रांची। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यसभा सांसद ‘दिशोम गुरू’ शिबू सोरेन का निधन नई दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल में इलाज के दौरान हो गया। वे लंबे समय से बीमार थे। गुरूजी ने 81 वर्ष की आयु में अंतिम सांसें ली।झारखंड के मुख्यमंत्री और शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरन ने सोमवार को उनकी मृत्यु की जानकारी दी।

देशभर में ‘दिशोम गुरु’ और ‘गुरुजी’ के नाम से पहचान बनाने वाले शिबू सोरेन एक संघर्षशील और जुझारू सख्शियत थे। शिबू सोरेन का जन्म रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में एकीकृत बिहार में 11 जनवरी 1944 को हुआ था। वे संथाल जनजाति से थे। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रामगढ़ जिले में पूरी की। स्कूली शिक्षा के दौरान उनके पिता की हत्या साहूकारों द्वारा करवा दी गयी थी।

शिबू सोरेन की पत्नी का नाम रूपी सोरेन है। उनके तीन पुत्र दुर्गा सोरेन, हेमंत सोरेन और बसंत सोरेन और एक पुत्री अंजलि सोरेन हैं। उनके मंझले पुत्र हेमंत सोरेन वर्तमान में झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। गुरूजी के बड़े बेटे दुर्गा सोरेन वर्ष 1995 से 2005 तक जामा विधानसभा क्षेत्र से विधायक थे। दिवंगत दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन भी जामा से पूर्व विधायक हैं, जो अब भारतीय जनता पार्टी में हैं।

शिबू सोरेन ने 18 वर्ष की आयु में संथाल नवयुवक संघ का गठन किया। वर्ष 1972 में बंगाली मार्क्सिस्ट ट्रेड यूनियन के नेता ए.के. रॉय, कुर्मी-महतो नेता बिनोद बिहारी महतो और संथाल नेता शिबू सोरेन ने मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो)का गठन किया। झारखंड मुक्ति मोर्चा का महासचिव शिबू सोरेन को बनाया गया। झामुमो ने अलग-थलग कर दी गई आदिवासी जमीन को पुनः प्राप्त करने के लिए आंदोलन किया। गुरूजी ने जमीनों पर बोई गयी फसलों की जबरन कटाई शुरू कर दी।

शिबू सोरेन जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ संक्षिप्त न्याय देने के लिए जाने जाते थे। कभी-कभी वे स्वयं की अदालतें लगाकर फैसले देते थे। 23 जनवरी 1975 को उन्होंने कथित तौर पर बाहरी और गैर-आदिवासी लोगों को भगाने के लिए एक अभियान चलाया। इस अभियान के दौरान 11 लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद शिबू सोरेन सहित अन्य आंदोलनकारियों पर विभिन्न अपराधों का आरोप लगाया गया।

शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे। पहली बार वर्ष 2005 में 10 दिनों के लिए (दो मार्च से 12 मार्च तक), फिर वर्ष 2008 से 2009 तक और फिर उसके बाद वर्ष 2009 से 2010 तक उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला। वे लगातार चार दशक से भी ज्यादा समय तक झामुमो के अध्यक्ष रहे। इस वर्ष यानी 2025 में खेलगांव में हुए झामुमो के 13वें महाधिवेशन में उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद अपने पुत्र हेमंत सोरेन को दे दिया और पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष बन गए।

शिबू सोरेन ने वर्ष 1980 से 1984, वर्ष 1989 से 1998 और फिर वर्ष 2002 से 2019 तक दुमका लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने तीन बार वर्ष 2004 में, 2004 से 2005 तक और 2006 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में कोयला मंत्री के रूप में भी कार्य किया। हालांकि, उन्हें अपने निजी सचिव शशि नाथ झा की वर्ष 1994 में हुई हत्या में शामिल होने के आरोप के बाद दिल्ली की एक जिला अदालत ने दोषी ठहराया।

गुरूजी वर्ष 1977 में अपना पहला लोकसभा चुनाव हार गए थे। वे पहली बार वर्ष 1980 में दुमका से लोकसभा के लिए चुने गए। इसके बाद वे वर्ष 1989, 1991 और 1996 में भी लोकसभा के लिए चुने गए। वर्ष 2002 में वे राज्यसभा के लिए चुने गए। उन्होंने उसी साल दुमका लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीत हासिल की और राज्यसभा सीट से इस्तीफा दे दिया। वे वर्ष 2004 में फिर से लोकसभा सदस्य के रूप में चुने गए।

शिबू सोरेन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में केंद्रीय कोयला मंत्री बने, लेकिन तीस साल पुराने चिरुडीह मामले में उनके नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बाद उन्हें इस्तीफा देने के लिए कहा गया। वे 69 आरोपियों में से एक मुख्य आरोपी थे, जिन पर 23 जनवरी 1975 को आदिवासियों और मुसलमानों के बीच झड़प में 10 लोगों (9 मुस्लिम समुदाय के लोगों सहित) की हत्या का आरोप था।

वारंट जारी होने के बाद गुरूजी शुरू में भूमिगत हो गए। उन्होंने 24 जुलाई 2004 को मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। एक महीने से अधिक समय न्यायिक हिरासत में बिताने के बाद उन्हें जमानत मिली और आठ सितंबर को जमानत पर रिहा होने के बाद, उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में फिर से शामिल किया गया और 27 नवंबर 2004 को कोयला मंत्रालय वापस दे दिया गया।

झारखंड में फरवरी-मार्च-2005 में विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस-झामुमो गठबंधन के हिस्से के तौर पर दो मार्च 2005 को उन्हें झारखंड के राज्यपाल की ओर से सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। लेकिन गुरूजी विधानसभा में विश्वास मत प्राप्त करने में विफल रहे और उन्होंने महज नौ दिनों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद 11 मार्च को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।

28 नवंबर 2006 को शिबू सोरेन को उनके पूर्व निजी सचिव शशि नाथ झा के अपहरण और हत्या से जुड़े 12 साल पुराने मामले में दोषी पाया गया। यह दावा किया गया था कि शशि नाथ झा को 22 मई 1994 को दिल्ली के धौलाकुआं इलाके से अगवा किया गया था और रांची के पास पिस्का नगडी ले जाकर उनकी हत्या कर दी गई थी।

सीबीआई के आरोपपत्र में कहा गया कि जुलाई 1993 के अविश्वास प्रस्ताव के दौरान पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए कांग्रेस और झामुमो के बीच कथित सौदे के बारे में झा को जानकारी थी। आरोपपत्र में यह भी दावा किया गया था कि झा को अवैध लेन-देन के बारे में पता था और उन्होंने शिबू सोरेन से इस राशि में से एक बड़ा हिस्सा मांगा था।

अदालती फैसले के बाद शिबू सोरेन को केंद्रीय कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा इस्तीफा देना पड़ा। यह भारत सरकार के किसी केंद्रीय मंत्री द्वारा हत्या में संलिप्तता का दोषी पाए जाने का पहला मामला है। पांच दिसंबर 2006 को शिबू सोरेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। दिल्ली की एक अदालत ने उनकी जमानत याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि अपीलकर्ता (शिबू सोरेन) को नवंबर 2006 में ही विस्तृत सुनवाई के बाद दोषी ठहराया गया और दिसंबर 2006 में सजा सुनाई गई। पीठ ने यह भी कहा था कि झारखंड में सामूहिक हत्या के मामले सहित कई अन्य मामलों में भी उन पर मुकदमा चल रहा है। 25 जून 2007 को शिबू सोरेन को झारखंड के दुमका स्थित जेल ले जाया जा रहा था, तभी उनके काफिले पर बम से हमला हुआ, लेकिन उसमें कोई हताहत नहीं हुआ।

हालांकि, दिल्ली उच्च न्यायालय ने 23 अगस्त 2007 को जिला न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया और शिबू सोरेन को यह कहते हुए बरी कर दिया कि ट्रायल कोर्ट का विश्लेषण विश्वसनीय और टिकाऊ नहीं है। तीस हजारी कोर्ट की ओर से दोषी ठहराए गए पांच लोगों को मुख्य रूप से झारखंड में मिले शव की पोस्टमार्टम रिपोर्ट, खोपड़ी के सुपरइम्पोजिशन टेस्ट और खोपड़ी की चोट की रिपोर्ट और दिए गए फोरेंसिक साक्ष्य के आधार पर आपराधिक साजिश, अपहरण और हत्या का दोषी ठहराया गया था। यह चश्मदीद गवाहों के बयानों और कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के अतिरिक्त था।

बहरहाल, इन सबके बावजूद शिबू सोरेन ने झारखंड की राजनीति में गहरी छाप छोड़ी। उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला और आदिवासी समुदाय के लिए ऐतिहासिक संघर्ष किए। उनका जाना झारखंड की राजनीति में एक युग के अंत जैसा है। शिबू सोरेन एक जटिल लेकिन प्रभावशाली राजनीतिक शख्सियत रहे। उनके योगदान और विवाद दोनों ही आने वाले वर्षों तक झारखंड और भारतीय राजनीति में याद किए जाएंगे।

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