विशेष
जब भी जमीन से कटी, फेल होती रही है आजसू की रणनीति
अलग लकीर पर चलनेवाली इस पार्टी को अब समझनी होगी असलियत
सर सुदेश के बजाय बेटा या भाई की भूमिका में देखना चाहते हैं कार्यकर्ता सुदेश को
अति-आत्मविश्वास और रणनीतिक चूक रोक देती है पार्टी की सफलता की गाड़ी
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
स्थापना काल से ही राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में दुनिया भर में चर्चित झारखंड की सियासत में इन दिनों मानसून की रुक-रुक कर हो रही बारिश के साथ विधानसभा चुनाव की तपिश भी महसूस की जा रही है। पारंपरिक राजनीति के रास्ते पर चल रहे राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीति को अंतिम रूप देने में मशगूल हैं। इन दलों में एक नाम ऐसा भी है, जो पूरी तरह अलग लाइन पर चल रहा है। वह है आजसू पार्टी। इसके नेता अपनी रणनीति के साथ चुनावी मुद्दे तो तय कर रहे हैं, लेकिन उन्हें अब तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर पार्टी को चुनावी कामयाबी क्यों नहीं मिलती है। पार्टी सामान्य दिनों में अलग और गंभीर किस्म की राजनीति करती है। सामान्य दिनों में इसके नेता न तो बयानबाजी करते हैं और न ही आरोप-प्रत्यारोप में अपना समय जाया करते हैं। पार्टी का संगठन भी चुस्त-दुरुस्त है, लेकिन आज भी यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि चुनाव के मैदान में इस पार्टी की गाड़ी पर आखिर ब्रेक कैसे लग जाता है। आजसू के इतिहास पर नजर डालने और उसकी पड़ताल करने पर अब इसका कारण कुछ-कुछ सामने आने लगा है। दरअसल आजसू पार्टी की कमजोरी इसका अति-आत्मविश्वास है। पार्टी ने झारखंड के ढाई दशक के इतिहास में कामयाबी की कई कहानियां लिखी तो हैं, लेकिन अति आत्मविश्वास के कारण वह अपने रास्ते से भटकी भी है। अपना एक ठोस जनाधार अब तक नहीं बनाया है। जब-जब आजसू ने अति आत्मविश्वास में अपनी जमीनी हकीकत से कट कर हवा में उड़ने का प्रयास किया है, इसको बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इसी अति आत्मविश्वास ने 2024 के लोकसभा चुनाव में आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। झारखंड गठन के बाद अपने नये स्वरूप में आयी आजसू पार्टी और उसके सर्वेसर्वा सुदेश महतो के समक्ष मात्र दो साल पहले राजनीति के मैदान में कदम रखनेवाले जेबीकेएसएस के अध्यक्ष जयराम महतो ने पहाड़ जैसी चुनौती पेश कर दी है। बड़ी तेजी से जयराम महतो ने आजसू पार्टी के कोर वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा दी है। इसका कारण यह देखा गया है कि अध्यक्ष सुदेश महतो और इसके दूसरे नेता रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये हर दिन आम लोगों से जुड़ते तो हैं, लेकिन उस जुड़ाव को वोट में बदलने में पिछड़ रहे हैं। यह तल्ख सच्चाई है कि जब तक सुदेश महतो की पहचान समर्पित नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भाई या बेटा के रूप में थी, वह ज्यादा लोकप्रिय थे, लेकिन हाल के दिनों में एक बड़े समूह ने उन्हें भाई या बेटा की जगह सर बना दिया है और शायद इसी बदलाव ने जयराम महतो को उनके कोर वोट बैंक में सेंध लगाने की जमीन मुहैया करा दी है। वैसे झारखंड की करीब साढ़े चार हजार पंचायतों में पार्टी का संगठन बाकायदा सक्रिय है और लगातार लोगों से जुड़ कर काम कर रहा है, इसके बावजूद जब-जब आजसू पार्टी ने अति आत्मविश्वास में जमीनी हकीकत को दरकिनार कर राजनीतिक पहाड़ को लांघने की कोशिश की है, उसे ठोकर लगी है। इस ठोकर का एक और बड़ा कारण है। चुनाव में समय आजसू पार्टी में अचानक मौसमी नेताओं-कार्यकर्ताओं की बाढ़ आ जाती है। चुनाव से ठीक पहले हर दिन ऐसे मौसमी नेता आजसू का दरबार सजाने लगते हैं। जैसे ही चुनाव खत्म हो जाता है, इन मौसमी नेताओं की कतार गायब हो जाती है। चुनाव परिणाम के समय यह स्पष्ट हुआ है कि जितने मौसमी नेताओं-कार्यकर्ताओं ने आजसू का दामन थामा, उसका दस फीसदी वोट भी आजसू को नहीं मिला। चुनाव के समय मौसमी नेता आये, नाश्ता-पानी किया। खर्च लिया और चलते बने। ऐसे में वर्षों से तपे-तपाये नेता-कार्यकर्ता पीछे छूट जाते हैं, क्योंकि वे दिखावे की राजनीति में विश्वास नहीं करते और डींगें नहीं हांकते। आक्रामक राजनीति के इस दौर में आजसू पार्टी को अपनी इस कमजोरी को समझना होगा। तपे-तपाये नेताओं-कार्यकर्ताओं की पीड़ा समझनी होगी, उन्हें मान सम्मान देना पड़ेगा, तभी झारखंड के नवनिर्माण के अपने संकल्प को पूरा करने में आजसू कामयाब हो सकेगी। क्या है आजसू की कमजोरी और रणनीतिक चूक और क्या हो सकता है इसका अंतिम परिणाम, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड की सियासी हलचलों के बीच अब यहां की हवा में एक सवाल तैर रहा है कि इस बार आजसू पार्टी की चुनावी रणनीति क्या होगी। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि आजसू पार्टी ने झारखंड की राजनीति को अलग पहचान दी है और यह पार्टी सामाजिक बदलावों के जरिये राजनीति की नयी लकीर खींचने की बात करती है, लेकिन चुनाव दर चुनाव इसकी मिश्रित कामयाबी ने इसकी रणनीति पर सवाल भी खड़े कर दिये हैं।
आखिर चुनावी मैदान में आशातीत सफलता क्यों नहीं मिलती आजसू को
झारखंड गठन के बाद आजसू पार्टी ने अपने 18 साल के नये राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। राजनीति के मैदान में अलग लकीर खींचनेवाली पार्टी के रूप में पहचान बनाने के बावजूद यह सवाल सभी के मन में उठता है कि आखिर पार्टी को आशा के अनुरूप चुनावी सफलता क्यों नहीं मिलती है। यदि आजसू पार्टी के चुनावी रिकॉर्ड को देखा जाये, तो साफ हो जाता है कि इसने जब-जब अपनी जमीन छोड़ कर हवा में उड़ने की कोशिश की है, इसे करारा झटका लगा है। और इसी हवाबाजी ने झारखंड में आजसू के समक्ष जयराम महतो के रूप में एक बड़ा प्रतिद्वंद्वी खड़ा कर दिया है।
क्या हुआ था 2005 और 2009 के विधानसभा चुनाव में
2005 के विधानसभा चुनाव में सुदेश महतो आजसू समर्थित दो विधायकों में से एक थे, जिन्होंने जीत हासिल की। इस तरह वह लगातार दो बार विधायक चुने गये। 2007 में उन्होंने आजसू को आजसू पार्टी के रूप में पुनर्गठित किया और इसे भारत के चुनाव आयोग में पंजीकृत कराया। 2009 के विधानसभा चुनावों में आजसू पार्टी पांच विधायकों के साथ राज्य विधानसभा में पहुंची। यह आजसू की बहुत बड़ी कामयाबी थी। उसी वर्ष दिसंबर में सुदेश महतो ने अर्जुन मुंडा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। 2014 में एक बार फिर आजसू पार्टी ने पांच सीटें जीतीं और भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनायी। दो से पांच हो जाने के कारण आजसू पार्टी अति आत्मविश्वास का शिकार हो गयी और चुनाव में अकेले उतरने का फैसला कर लिया। 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले आजसू के अति आत्मविश्वास और मुख्यमंत्री रघुवर दास की हठधर्मिता के कारण दोनों पार्टियों के बीच का यह गठबंधन टूट गया। इन चुनावों में आजसू पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ा, लेकिन सीटों के मामले में यह फिर दो सीट पर सिमट गयी। भाजपा-आजसू सत्ता से बाहर हो गयी।
2014 के लोकसभा चुनाव में लगा पहला झटका
बात शुरू करते हैं 2014 के लोकसभा चुनाव से। उस चुनाव में आजसू पार्टी ने अति आत्मविश्वास में अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला कर लिया। इसके मूल में मौसमी नेताओं-कार्यकर्ताओं का वह समूह ही रहा, जो हर दिन सुबह-सुबह कभी पांच सौ तो कभी हजार की संख्या में पहुंच कर आजसू की सदस्यता ग्रहण कर रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक उन दिनों करीब दो लाख लोगों ने आजसू की सदस्यता ग्रहण की थी। इस भीड़ ने आजसू और खासकर उसके सुप्रीमो सुदेश महतो को अति आत्मविश्वास से लबरेज कर दिया। उन्होंने जमशेदपुर, लोहरदगा और पलामू को छोड़ कर राज्य की बाकी 11 लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी उतार दिये। पार्टी प्रमुख सुदेश महतो खुद रांची से चुनाव मैदान में उतर गये। सुदेश महतो को यह भरोसा था कि वह सिल्ली, इचागढ़, कांके और रांची के मतदाताओं के भरोसे भाजपा को पटकनी दे देंगे। उस बार इन 11 सीटों पर आजसू पार्टी को कुल चार लाख 81 हजार 646 वोट मिले थे। इसमें सबसे आश्चर्यजनक रूप से आजसू को रांची में नुकसान उठाना पड़ा था। जिस बड़े पैमाने पर मौसमी नेताओं ने आजसू पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी और नाश्ता-पानी किया था, उसका तीन प्रतिशत वोट भी रांची विधानसभा क्षेत्र से आजसू को नहीं मिला। वैसे उस चुनाव में पार्टी को कहीं भी आशातीत सफलता नहीं मिली थी। इसके कुछ ही महीने बाद जब विधानसभा का चुनाव हुआ। उस चुनाव में निश्चित रूप से आजसू ने सबक लिया और उसने अपनी रणनीति बदली और भाजपा के साथ तालमेल कर आठ सीटों पर प्रत्याशी उतारे। तब उसके पांच प्रत्याशी जीत कर विधानसभा पहुंच गये।
2019 में पार्टी को हुआ जबरदस्त नुकसान
भाजपा के साथ आजसू पार्टी का तालमेल चल रहा था। सत्ता में साझीदार के रूप में आजसू पार्टी राजनीति में अपना मुकाम हासिल करने की तरफ आगे बढ़ रही थी। लोकसभा चुनाव में पार्टी को पहली बार इस दोस्ती का इनाम मिला और उसे गिरिडीह सीट से चुनाव लड़ने का मौका मिला। आजसू पार्टी के चंद्रप्रकाश चौधरी चुनाव जीतने में कामयाब रहे और लोकसभा में पहुंच गये। लेकिन आजसू पार्टी उसके बाद फिर अति-आत्मविश्वास में आ गयी। यह आत्मविश्वास मुख्यमंत्री रघुवर दास की तरफ भी था। इस आत्मविश्वास से ग्रस्त आजसू अपनी जमीनी हकीकत को भूल गयी। दनादन आजसू पार्टी ने दूसरे दलों के रिजेक्ट नेताओं की भर्ती अपने यहां शुरू कर दी। एक से एक बड़े नामों की उसके यहां झड़ी लग गयी। इस भीड़ के कारण आजसू ने एक बार फिर एकला चलो की राह अपना ली। इसका नतीजा यह हुआ कि उस साल दिसबंर में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों की दोस्ती टूट गयी। आजसू पार्टी ने 53 विधानसभा सीटों से प्रत्याशी उतार दिये।
कहा जाता है कि उस चुनाव में आजसू पार्टी की तरफ से हर विधानसभा सीट पर औसतन एक करोड़ रुपये खर्च किये गये थे, लेकिन पार्टी को केवल दो सीटों पर ही जीत हासिल हो सकी। उस चुनाव में आजसू प्रत्याशियों ने कई सीटों पर अच्छा-खासा वोट हासिल कर भाजपा का राजनीतिक समीकरण बिगाड़ा, तो कई सीटों पर भाजपा ने काफी वोट बटोर कर आजसू के खेल को बिगाड़ दिया। इसका सीधा फायदा गठबंधन प्रत्याशी को मिला। इसके चलते भाजपा और आजसू को सत्ता भी गंवानी पड़ गयी। कम से कम 13 विधानसभा सीटों पर दोनों की दोस्ती टूटने का सीधा असर पड़ा। इनमें मधुपुर, डुमरी, जुगसलाई, इचागढ़, लोहरदगा, जामा, नाला, बड़कागांव, रामगढ़, घाटशिला, खिजरी, चक्रधरपुर और गांडेय शामिल हैं। इन 13 विधानसभा सीटों के अलावा छह सीटें ऐसी भी थीं, जहां करीबी मुकाबला रहा था। इनमें सरायकेला, मांडर, तमाड़, जरमुंडी, मनोहरपुर, सिमडेगा शामिल हैं। यदि गठबंधन होता, तो ये सीटें भी एनडीए के खाते में जा सकती थीं।
2019 के विधानसभा चुनाव में आजसू पार्टी के प्रदर्शन पर नजर दौड़ाने से साफ होता है कि पार्टी दो सीटों पर पहले स्थान पर रही थी, जबकि नौ स्थानों पर दूसरे स्थान पर रही थी। पार्टी को 18 सीटों पर तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा था, जबकि 11 स्थानों पर उसे चौथा स्थान मिला था। आजसू पार्टी पांच सीटों पर पांचवें, तीन सीटों पर छठे और दो-दो सीटों पर सातवें और आठवें स्थान पर रही थी।
2019 के बाद की कहानी
2019 में विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद आजसू पार्टी को शायद अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने भाजपा से अपनी पुरानी दोस्ती को दोबारा जीवित किया। इसका परिणाम भी सामने आया। 2024 के चुनाव में आजसू पार्टी को फिर गिरिडीह सीट से प्रत्याशी उतारने का मौका मिला और वह अपनी सीट बचाने में कामयाब रही। लेकिन इस चुनाव की कड़वी सच्चाई यही है कि गिरिडीह से आजसू के प्रत्याशी चंद्रप्रकाश चौधरी को जो जीत मिली, उसमें भाजपा कार्यकर्ताओं का महती योगदान रहा। गिरिडीह में एक तरह से आजसू का अपना वोट बैंक दरक गया। कहीं-कहीं तो जयराम महतो की पार्टी ने उसे पटकनी तक दे दी, तो कहीं-कहीं बिल्कुल उसके पास पहुंच गयी। जयराम महतो ने गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र के गोमिया, बेरमो, डुमरी और टुंडी में आजसू को हांफने के लिए मजबूर कर दिया।
रणनीतिक कमजोरी या अति-आत्मविश्वास, 35 बड़े चेहरे छिटक गये
इन चुनावी आंकड़ों की पृष्ठभूमि में यह बात सामने आती है कि आजसू पार्टी ने जब-जब अकेले चुनाव मैदान में उतरने या अपनी जड़ों से कटने की कोशिश की, या हवा-हवाई सपने देखने लगी, उसे करारा झटका लगा। उदाहरण के लिए 2014 और 2019 के बीच के दौर को लिया जा सकता है। वह आजसू पार्टी के उफान का दौर था। ऐसा कहा जाने लगा था कि सुदेश महतो ही झारखंड के भविष्य हैं और आजसू पार्टी के पास ही झारखंड के विकास का विजन है। पार्टी में शामिल होनेवालों की कतार लग गयी। आजसू पार्टी का नेतृत्व भी आंख बंद कर लोगों को अपने खेमे में लाता रहा। उन्हें 2019 के चुनाव में उतारा। लेकिन पार्टी नेतृत्व को इस बात का एहसास नहीं हुआ कि उसके पास जो लोग हैं, उनमें राजनीतिक प्रतिबद्धता कितनी है। वे कितनी दूर तक आजसू पार्टी का साथ दे सकते हैं। यह बात तब समझ में आयी, जब अधिकांश ने 2019 के चुनाव के बाद पार्टी छोड़ दी। उस समय लगभग 54 लोगों ने आजसू का चोला पहला था, इनमें से लगभग 35 लोगों ने समय देख कर पार्टी को टाटा-बाय-बाय कर दिया। इनमें मो ताजुद्दीन, अकील अख्तर, मनोज चंद्रा, शालिनी गुप्ता, राधाकृष्ण किशोर, प्रदीप बलमुचू, ताला मरांडी, अर्जुन बैठा, राजेंद्र महतो, माधव चंद्र महतो, अनंत राम टुडू, हेमलता, राजकिशोर महतो, गंगा नारायण राय, सत्यनारायण दास, स्टेफी मुर्मू, संतोष पासवान, चमेली देवी, अताउर्रहमान सिद्दीकी, फिरोज मियां, प्रदीप प्रसाद, सुफल मरांडी आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा बीते पांच सालों में जो लोग आजसू पार्टी में शामिल हो रहे है, उनमें से अधिकांश की एक कड़वी कड़वी सच्चाई यह भी है कि उनमें राजनीतिज्ञों की संख्या कम और कारोबारियों की भीड़ ज्यादा है।
क्या है 2024 की चुनौती
अब बात चुनौैतियों की। आजसू पार्टी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती जयराम महतो की झारखंडी भाषा खतियानी संघर्ष समिति यानी जेबीकेएसएस है, जिसने हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत दिखा दी है। इस संगठन ने राज्य की आठ लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे और आठ लाख 10 हजार 912 वोट लाकर आजसू पार्टी के समक्ष एक बड़ी चुनौती पेश कर दी है। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि जब आजसू पार्टी अपने उफान पर थी, उस समय 2014 के लोकसभा चुनाव में उसने राज्य की 11 लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिये थे। फिर भी उसके खाते में सिर्फ 4 लाख 81646 वोट ही आ पाये। उसकी तुलना में जयराम महतो की नयी पार्टी ने अपने पहले ही चुनाव में 810012 वोट हासिल किये। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जयराम महतो ने आजसू के समक्ष कितनी बड़ी चुनौती पेश की है। अब यह पार्टी विधानसभा चुनाव में उतरने के लिए ताल ठोंक रही है। दरअसल आजसू और जेबीकेएसएस जिस समुदाय को अपना कोर वोटर मानती हैं, वे एक ही हैं, यानी कुरमी समुदाय। इस समुदाय को झारखंड का सबसे प्रभावशाली समुदाय माना जाता है। जयराम महतो ने काफी कम समय में अपना प्रभाव कायम किया है और इसका सीधा असर आजसू के वोट बैंक पर पड़ेगा। लोकसभा चुनाव में जेबीकेएसएस के प्रत्याशी ने आजसू पार्टी सुप्रीमो सुदेश महतो के क्षेत्र सिल्ली से 49 हजार से अधिक वोट लाकर इस चुनौती का संकेत दे दिया है। इतना ही नहीं, गोमिया में जेबीकेएसएस प्रत्याशी को 70 हजार से अधिक वोट मिले हैं, जबकि रामगढ़ में उसे 55 हजार से अधिक वोट मिले। वोटों के ये आंकड़े बताते हैं कि जेबीकेएसएस की तरफ से आजसू पार्टी को सबसे कठिन चुनौती मिलनेवाली है।
आजसू पार्टी का इतिहास
22 जून 1986 को असम के छात्र आंदोलन की तर्ज पर आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) का गठन किया गया। राज्य के युवा बड़ी संख्या में इसमें शामिल हुए और झारखंड के आंदोलन में नयी जान फूंकी। 1988 तक अलग राज्य के आंदोलन की तीव्रता बढ़ गयी थी, जिसमें नाकेबंदी, आगजनी और यातायात अवरोध शामिल थे। आखिरकार 15 नवंबर, 2000 को झारखंड अलग राज्य बना और वह तमाम राजनीतिक दलों के साथ आजसू के लिए भी टर्निंग प्वाइंट था। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि आजसू का आंदोलन आज के झारखंड से कहीं बड़े झारखंड के लिए था। उसकी दृष्टि में बंगाल के पुरुलिया-मिदनापुर-बांकुडा, ओड़िशा के मयूरभंज और छत्तीसगढ़ के सरगुजा भी झारखंड में शामिल थे। दरअसल, संगठन ने गठन के बाद अपना पहला सम्मेलन मिदनापुर में ही किया था। उसने एक केंद्रीय समिति बनायी और आंदोलन की पूरी रूपरेखा तैयार की। इसके बाद आंदोलन जोर-शोर से शुरू हुआ और युवाओं के बीच जनजागरण का कार्यक्रम चलाया गया। झारखंड में आजसू की सक्रियता का प्रभाव इतना जबरदस्त था कि आजसू से निकले दो दर्जन से ज्यादा लोग विधायक, मंत्री और सांसद बन गये।
2007 में राजनीतिक पार्टी बनी आजसू
संगठन में यह विचार पनपा कि झारखंड अलग राज्य बनते ही आजसू आंदोलन के रूप में अपना उद्देश्य पूरा कर राजनीतिक दल में तब्दील हो जायेगी। 1991 के महाधिवेशन में आजसू के पुराने नेतृत्व को पार्टी बनाने की जिम्मेदारी दी गयी। इसके साथ ही संगठन में पुराने नेतृत्व की जगह नया नेतृत्व खड़ा करने की बात भी हुई। इस तरह दो चीजें एक साथ हो रही थीं, झारखंड पीपुल्स पार्टी का गठन और आजसू में नये युवा चेहरों का आगमन। उनमें सुदेश महतो भी शामिल थे, जो बाद में राज्य के उपमुख्यमंत्री बने। इसके बाद आजसू की नयी टीम बिखरने लगी और संगठन में अव्यवस्था फैल गयी। ऐसे में सुदेश महतो ने कमान संभाली। झारखंड गठन से कुछ महीने पहले उन्होंने आजसू के समर्थन से सिल्ली से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। नवगठित झारखंड में वह एनडीए सरकार में पथ निर्माण मंत्री बने।
किंगमेकर की भूमिका में
झारखंड गठन के बाद के वर्षों में एनडीए ने सबसे अधिक समय तक सत्ता संभाली, जिसमें आजसू पार्टी किंगमेकर की भूमिका में रही। पार्टी प्रमुख सुदेश महतो डिप्टी सीएम होने के अलावा गृह, खेल, सड़क निर्माण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों के भी प्रभारी थे। यह सच है कि आजसू पार्टी सुदेश महतो के इर्द-गिर्द ही घूमती है। आदिवासियों के अलावा पार्टी की स्थानीय लोगों, खासकर महतो समुदाय के बीच मजबूत उपस्थिति और समर्थन है।
गंभीर राजनीति के लिए जानी जाती रही है आजसू
राजनीति और चुनावी कामयाबी के बीच उतार-चढ़ावों से जूझती आजसू पार्टी को लेकर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर गंभीर राजनीति करनेवाली पार्टी को आशातीत कामयाबी क्यों नहीं मिलती है। आजसू पार्टी के नेताओं के लिए संसाधनों में हिस्सेदारी, नीति-निर्णय में भागीदारी और सबके लिए समान अवसर सृजित करना ही सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा है। आजसू पार्टी का यही नजरिया उसे दूसरे राजनीतिक दलों से अलग करता है, क्योंकि वह हमेशा ही अलग किस्म की राजनीति पर भरोसा करती है। यह अलग बात है कि इसका चुनावी लाभ उसे नहीं मिलता है, लेकिन आजसू पार्टी और उसका एक-एक पुराना नेता पार्टी के उद्देश्यों को लेकर स्पष्ट है। सुदेश महतो और उनकी पार्टी हमेशा झारखंड के गांवों से जुड़ कर काम करती है। इसलिए झारखंड की साढ़े चार हजार के करीब ग्राम पंचायतों में उसका संगठन सक्रिय है और आम लोग सीधे पार्टी के नेताओं से जुड़ कर अपनी बात करते हैं और सुनते हैं।
आजसू पार्टी का यही नजरिया सुदेश महतो को झारखंड की राजनीति का ‘डार्क हॉर्स’ बनाता है। इसमें कोई शक नहीं कि सुदेश महतो ने झारखंड बनने के बाद से एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी अलग पहचान स्थापित की है। अपने गृह क्षेत्र सिल्ली से लगातार दो बार विधानसभा का चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने पार्टी के साथ-साथ अपना हौसला भी बनाये रखा। उन्होंने हमेशा मुद्दों की राजनीति की है और गंभीरता से अपनी पार्टी की रणनीति निर्धारित की है। विधानसभा में भी उनकी बात सभी पक्ष के सदस्य गंभीरता से सुनते हैं। अपने एक-एक कार्यकर्ता के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा रहना सुदेश के विशिष्ट गुणों में शामिल रहा है। उनकी यही कार्यशैली उन्हें दूसरे राजनेताओं से अलग करती है। उन्होंने पिछले पांच-छह साल में अपनी पार्टी का जिस रफ्तार से विस्तार किया है, वह किसी अचंभे से कम नहीं है। आज की तारीख में आजसू का संगठन झारखंड के हरेक गांव में है और यह केवल नाम के लिए नहीं है, बल्कि पूरी तरह सक्रिय है। लेकिन अब यह भी देखने को मिल रहा है कि आजसू पार्टी की छतरी का लाभ लेने के लिए स्वार्थी लोगों और कारोबारियों का एक बड़ा समूह उसके इर्द-गिर्द डोरे डालने लगा है और कभी-कभी वह अपना प्रभाव भी स्थापित कर लेता है, इससे पार्टी के समर्पित नेताओं-कर्ताओं को गहरा आघात लगता है। लेकिन वह अपनी पीड़ा भी व्यक्त नहीं कर पाते।
सुदेश महतो ने अपनी राजनीति के लिए जो धारा तय की है, वह इसलिए अनोखी है, क्योंकि इसमें न आरोप-प्रत्यारोप है और न बयानबाजी। जमीन पर रहअकर काम करना और सीधे जनता से जुड़ाव ही इस राजनीति का आधार है। तभी तो पार्टी आक्रामक राजनीति के इस दौर में धीर-गंभीर मुद्दों को तरजीह दे रही है, पिछड़े वर्ग का सम्मेलन आयोजित कर रही है। दूसरे दल सामान्य मुद्दों पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे थे, तो सुदेश महतो राज्य के संसाधनों में हिस्सेदारी, नीति-निर्णय में भागीदारी और सबके लिए समान अवसर सृजित करने जैसी बात कर रहे थे। वह सामाजिक न्याय के मुद्दे पर संघर्ष करनेवाले संगठनों को गोलबंद कर एक मंच पर लाने और पिछड़े वर्ग के हितों के लिए लगातार संघर्ष करने की बात कह रहे थे।
इन तमाम आंकड़ों और दूसरी बातों की पृष्ठभूमि में आजसू पार्टी के नेतृत्व के लिए अपना रास्ता तलाशना जरूरी हो गया है। कारोबारियों की भीड़ से अलग उसे तपे तपाये नेताओं पर भरोसा करना होगा और मौसमी नेताओं-कार्यकर्ताओं से सावधान रहना होगा। एक और महत्वपूर्ण बात, आजसू पार्टी के पास भाजपा से दोस्ती तोड़ने का विकल्प नहीं है। उसे चुनावी सफलता में भाजपा का सहारा चाहिए ही। ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि आजसू पार्टी अपनी रणनीति पर विचार करे और चुनौतियों की पृष्ठभूमि में अपने भविष्य का निर्धारण करे। हालांकि यह बात कहने और दिखने में जितनी आसान है, आक्रामक राजनीति के इस दौर में उसे धरातल पर उतारना बेहद कठिन, पर विकल्प भी तो नहीं है। सबसे बड़ी बात, सुदेश महतो एक बार फिर बेटा और भाई की भूमिका में आयें। सर की भूमिका को तिलांजलि दें।