं अनुसूची चर्चा में है। चर्चा का कारण यह है कि झारखंड की चौथी विधानसभा में अपने छह विधायकों की सदस्यता रद्द करने के लिए बाबूलाल मरांडी भाजपा सरकार और उसके विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष जो दलील दे रहे थे, लगभग उन्हीं दलीलों के आधार पर अब भाजपा उन्हें भाजपा का विधायक घोषित करने की मांग कर रही है। उधर प्रदीप यादव और बंधु तिर्की चौथी विधानसभा के छह विधायकों के भाजपा में शामिल होने को वैध करार देनेवाले स्पीकर के फैसले पर खुद को कांग्रेस का विधायक साबित करने की मांग कर रहे हैं। यह बेहद दिलचस्प स्थिति है और इससे साफ हो गया है कि दलबदल विरोधी कानून के प्रावधान पूरी तरह बेअसर हो चुके हैं। झारखंड अकेला ऐसा राज्य नहीं है, जहां दलबदल विरोधी कानून के प्रावधान बेअसर होते दिख रहे हैं। कर्नाटक से लेकर मध्यप्रदेश और राजस्थान तक में हाल के दिनों में जो सियासी ड्रामा हुआ, उसमें भी इस कानून के प्रावधानों का खुल्लम-खुल्ला मजाक उड़ाया गया।
दरअसल, जिस समय यह कानून बना था, उस समय यह कल्पना भी नहीं की गयी थी कि सरकार गिराने-बचाने का सियासी खेल इतने निचले स्तर तक गिर सकता है। आक्रामक राजनीति के कारण हाल के दिनों में यह खेल कुछ ज्यादा ही होने लगा है। और दलबदल कानून इस खेल को रोकने की बजाय इसका एक मजबूत हथियार बनता जा रहा है। चाहे कर्नाटक हो या मध्यप्रदेश, राजस्थान हो या मणिपुर, हरियाणा हो या महाराष्ट्र, हर जगह राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से इस कानून के प्रावधानों की व्याख्या करते नजर आते हैं। इस कानून के जिन प्रावधानों को कांग्रेस कर्नाटक में गलत मानती है, उनको राजस्थान में वह सही मानने लगती है। यही स्थिति भाजपा की और दूसरे दलों की भी है। मध्यप्रदेश में अपने विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने को बसपा गलत मानती है, लेकिन उत्तराखंड में इसे सही करार देती है। इसके कारण ही दलबदल विरोधी कानून की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगता दिखाई दे रहा है।
इसलिए अब दलबदल विरोधी कानून में व्यापक संशोधन की जरूरत महसूस की जाने लगी है। यह कानून राजनीतिक शुचिता स्थापित करने के उद्देश्य से लाया गया था, लेकिन अब इसकी आड़ में विधायकों की खरीद-फरोख्त होती है और कमोबेश हर राज्य में सत्ताधारी दल इस कानून का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने लगे हैं। जो दल जहां सत्ता में होता है, वहां वह इसे अपने पक्ष में मोड़ लेता है। इसलिए इस कानून के लचीलेपन को खत्म करने की जरूरत है। इस कानून में ऐसे प्रावधान किये जाने चाहिए कि किसी दल से निर्वाचित कोई विधायक या सांसद सदन के पूरे कार्यकाल तक किसी भी स्थिति में पाला नहीं बदल सके और यदि वह ऐसा करता है, तो उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म हो जायेगी। जब तक दलबदल विरोधी कानून में इस तरह के कड़े प्रावधान नहीं किये जायेंगे, इसका मजाक ऐसे ही उड़ाया जाता रहेगा। यह भी सच है कि ऐसा प्रावधान जोड़ने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ संसद में पर्याप्त संख्या बल का होना जरूरी है, लेकिन राजनीतिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने में किसी भी राजनीतिक दल को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि दलबदल कानून में ऐसे सख्त प्रावधान जोड़ दिये जायें, तो भारतीय संसदीय राजनीति की बहुत बड़ी बीमारी दूर हो जायेगी। तब 130 करोड़ की आबादीवाला दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपनी राजनीतिक व्यवस्था पर गर्व कर सकेगा।