आदिवासी समुदाय लंबे समय से अपने अस्तित्व, पहचान, भाषा संस्कृति और संसाधनों पर हक के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रकृति के साथ लंबे समय के सहचर्य से इस समुदाय ने प्रकृति आधारित जीवन शैली विकसित की है, पर सभ्यताओं के साथ संपर्क में आने के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आना शुरू हुआ। आज आदिवासी समुदाय अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, संसाधनों पर हक के लिए अन्य समस्याओं के साथ संघर्ष कर रहा है। आदिवासियों के संदर्भ में झारखंड का अलग ही स्थान है, क्योंकि 27 प्रतिशत जनजातीय आबादी वाले इस राज्य की धुरी आदिवासियों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। इसलिए नौ अगस्त का दिन झारखंड के लिए बहुत मायने रखता है। यह एक विडंबना ही कही जायेगी कि आदिवासी हितों को ध्यान में रख कर बनाये गये अलग झारखंड राज्य में आज भी अदिवासियों के लिए वे काम पूरे नहीं हो सके हैं, जिन्हें अब तक हो जाना चाहिए था। इसलिए आज भी झारखंड के आदिवासी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं। इस स्थिति को बदले जाने की जरूरत है, ताकि झारखंड का आदिवासी समुदाय भी प्रदेश के विकास में सहभागिता निभा सके। विश्व आदिवासी दिवस की पृष्ठभूमि में झारखंड के सामने विद्यमान चुनौतियों को रेखांकित करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

विश्व आदिवासी दिवस मनाने के लिए जब हम रंगमंच पर विभिन्न लोकगीत, संगीत और नृत्य से लोगों के दिलों में अपनी पहचान और इतिहास को उभारने की कोशिश कर रहे होते हैं, तब इस गीत को भी नहीं भूलना चाहिए, जो अंग्रेजों के खिलाफ नौ जनवरी, 1900 को डोंबारी पहाड़ पर बिरसा मुंडा के लोगों के संघर्ष को मुंडा लोकगीत में याद करते हैं,
डोंबारी बुरू चेतन रे ओकोय दुमंग रूतना को सुसुन तना, डोंबारी बुरू लतर रे कोकोय बिंगुल सड़ीतना को संगिलकदा/ डोंबारी बुरू चतेतन रे बिरसा मुंडा दुमंग रूतना को सुसुन तना, डोंबारी बुरू लतर रे सयोब बिंगुल सड़ीतना को संगिलाकदा। (डोंबारी पहाड़ पर कौन मांदर बजा रहा है, लोग नाच रहे हैं, डोंबारी पहाड़ के नीचे कौन बिगुल फूंक रहा है, जो नाच रहे हैं, डोंबारी पहाड़ पर बिरसा मुंडा मांदर बजा रहा है- लोग नाच रहे हैं। डोंबारी पहाड़ के नीचे अंग्रेज कप्तान बिगुल फूंक रहा है, लोग पहाड़ की चोटी की ओर ताक रहे हैं)
विश्व आदिवासी दिवस पर समारोहों के आयोजन के दौरान आदिवासियों की मौजूदा हालात, समस्याएं और उनकी उपलब्धियों पर चर्चा खूब होती है। प्रकृति के सबसे करीब रहनेवाले आदिवासी समुदाय ने कई क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभायी है। संसाधनों के अभाव में भी इस समुदाय के लोगों ने अपनी एक खास पहचान बनायी है। गीत-संगीत-नृत्य से हमेशा ही आदिवासी समुदाय का एक गहरा लगाव होता है। उनके गीतों-नृत्यों में प्रकृति से लगाव का पुट दिखता है।
झारखंड के संदर्भ में कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में आदिवासी समुदाय अपनी भाषा-संस्कृति से विमुख हो रहा है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि आदिवासी झारखंड के प्रथम निवासी हैं। उन्होंने जंगल- झाड़ काटकर इसे खेती योग्य बनाया और यहां बसते गये। यह स्थान खूंटकट्टीदार और भुईंहर लोगों का देस बना।
झारखंड का आदिवासी समुदाय जिस स्थिति में अपना जीवन यापन करता है, उस बारे में सोचकर भी हैरानी होती है। जनजातीय समुदाय के सामने जंगलों का कटना और उनकी पारंपरिक जमीन की चोरी सबसे बड़ी चुनौती है। वे धरती पर जैव विविधता वाले 80 प्रतिशत इलाके के संरक्षक हैं, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लोभ, हथियारबंद विवाद और पर्यावरण संरक्षण संस्थानों की वजह से बहुत से समुदायों की आजीविका खतरे में है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार आदिवासी 90 देशों में फैले हैं। उनकी पांच हजार अलग-अलग संस्कृतियां और चार हजार भाषाएं हैं। इस बहुलता के बावजूद या उसकी वजह से ही उन्होंने एक तरह के संघर्ष झेले हैं, चाहे वे आॅस्ट्रेलिया में रहते हों, जापान में या ब्राजील में या फिर झारखंड में। आदिवासियों की जीवन दर कम है। गैर आदिवासी समुदायों की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच कम है। आदिवासी समाज के लोग अपने धार्मिक स्थलों, खेतों, घरों आदि जगहों पर एक विशिष्ट प्रकार का झंडा लगाते हैं, जो अन्य धर्मों के झंडों से अलग होता है। आदिवासी झंडे में सूरज, चांद, तारे इत्यादि सभी प्रतीक विद्यमान होते हैं और ये झंडे सभी रंग के हो सकते हैं। आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं। वे प्रकृति में पाये जाने वाले सभी जीव, जंतु, पर्वत, नदियां, नाले, खेत इन सभी की पूजा करते हैं और वे मानते हैं कि प्रकृति की हरेक वस्तु में जीवन होता है।
यह हकीकत है कि आज आदिवासी समाज और अन्य वैश्विक समाज के बीच स्पष्ट दार्शनिक विभाजन दिख रहा है। जिसे हम वैश्विक समाज या ग्लोबल दुनिया कहते हैं, वह पूंजी के प्रसार के साथ जिस उपभोग की जीवन शैली को मानव समाज के बीच आरोपित कर रहा है, उसने देखते ही देखते प्रकृति को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। आज हम स्पष्ट रूप से प्रकृति से विलग और प्रकृति से रागात्मक रूप से जुड़े दो अलग-अलग समाज को देखते हैं। यह विभाजन सिर्फ भारत में या झारखंड में नहीं है, जहां आदिवासी समाज कथित विकास के उद्घोषकों से जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहा है। अगर हम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो एक दुनिया ‘कोलंबस मार्गी’ है और दूसरा ‘कोलंबस विरोधी’। इन दोनों की अपनी-अपनी जीवन शैली और सांस्कृतिक विशिष्टताएं हैं।
यह भी सच है कि आज की वैश्विक दुनिया आदिवासियों के पक्ष को सुनने के लिए तैयार नहीं है। दुनिया के कई देशों ने तो आदिवासियों का संहार कर उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया है। जिन देशों में अब भी आदिवासी बचे हुए हैं, उन्हें अपने संघर्ष की रणनीतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इस बात को गंभीरता से समझना होगा कि बाहरी हस्तक्षेप से आदिवासी समाज-व्यवस्था और उनका गणतंत्र बिखर गया है। इसके अवशेषों के साथ उनका दार्शनिक मूल्य ही है, जो अब भी बचा हुआ है। वैश्विक दुनिया में अलग-थलग रह कर अपने अस्तित्व को बहुत देर तक नहीं बचाया जा सकता है।
इसलिए अलग-थलग रहने की बजाय अपने मूल्यों के साथ दुनिया के सामने खड़ा होना ज्यादा कारगर रणनीति हो सकती है। गैर आदिवासी समाज में भी आदिवासियत के मूल्य रोपे जा सकते हैं, यह विश्वास आदिवासियों की लड़ाई को विस्तार ही देगा। पूंजीवादी सभ्यता ने मनुष्य और प्रकृति को युद्ध और विनाश के जिस छोर पर ला खड़ा किया है, वही वैश्विक परिस्थितियां आज आदिवासी मुद्दों पर बात करने के लिए दबाव डाल रही हैं। यहीं से आदिवासी समाज के लिए वैश्विक रास्ता भी खुलेगा।
लोकतांत्रिक देशों में जनता का हित राजनीतिक गलियारों से होकर ही सधता है। भारत जैसे देश में, जहां कई समुदायों का आंतरिक विभाजन है, वहां देश की आबादी का कुल आठ प्रतिशत आदिवासी समाज संसद में अपने अधिकारों के लिए कोई राजनीतिक दबाव नहीं बना पाता है। आदिवासी समाज का मनोविज्ञान आज भी बाह्य समाज की मनोरचना से बिल्कुल अलग है। यह किसी भी प्रकार की कुटिलता में दक्ष नहीं है। परिणामस्वरूप आजादी के इतने वर्षों बाद भी मुख्यधारा की राजनीति में यह अपना केंद्रीय नेतृत्व उभार नहीं सका है। वैश्वीकरण के आज के दौर में आदिवासी समाज चौतरफा हमला झेल रहा है। एक ओर तो उसकी अस्मिता और अस्तित्व के आधारभूत तत्व जल, जंगल और जमीन उनके हाथ से छिनते जा रहे हैं, तो दूसरी ओर विकास के कथित प्रोपेगंडा ने उसके दार्शनिक अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। वहीं दूसरी ओर उसके समाज से ही एक ऐसा वर्ग जन्म ले रहा है, जो बाजार की चमक से अपनी भाषा, संस्कृति और जीवन शैली से दूर हो रहा है। यह ऐसा वर्ग है, जो समाज से जुड़े किसी भी संवेदनशील मुद्दे से खुद को अलग कर लेता है। ऐसे में बृहद जन आंदोलन के बिना आदिवासी समाज अपने संकट से उबर पायेगा, इसमें संदेह लगता है।
लेकिन इन तमाम अवरोधों के बावजूद अब इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस देश में आदिवासी भी रहते हैं। पर हर आदिवासी के जेहन में यह टीस रहेगी कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा में उनके अस्तित्व से इनकार किया गया था। अब भी यही सच है कि आदिवासियों को एक संवैधानिक शब्द, जनजाति का दर्जा मात्र दिया गया है।
आदिवासी समाज अपने अस्तित्व और पहचान के लिए सदियों से संघर्षरत रहा है। आज जिस मुकाम पर यह समाज खड़ा है और मौजूदा हालात को देखते हुए यही लगता है कि इसे अपने अधिकार और अस्तित्व की लड़ाई जारी रखनी होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या आदिवासी समाज इस तरह की लड़ाई के लिए गोलबंद हो सकेगा। आदिवासियों को अपनी भाषा का संरक्षण और विकास के लिए स्वयं आगे आना होगा। आदिवासी जब तक अपने परिवार, गांव, अपने लोगों के बीच अपनी भाषा में बात नहीं करेंगे, तब तक भाषा का संरक्षण एवं विकास असंभव है। आदिवासी समाज की लगभग 90 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है, जहां बच्चे हिंदी नहीं जानते। ग्रामीण परिवेश के आदिवासी बच्चों के लिए शुरुआती दौर में हिंदी सीखना और फिर उच्च पढ़ाई के लिए अंग्रेजी में पढ़ना चुनौतीपूर्ण है। इसलिए धीरे-धीरे उन्हें अधिक रोजगारोन्मुख भाषा द्वारा पढ़ाया जा सकता है। आदिवासियों के सामने आज जो चुनौती है, उनका मुकाबला केवल आदिवासी ही कर सकते हैं। गैर-आदिवासी समुदाय उनकी मदद भर कर सकता है।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version