खुद की आग में झुलसता रहा झरिया, लेकिन सभी ने राजनीतिक रोटी सेंकी
अब सहानुभूति नहीं, काम पर वोट करेगा झरिया
रागिनी की कड़ी मेहनत की अमिट छाप से पूर्णिमा को लगी नजर
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
भागवत गीता कर्म करने और जीवन में आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देती है। भागवत गीता के बातों का अनुसरण करने से जीवन बदल जाता है और व्यक्ति को हर काम में सफलता मिलती है। गीता के चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39 में कहा गया है कि अपनी इंद्रियों पर संयम रखनेवाला मनुष्य ही संसार पर विजय प्राप्त करता है….
आज हम बदलते राजनीतिक मौसम में झारखंड के एक ऐसे विधानसभा क्षेत्र की बात करेंगे, जहां संयम की परकाष्ठा है। जी हां! झारखंड के साथ देश-दुनिया में सुर्खियों में बना रहनेवाला झरिया विधानसभा क्षेत्र को संयम का अद्वितीय उदाहरण कहा जा सकता है। कारण, झारखंड को ऑक्सीजन देनेवाला झरिया खुद वेंटिलेटर पर है। भूमिगत आग से 100 से अधिक सालों से धधकता झरिया विधानसभा क्षेत्र सालों साल रक्तरंजित होता रहा है। यह संयम की मिशाल है कि लोग जब तब जमींदोज हो जाते हैं, लेकिन झरिया से विस्थापन नहीं चाहते। झरिया सालों से किसी राजनीतिक पार्टी का गढ़ नहीं माना जाता, बल्कि झरिया एक परिवार की विरासत समझा जाता है। यहां सालों से आबादी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में दहकते अंगारे पर जीवन गुजारती आ रही है। धधकती आग पर यहां जिंदगियां सिसकती हैं। आलम यह है कि झरिया का रेलवे स्टेशन लापता हो गया, ऐतिहासिक पीजी स्तर के कॉलेज शिफ्ट हो गये। दर्जनों गांव, दर्जनों मुहल्ले समेत सौ से अधिक इलाका नक्शे से गायब हो गये। प्रदूषण में अव्वल, जमींदोज होने का खतरा, विस्थापन का दर्द और धुआं-धुआं सी जिंदगी यही तो है झरिया। झरिया विधानसभा क्षेत्र की जमीनी सच्चाई और यहां के मतदाताओं की कसौटी पर झरिया का भावी कर्णधार कौन? बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता मनोज मिश्र।
झरिया विधानसभा क्षेत्र धनबाद स्थित एक बड़ा कोयला क्षेत्र है। झरिया भारत में सबसे बड़े कोयला भंडार का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें 19.4 बिलियन टन कोकिंग कोल का अनुमानित भंडार है। यह कोयला क्षेत्र, जहां झारखंड को अरबों का राजस्व देने के मामले में आक्सीजन प्रदान करता है, वहीं स्थानीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है, जो स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोजगार देता है।
झारखंड विधानसभा चुनाव-24 के मद्देनजर जब देश की कोयला राजधानी धनबाद के सबसे अहम इलाके झरिया में जमीनी सच्चाई जानने को लेकर पहुंचे तो झरिया के दुर्गम इलाके की बात छोड़िए झरिया के अहम इलाकों में भी हर जुबां पर पानी और पुनर्वास का मुद्दा है। जमीन के नीचे सुलगती आग और सतह पर आशियाना छिन जाने का डर झरिया की आम समस्या है। प्रदूषण और दम घोंटू धुएं के बीच यहां रोजगार बचाने का द्वंद्व जारी है। हर घर हर नल पीने का स्वच्छ जल तो आजादी के 78 साल बाद भी सपना ही है।
आकड़ों के मुताबिक, झरिया में 595 आग प्रभावित बस्तियों में से 556 बस्तियों के 1.4 लाख परिवारों का विस्थापन होना है। इसके लिए फायर फाइटिंग एवं पुनर्वास योजना को केंद्रीय वित्त मंत्रालय की मंजूरी मिली हुई है। बताया जाता है कि झरिया कोयला क्षेत्र में कुल 595 आग प्रभावित क्षेत्र थे, जिनमें कुछ प्रभावित क्षेत्र की आग खत्म हो गयी है। 556 आग प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्वास एवं फायर फाइटिंग प्रोजेक्ट चलाने पर एक्सपर्ट कमेटी ने साल 2023 में स्वीकृति दी थी। इनमें 81 प्रभावित क्षेत्रों में त्वरित कार्रवाई की बात कही गयी थी। एक लाख चार हजार से अधिक परिवारों का पुनर्वास होना है। लगभग 32 हजार परिवार रैयत और शैष गैर रैयत हैं।
जानकारी के अनुसार फिलहाल 27 बेहद संवेदनशील इलाकों में फायर फाइटिंग एवं पुनर्वास से संबंधित प्रस्ताव को स्वीकृति दिये जाने की सूचना है। इस आग को बुझाने और वहां पर कानूनी तौर पर रहनेवाले लोगों को विस्थापित करने में कुल 6500 करोड़ रुपये के खर्च का प्रस्ताव तैयार किया गया है। प्रस्ताव के मुताबिक ये प्रोजेक्ट दो चरणों में पूरा होगा। आग बुझाने पर करीब दो हजार करोड़ रुपये का खर्च होना है। पहले चरण में तीन साल के भीतर प्रमुखता से आग बुझाने का काम किया जायेगा और साथ ही लोगों के लिए घर बनाया जायेगा। इतने सालों बाद भी लोगों को विस्थापित करने का मामला सरकार के लिए भी चुनौती बना हुआ है। इसी क्रम में नये प्लान में कोयला मंत्रालय इस पूरे इलाके को न केवल आग से मुक्त करना चाहता है, बल्कि उसके दायरे में रह रहे परिवारों को विस्थापित करने पर भी ध्यान दे रहा है। हालांकि, इसकी प्रगति ठीक नहीं है।
मानसून के दौरान अग्नि क्षेत्र खतरनाक हो जाते हैं। 70 से अधिक ऐसे इलाके हैं, जहां आबादी का एक पल भी रहना बेहद जोखिम भरा माना जा रहा है। पिछले कुछ सालों में इन इलाकों में अचानक जमीन फटने से मकान, मंदिर, मस्जिद, दुकान आदि के जमींदोज होने की दो दर्जन से भी ज्यादा घटनाएं हुर्इं। केंद्र सरकार के झरिया मास्टर प्लान के तहत अग्नि क्षेत्रों के निवासियों को अगस्त 2021 तक सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए था, लेकिन आवासों की कमी के कारण अब तक केवल 2,687 परिवारों का ही पुनर्वास किया जा सका है।
साल 1967 में झरिया विधानसभा का गठन, 1977 से एक ही परिवार का दबदबा:
झरिया झारखंड राज्य के धनबाद जिले से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। एक वक़्त ऐसा भी था, जब यहां पर भी राजा महाराजाओं का राज हुआ करता था। उनके किले आज भी झरिया में जर्जर हालत में खड़े हैं। झरिया में मौजूद पुराने किले को देख कर आप भी अंदाजा लगा सकते हैं कि ये किले बहुत पुराने हैं। झरिया में अनगिनत ऐसे बहुत से पुराने और जर्जर खंडहर किले आज भी मौजूद हैं। ये दर्शाते हंै कि राजा महाराजाओं के हैं, जब भारत में अंग्रेजों और राजाओं का शासन हुआ करता था। इतिहास में दर्ज है कि अंग्रेजों से पहले झरिया में राजा महाराजाओं का ही शासन हुआ करता था और आज भी उसके कुछ वंश यहां रहते हैं।
साल 1967 में झरिया विधानसभा का गठन हुआ था। उस समय झरिया के राजा शिवप्रसाद पहले विधायक चुने गये थे। वह कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े थे और उन्हें 10 हजार 24 वोट मिले थे। जबकि, इनके खिलाफ जेकेडी के टिकट से चुनाव लड़े एसके राय को 7150 वोट मिले थे। इसके पहले झरिया विधानसभा क्षेत्र साल 1962 में जोरापोखर विधानसभा क्षेत्र कहलाता था, जो वर्तमान में झरिया विधानसभा क्षेत्र का एक अहम इलाका है। साल 1962 में जोरापोखर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के रामनारायण शर्मा विधायक बने थे। उन्होंने सीपीआइ के टिकट से चुनाव लड़े झारखंड पुरोधा बिनोद बिहारी महतो को हराया था।
वहीं झारखंड बनने के बाद साल 2005, 2009 और 2014 के चुनाव में यहां से भाजपा को जीत मिली थी। भाजपा का इस सीट पर प्रभाव यहां के प्रभावशाली मजदूर नेता सूर्यदेव सिंह के परिवार की बदौलत रहा है। 1977 से इस परिवार का झरिया सीट पर प्रभुत्व रहा है। सूर्यदेव सिंह झरिया से 1977, 1980, 1985 और 1990 में विधानसभा चुनाव जीते थे। 1991 में सूर्यदेव सिंह की मौत हो गयी। 2000 में सूर्यदेव सिंह के छोटे अनुज बच्चा सिंह भी चुनाव जीते थे। उस समय सिंह मैंशन एकजुट था। इसके बाद 2005 और 2009 में सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती देवी विधायक बनीं। 2014 में कुंती देवी ने यह सीट अपने पुत्र संजीव सिंह के लिए छोड़ दी और संजीव यहां से विधायक बने। जबकि, साल 2019 के चुनाव में 50 साल बाद झरिया सीट पर कांग्रेस ने जीत हासिल की। राजा शिव प्रसाद के बाद साल 2019 में जाकर पूर्णिमा सिंह के रूप में कांग्रेस को झरिया से विधायक मिला। इस दफा जीत दर्ज करनेवाली पूर्णिमा सिंह के पति नीरज सिंह 2014 के चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के तौर चुनाव लड़े और दूसरे नंबर पर रहे थे। यानी साल 2014 में सूर्यदेव सिंह कुनबे को ही झरिया के लोगों ने पसंद किया। पूर्णिमा नीरज सिंह सूर्यदेव सिंह के अनुज राजन सिंह की पुत्रवधू हैं। पूर्णिमा नीरज सिंह का मुकाबला सूर्यदेव सिंह की पुत्रवधू और पूर्व विधायक संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह के साथ थी। संजीव सिंह विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह के पति, कांग्रेस नेता नीरज सिंह की हत्या के आरोप में जेल में बंद हैं। भाजपा ने साल 2019 में संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को झरिया से मैदान में उतारा, लेकिन नीरज सिंह की हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण रागिनी 10 हजार वोट से हार गयीं। साल 2024 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर एक ही कुनबे के दो परिवार की क्षत्राणी पूर्णिमा और रागिनी एक दूसरे के खिलाफ चुनावी दंगल में शिरकत करेंगी। पार्टी जो भी हो, लेकिन झरिया का चुनावी रण इन्हीं दोनों क्षत्राणियों के मुकाबले का गवाह बनेगा।
रागिनी ने पांच साल में अपने आपको स्थापित किया है
झरिया विधानसभा क्षेत्र में पूर्व विधायक सूर्यदेव सिंह की विरासत की बागडोर संभाल रहीं रागिनी सिंह ने पिछले पांच सालों में साबित कर दिया है कि वह ही सिंह मेंशन की उत्तराधिकारी हैं। उन्होंने कठिन रास्ते, कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए झरिया के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों, कोयला मजदूरों के साथ रिश्ते मजबूत बनाया है। उसकी तारीफ पिछले एक साल से चर्चा में है। भाजपा प्रदेश कार्यसमिति सदस्य और पूर्व झरिया विधायक संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह की बात करें तो यह उन महिलाओं के लिए भी प्रेरणा स्रोत हैं, जो कठिन परिस्थितियों से भाग खड़ी होती हैं। रागिनी सिंह सूर्यदेव सिंह के सिंह मेंशन की लाड़ली बहू में शुमार थीं, लेकिन, कालचक्र को शायद कुछ और ही मंजूर था। रागिनी सिंह के जीवन में परिस्थितियों ने ऐसा खेल रचा कि रागिनी घरेलू महिला से राजनीतिक पीच तक पहुंच गयीं। विधायक रहते पति संजीव सिंह जेल में, साल 2019 चुनाव हारी, देवर से अनबन की खबरें, पारिवारिक कलह, विरासत का मजदूर संगठन जनता मजदूर संघ छीन गया, लेकिन रागिनी सिंह के हौसले पस्त नहीं हुए। साल 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक पीच पर बैटिंग को उतरी रागिनी सिंह चुनाव तो हार गयीं, लेकिन, उन्होंने अपने और पराये के फर्क को तलाशने का कार्य किया। जनता श्रमिक संघ नामक मजदूर संगठन खड़ा किया। पिछले चार साल से झरिया की जनता के बीच, मजदूरों के बीच पैठ बनायी। साथ ही भाजपा संगठन को मजबूत करने, संगठन के लिए सदैव तत्पर रहते हुए भाजपा संगठन में भी खुद की पहचान बनायी। झरिया क्षेत्र के पुराने जानकारों का कहना है कि पूर्व विधायक सूर्यदेव सिंह के बाद रागिनी सिंह सिंह मेंशन की पहली प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने झरिया की जनता के प्रति लगाव ही नहीं दिखाया है, बल्कि सुख दुख में खड़ा होकर साबित किया कि वह सच्ची हितैषी हैं। रागिनी सिंह के प्रति झरिया की जनता का उमड़ता प्यार कांग्रेस की सीटिंग विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह के लिए खतरे की घंटी है। बीते लोकसभा चुनाव में बाहरी-भीतरी की आंच के वाबजूद भाजपा को 96 हजार मत मिले थे, जो कांग्रेस से 31 हजार वोट ज्यादा थे।
झरिया का जातिगत समीकरण
झरिया विधानसभा शहरी विधानसभा सीट है। झरिया विस में ग्रामीण मतदाताओं की संख्या जीरो है। वहीं शहरी मतदाताओं की संख्या लगभग 302,223 है। झरिया विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के मतदाताओं की संख्या लगभग 76,462 है, जो कुल मतदाताओं का लगभग 25.3% है। वहीं झरिया विधानसभा में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या दूसरे नंबर पर है, जो लगभग 62,560 है। जबकि, झरिया विधानसभा में अनुसूचित जाति मतदाताओं की संख्या लगभग 11,575 है, जो की कुल मतदाताओं के लगभग 3.83% है। झरिया विधानसभा सीट का जातिगत या उपनाम विश्लेषण देखें तो मुस्लिम यहां कुल मतदाताओं के 21 प्रतिशत यानी लगभग 63 हजार हैं, तो वहीं सिंह लगभग 28 हजार यानी 9.1 प्रतिशत हैं, जो दूसरे सबसे बड़े मतदाता हैं। पासवान यहां 4.2 फीसदी यानी लगभग 13 हजार, यादव 3.5 फीसदी लगभग 11 हजार और महतो 3.2 लगभग 10 हजार हैं। इसके अलावा झरिया में भुइयां और प्रसाद भी दस-दस हजार हैं। वहीं कुमार, बाउरी, शर्मा और गुप्ता 2-2 फीसदी, जबकि, पांडे, ठाकुर, दास, रवानी, वर्मा, केशरी, रे, रजक, मंडल, विश्वकर्मा, हादी, पंडित, चौधरी, मिश्रा आदि लगभग 40-45 हजार मतदाता हैं। झरिया विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम जहां कांग्रेस के कोर वोटर हैं, वहीं सिंह दो खेमे में बंटे हुए हैं। वहीं कुमार, बाउरी, शर्मा और गुप्ता 2-2 फीसदी, जबकि, पांडे, ठाकुर, दास, रवानी, वर्मा, केशरी, रे, रजक, मंडल, विश्वकर्मा, हादी, पंडित, चौधरी, मिश्रा आदि लगभग 40-45 हजार मतदाता भाजपा के कोर वोटर माने जाते हैं। जबकि, भुइयां, प्रसाद, यादव, पासवान के वोट बंटे हुए हैं। हालांकि, साल 1977 से साल 1992 तक ये वोटर सिंह मेंशन के कोर वोटर माने जाते थे। अब इन्हीं के कुनवे में बंट गये हैं।
पिछले सात चुनावों पर नजर
बीते सात प्रमुख चुनावों की बात करें तो झरिया के मतदाताओं ने छह बार भाजपा को, तो एक बार कांग्रेस को आगे रखा है। साल 2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पूर्णिमा नीरज सिंह को 50.3 फीसदी, जबकि भाजपा की रागिनी सिंह को 42.7 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 61.94 तथा कांग्रेस को 30.64 प्रतिशत मत मिले थे। साल 2019 विधानसभा चुनाव में लोकसभा के मुकाबले भाजपा का वोट प्रतिशत 19 प्रतिशत घट गया। वहीं साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में बंपर मत पड़े हैं। झरिया विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के विधायक रहने के बाद भी वहां से अनुपमा को लीड नहीं मिली। इस सीट से भी भाजपा के ढुल्लू महतो ने लीड ली। उन्हें यहां से 96,028 और अनुपमा सिंह को 58,870 वोट मिले। कहा जा रहा है कि झरिया में भाजपा की 30 हजार से अधिक मतों की बढ़त रागिनी सिंह की जमीनी स्तर पर झरिया की जनता से जुड़ाव की बदौलत मिली। यह पूर्णिमा सिंह की दरकती जमीन का भी परिचायक है।
कांग्रेस विधायक पूर्णिमा को लगी नजर:
झारखंड राज्य की 81 विधानसभा सीटों में झरिया विधानसभा सीट एक ऐसा सीट हैं, जहां की राजनीति एक परिवार के इर्दगिर्द घूमती है। झरिया की जनता ने पिछले पांच दशक से एक परिवार यानी विधायक जी के परिवार को अपना परिवार समझा और उन्हें ही अपना प्रतिनिधि चुना। पूर्णिमा नीरज सिंह भी इसी कुनवे का हिस्सा हैं।
साल 1977 के बाद 1991 और 95 ऐसा मौका रहा, जब झरिया की जनता ने पूर्व विधायक सूर्यदेव सिंह के कुनवे से अलग किसी अन्य को झरिया का विधायक चुना। संयुक्त बिहार के समय साल 1991 में सूर्यदेव सिंह के निधन के बाद हुए उपचुनाव में राजद के टिकट से आबो देवी ने चुनाव जीता और झरिया विधायक बनीं। आबो देवी ने सूर्यदेव सिंह के अनुज बच्चा सिंह को हराया। यह सिलसिला साल 1995 में भी जारी रहा। लेकिन, साल 2000 में झारखंड बनने के बाद सूर्यदेव सिंह के कुनवे ने सीट वापस जीत ली। दो बार हारने के बाद तीसरी बार साल 2000 के विधानसभा चुनाव में बच्चा सिंह विधायक बने और झारखंड सरकार में मंत्री भी बने। साल 2000 के विधानसभा चुनाव में सूर्यदेव सिंह के बड़े बेटे राजीव रंजन सिंह ने कड़ी मेहनत की थी और अपने चाचा बच्चा सिंह को विधायक बनाया। बिडंबना देखिए साल 2014 और 2019 के चुनाव में वही बच्चा सिंह ने अपने अग्रज सूर्यदेव सिंह परिवार के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरी पूर्णिमा सिंह का समर्थन किया और यहीं से सिंह मेंशन और रघुकुल के बीच की खाई गहरी होती गयी। कोयलांचल की सबसे चर्चित सीटों में गिनी जाने वाली झरिया विधानसभा सीट पर सूर्यदेव सिंह के परिवार के सदस्यों के बीच ही सियासी घमासान शुरू हो गया। साल 2014 के चुनाव में इस सीट से बीजेपी के टिकट पर सूर्यदेव सिंह के पुत्र संजीव सिंह और कांग्रेस के टिकट पर उनके भतीजे नीरज सिंह ने चुनाव लड़ा और चुनावी बाजी संजीव के हाथ लगी थी।
इसके बाद साल 2017 में नीरज सिंह की हत्या हो गयी, जिसका आरोप संजीव सिंह पर लगा और वह फिलहाल जेल में हैं। साल 2019 में बीजेपी ने संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को उतारा, जिनके मुकाबले कांग्रेस ने नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह को उतार कर एक बार फिर यहां की सियासी जंग को सिंह परिवार में ही समेट दिया। झरिया की जनता ने नीरज सिंह की हत्या का आक्रोश निकालते हुए पूर्णिमा नीरज सिंह को विधायक बना दिया।
पूर्णिमा नीरज सिंह एक शिक्षित और समझदार राजनेता के तौर पर उभरीं। इनके तेवर, सोच और विकास के लिए प्रयास की सराहना होने लगी, दो साल बीतते-बीतते इनकी खुद की लोकप्रियता का ग्राफ तो चढ़ा, लेकिन झरिया की जमीन खितकती गयी। पूर्णिमा सिंह ने झरिया क्षेत्र में विकास को लेकर जम कर प्रयास किया, लेकिन परिवार के एक सदस्य के कारनामे के कारण उनकी छवि धूमिल होने लगी। बता दें कि 2019 विधानसभा चुनाव में उस सदस्य को चाणक्य की संज्ञा मिली, लेकिन उसी सदस्य ने पूर्णिमा की छवि को धूमिल होने का कारण बना। कहा जाता है कि उस सदस्य की वर्चस्व, दबंगई वाली छवि झरिया क्षेत्र के आम और खास दोनों को नागवार गुजर रही है। एक और कारण जानकारों का यह भी कहना है कि पूर्व मंत्री बच्चा सिंह का निधन होने से मजदूर यूनियन की बागडोर हर्ष के हाथ है, जिससे संगठन पर असर पड़ेगा। लोगों का कहना है कि हर्ष सिंह की नीति, नीयत और कार्यशैली जुदा है। जिससे पूर्णिमा सिंह की साख को बट्टा लगा है। ‘आपका अधिकार, आपकी सरकार, आपके द्वार’ कार्यक्रम के दौरान झरिया के चासनाला में एक फरियादी की, झरिया की विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह के बाडीगार्ड द्वारा पिटाई का मामला तूल पकड़ लिया था, इससे भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। वहीं पूर्णिमा सिंह के खिलाफ धनबाद कांग्रेस के पूर्व जिलाध्यक्ष समेत दर्जनों वरीय कांग्रेसी रहे हैं।
हालांकि, झरिया के लोग यह भी मानते हैं कि झरिया के विकास और यहां के लोगों के प्रति विधायक पूर्णिमा का जज्बा हमेशा सकारात्मक रहा है। पूर्णिमा ने झरिया की मूलभूत समस्याओं, बिजली; पानी की किल्लत समेत क्षेत्र के विकास के लिए कामकाज किये हैं।
सिंह मेंशन के अलावा झरिया ने अन्य को है नकारा:
उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के गोन्हिया छपरा से साल 1960 में रोजी-रोटी की तलाश में सूर्यदेव सिंह धनबाद पहुंचे थे। यहां छोटे-मोटे काम के दौरान एक दिन उन्होंने अखाड़े में पंजाब के किसी नामी पहलवान को कुछ मिनटों में ही चित कर दिया। इसके बाद कोयलांचल में उनका नाम चमकने लगा। देखते ही देखते वह मजदूरों के नेता भी बन गये। इसके बाद 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर झरिया सीट से विधानभा चुनाव लड़ा और उस वक्त के बड़े श्रमिक नेता एसके राय को हरा कर विधायक बनने में कामयाब रहे। इसके बाद से लगातार वह जीतते रहे। साल 1991 में उनका निधन हो गया था। इनके निधन के बाद आरजेडी के टिकट पर आबो देवी उप चुनाव में जींती। इस जीत को सहानुभूति जीत के तौर पर देखा जाता है। कहा जाता है कि झरिया की जनता ने राजू यादव की हत्या होने से सहानुभूति वोट आबो देवी को दिया था और झरिया में सूर्यदेव सिंह की राजनीतिक विरासत संभाल रहे उनके छोटे भाई बच्चा सिंह हार गये। इसके बाद फरवरी 2000 में बच्चा सिंह ने झरिया विधानसभा सीट से चुनाव जीता और बाबूलाल मरांडी की सरकार में नगर विकास मंत्री बने। इसके बाद परिवार में दरार पड़ी तो सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह ने विरासत को संभाला। कुंती देवी 2005 और 2009 में विधायक बनीं। इसके बाद 2014 में सूर्यदेव सिंह के बेटे संजीव सिंह झरिया के विधायक बने। साल 2019 में सूर्यदेव सिंह की बहू और पूर्व विधायक संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार बनाया था, वहीं कांग्रेस ने सूर्यदेव सिंह के छोटे भाई राजनारायण सिंह की बहू और पूर्व डिप्टी मेयर नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह को चुनाव मैदान में उतारा था। कांग्रेस उम्मीदवार पूर्णिमा ने बीजेपी उम्मीदवार रागिनी सिंह को हरा कर चुनाव जीत लीं। इस जीत को नीरज सिंह की शहादत की जीत कही गयी।
आकड़े पर गौर करें तो साल 2019 में सिंह मेंशन परिवार के अलावा जेवीएमपी के टिकट से योगेंद्र यादव खड़े हुए थे, लेकिन उन्हें जनता ने तीन हजार वोट नहीं दिये। साल 2014 में मासस के मो रुस्तम अंसारी को 19 हजार तो योगेंद्र यादव को 9 हजार वोट मिले थे। साल 2009 में आबो देवी को 9 हजार तो सीपीएम को चार हजार वोट मिले थे। झरिया सीट से कोयला किंग के नाम से विख्यात सुरेश सिंह धन बल के बावजूद सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती देवी से साल 2005 और 2009 में हार गये, जबकि, साल 2005 में भाजपा धनबाद की सभी छह सीटों में केवल एक झरिया सीट जीत पायी थी। एक कहावत यहां शान से कही जाती है कि इसकी ना उसकी झरिया केवल सिंह मेंशन की…