कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में सोनिया गांधी को एकबार फिर अगली व्यवस्था होने तक पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष चुना गया है.

सोमवार का दिन कांग्रेस में लंबी बैठक, तनातनी, आरोप-प्रत्यारोप का रहा लेकिन पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव फिर भी नहीं हो सका.

संभव है कि पार्टी अगले छह महीने अधिवेशन बुलाए और उस वक़्त पार्टी का अध्यक्ष चुना जाए.

लेकिन सोमवार की बैठक कई मायनों में ख़ास रही.

शायद यह पहला मौक़ा रहा जब राहुल गांधी के एक कथित बयान पर पार्टी के बड़े नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर सफ़ाई दी और उनकी बात का खंडन भी किया. हालांकि बाद में यह मामला सुलझ गया लेकिन इस एक वाक़ये ने कांग्रेस के भीतर चल रही ‘राजनीति’ को सबके सामने ला दिया.

इस बैठक के दौरान अंदर और बाहर हुए आरोप-प्रत्यारोप के दौर पर राजनीतिक विश्लेषक स्मिता गुप्ता कहती हैं कि पूरे घटनाक्रम को देखें तो समझ में आता है कि बैठक शुरू होने से पहले परिवार काफ़ी नाराज़ था.

लेकिन जैसे ग़ुलाम नबी आज़ाद और कपिल सिब्बल ने आपत्ति ज़ाहिर की वो कांग्रेस के लिहाज से बहुत ही अचरज वाली बात थी क्योंकि कांग्रेस में ऐसा कभी नहीं होता.

स्मिता मानती हैं कि आज जो कुछ हुआ, अगर उसे संभाला नहीं जाता तो बहुत हद तक इस बात की आशंका थी कि पार्टी टूट भी सकती थी.

कांग्रेस पार्टी दो धड़े में बँट चुकी है ये तो लंबे समय से कहा जा रहा है लेकिन इस बैठक ने इसे और पुख़्ता तौर पर ज़ाहिर कर दिया.

बैठक शुरू होने से पहले तक उम्मीद जताई जा रही थी कि सोनिया गांधी इस्तीफ़ा पेश कर सकती हैं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. लेकिन आज के घटनाक्रम ने कांग्रेस के भविष्य और नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं ‘आज जो कुछ भी हुआ उसे मैं विद्रोह तो नहीं कहूंगी लेकिन कांग्रेस पार्टी में अभी तक पब्लिकली हाई-कमान के ख़िलाफ़ बोलने की क्षमता और जो भय होता था वो तो टूट गया है. 23 लोगों ने सोच-समझकर, ढाई सौ लोगों से बात करके सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी है तो यह समझ आता है कि काफ़ी समय से तो पार्टी के अंदर जो कुछ चल रहा वो सामने आ गया है.’

स्मिता की राय भी बहुत अलग नहीं है.

वो कहती हैं, ”इसे विद्रोह कहना उचित नहीं होगा लेकिन हां ये बिल्कुल है कि पार्टी के नेताओं में नाराज़गी और झुंझलाहट तो है ही. नेताओं में ये सोच तो है कि वे सबसे बड़े विपक्षी दल हैं और देश की सबसे पुरानी पार्टी लेकिन आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. देश में कितना कुछ हो रहा है. नरेंद्र मोदी आगे बढ़ रहे हैं. उनकी पार्टी आगे बढ़ रही है लेकिन हम कहीं नहीं दिख रहे.”

नीरजा इसे पार्टी के लिए एक चेतावनी के तौर पर भी देखती हैं.

वो कहती हैं, ”अगर कोई मुझसे पूछे कि क्या पार्टी टूटती दिख रही है तो मेरा जवाब सिर्फ़ इतना होगा कि टूटेगी कि नहीं ये इस बात पर निर्भर करेगा कि किस तरह से पार्टी नेतृत्व पार्टी को संभालता है. मसलन, अगर पार्टी ने अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी शुरू कर दी और आज जिस तरह से चीज़ें निकलकर सामने आईं हैं, अगर वो आगे भी जारी रही तो आगे जाकर कुछ भी हो सकता है.”

जो आज हुआ उसकी पृष्ठभूमि 2019 में ही तैयार हो गई थी

स्मिता गुप्ता कहती हैं कि आज जो कुछ भी हुआ उसकी पृष्ठभूमि महीनों पुरानी है.

वो कहती हैं, ”साल 2019 की हार के बाद कांग्रेस के हर नेता को ये लग रहा था कि इतनी बड़ी हार के बावजूद पार्टी के भीतर कुछ हो नहीं रहा है. ऐसे में नेताओं के बीच इस बारे में बात तो लंबे समय से चल ही रही थी कि सोनिया गांधी से इस बारे में बात की जानी चाहिए. लेकिन डर यह भी था कि जो भी आगे बढ़कर बोलेगा उसे विद्रोही माना जाएगा. ऐसे में यह चिट्ठी लिखी गई ताकि नेतृत्व समेत पार्टी के तमाम मुद्दों पर चर्चा हो सके.”

स्मिता इस बात से इनक़ार नहीं करती हैं कि पार्टी दो धड़ों में बँटी नज़र आती है लेकिन वो इसे गुट नहीं मानतीं. वो कहती हैं, ”पार्टी में गुट नहीं है बस इतना है कि एक धड़ा दूसरे से कुछ ज़्यादा बहादुर है.”

नीरजा चौधरी भी मानती हैं कि पार्टी के भीतर यह सब काफ़ी दिनों से चल रहा था.

वो कहती हैं, ”पार्टी को लेकर अंदर ही अंदर जो चल रहा है कि पार्टी चुनाव हार रही है, कुछ हो नहीं रहा है, यहां तक कि ना तो विचार हो रहा है, ना मंथन हो रहा है तो कहीं ना कहीं पार्टी के भविष्य को लेकर चिंता तो है ही और यह चिट्ठी इसी चिंता को ज़ाहिर किया गया है.”

लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी के पास नेतृत्व क्यों नहीं है?

कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी है और फ़िलहाल नेतृत्व के लिए संघर्ष करती दिख रही है. इस पर नीरजा कहती हैं कि यह बात बिल्कुल सही है कि कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है लेकिन साल 2019 के चुनावों के बाद से जब भी नेतृत्व की बात हुई है या तो राहुल गांधी का नाम लिया गया है या फिर सोनिया गांधी का.

वो मानती हैं कि कांग्रेस में अनुभवी नेताओं और योग्य उम्मीदवारों की कोई कमी नहीं है.

वो कहती हैं, ”पार्टी में कई अनुभवी नेता हैं. जिन्होंने अपना राज्य संभाला है, राज्यों में पार्टी को जीत दिलाई है लेकिन जब भी नेतृत्व की बात की जाती है इनमें से किसी की ओर नहीं देखा जाता है. अगर मौक़ा मिलेगा तो ही तो किसी के नेतृत्व की क्षमता का पता चलेगा, जब आप किसी को मौक़ा ही नहीं देंगे तो क्या ही…’

नीरजा ये मानती हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार के उम्मीदवार के लिए स्वीकार्यता है लेकिन अगर कोई अन्य है तो उसे लेकर मत अलग-अलग हो जाते हैं.

नीरजा कहती हैं कि किसी दूसरे नाम को लेकर पार्टी में स्वीकार्यता नहीं है लेकिन पार्टी को यह समझना होगा कि अब गांधी परिवार पार्टी को चुनाव नहीं जीता पा रहा है.

राहुल गांधी बोल तो रहे हैं पर सुने नहीं जा रहे?

कांग्रेस का एक धड़ा निश्चित तौर पर राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर देखना चाहता है और राहुल गांधी मुख्य विपक्ष पार्टी के नेता के तौर पर लगातार सरकार से सवाल भी कर रहे हैं लेकिन उनकी अपील अभी ‘वैसी’ नहीं है.

नीरजा चौधरी कहती हैं, ”राहुल गांधी संभवतः अकेले नेता हैं जो हर रोज़ मुद्दे उठा रहे हैं. कभी कोविड तो कभी अर्थव्यवस्था और कभी चीन. उनके अतिरिक्त शायद ही कोई नेता है जो इतना मुखर है लेकिन देश में वो क्लिक नहीं कर रहे हैं. अब वो क्लिक क्यों नहीं कर रहे हैं, क्या कारण है.और अगर नहीं कर रहे हैं तो कुछ समय के लिए किसी दूसरे को नेतृत्व देकर देखना चाहिए.”

नीरजा मानती हैं कि पार्टी में ना नेतृत्व की कमी है, ना क्षमता की और ना ही अनुभवी लोगों की लेकिन मौक़ा दिये जाने की सख़्त ज़रूरत है.

उनका कहना है कि युवाओं में अब ये भावना आने लगी है कि इस पार्टी को रीवाइव किया भी जा सकता है या नहीं.

क्या छह महीने में पार्टी चुन पाएगी अपना नेतृत्व

जानकार मानते हैं कि निश्चित तौर पर यह एक मुश्किल वक़्त है और अगर चीज़ों को जल्दी सुलझा नहीं लिया गया तो मुश्किल बढ़ सकती है.

नीरजा के मुताबिक़, फिलहाल तो नेतृत्व की बात मुश्किल लग रही है. लेकिन यह बात आज की परिस्थितियों के आधार पर है. कल कैसी परिस्थिति

होती है, सब कुछ उसी पर निर्भर करेगा.

वो कहती हैं, ‘भले ही छह महीने का समय लिया गया हो लेकिन सोनिया गांधी के स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं तो हैं ही.’ नीरजा मानती हैं कि आने वाले दिनों में सोनिया गांधी की ज़िम्मेदारियों को साझा करने के लिए समिति बनायी जा सकती है ताकि उन पर बहुत अधिक दबाव ना पड़े.

राजनीतिक विश्लेषक मान रहे है कि कांग्रेस अब भी पुराने ढर्रे पर चल रही है. अगर लोकतांत्रिक तरीक़े से पार्टी अपना नेतृत्व चुनती है तो वो चाहे जो भी होगा स्वीकार्य होगा लेकिन अगर थोपा हुआ नेतृत्व मिला तो संभव है कि लोग कुछ वक़्त बाद उस नेतृत्व को अस्वीकार कर दें.

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