रांची स्थित राज्य के सबसे बड़े अस्पताल, यानी रिम्स एक बार फिर सुर्खियों में है। इस संस्थान ने अच्छे काम के लिए जितनी सुर्खियां बटोरी हैं, उससे कई गुना अधिक इसकी चर्चा विवादों की वजह से होती रही है। इस बार भी विवादों के कारण राज्य के इस प्रतिष्ठित संस्थान की चर्चा हो रही है। वास्तव में इस संस्थान की सारी व्यवस्थाएं बेपटरी हो चुकी हैं और यहां मरीजों का इलाज कम और विवाद अधिक होने लगा है। बात-बात पर हंगामा, मारपीट, आंदोलन और हड़ताल यहां की व्यवस्था बन चुकी है। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा अस्पताल होगा, जहां के अधिकारी, डॉक्टर या कर्मचारी हर दूसरे दिन या तो आंदोलन की चेतावनी देते हैं या फिर सीधे हड़ताल पर चले जाते हैं। झारखंड बनने के बाद जब राजेंद्र मेडिकल कॉलेज अस्पताल का कद बढ़ा कर आयुर्विज्ञान संस्थान किया गया था, तब लोगों को लगा था कि यह संस्थान उनके स्वास्थ्य की देखभाल के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। अनुशासन और व्यवस्था नामक चिड़िया इस संस्थान के दरवाजे पर आकर दम तोड़ चुकी है। रिम्स का हर कर्मी, चाहे बड़ा हो या छोटा, अपनी ही व्यवस्था चलाना चाहता है। इसलिए यह संस्थान हमेशा विवादों में रहता है। राज्य के इस सबसे बड़े अस्पताल पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

बुधवार दो सितंबर को जब राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में वहां के अतिरिक्त निदेशक के खिलाफ रेजीडेंट डॉक्टरों ने आंदोलन की धमकी दी, आठ साल पहले इस संस्थान से रिटायर हुए बालेश्वर राम ने सामान्य बातचीत में कहा, रिम्स की इस हालत पर दुख होता है। यह अस्पताल अब मरीजों के इलाज का केंद्र नहीं रह गया है, बल्कि यह राजनीति का अड्डा बन गया है। यहां मरीजों का इलाज कम, विवाद अधिक होता है। इस संस्थान में न कोई अनुशासन है और न ही कोई व्यवस्था। सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। बालेश्वर राम का दर्द यह था कि रिम्स में बात-बात पर आंदोलन, हड़ताल और अव्यवस्था को प्रश्रय दिया जाता है। कोई इस हालत को सुधारने के बारे में नहीं सोचता।
बालेश्वर राम ने बताया कि वह 1960 का वर्ष था, जब एकीकृत बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी रांची में एक मेडिकल कॉलेज स्थापित करने का फैसला किया गश्स और सदर अस्पताल में इसकी शुरुआत हुई। उसके बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद के नाम पर स्थापित इस मेडिकल कॉलेज का अपना भवन बनाया गया। वर्ष 1964 में जिस समय यह भवन बन कर तैयार हुआ, इसकी गिनती एशिया के सबसे शानदार भवनों में होती थी और देश का यह पहला ऐसा मेडिकल कॉलेज अस्पताल था, जहां मेडिकल की पढ़ाई और मरीजों के इलाज की व्यवस्था एक ही भवन में होती थी। उस समय आरएमसीएच की गिनती न केवल बिहार में, बल्कि पूरे देश में एक अच्छे संस्थान के रूप में होती थी। कुशल डॉक्टर और चिकित्साकर्मी, प्रतिभाशाली विद्यार्थी और कर्तव्यनिष्ठ कर्मियों के कारण यहां आनेवाले मरीज खुद को पूरी तरह निरापद मानते थे। लेकिन स्थापना के 60 साल बाद आज इस संस्थान की स्थिति ऐसी हो गयी है कि यहां जल्दी कोई आना नहीं चाहता है। झारखंड स्थापना की पहली वर्षगांठ पर तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आरएमसीएच को रिम्स का दर्जा देने का एलान किया और उसके बाद से इस संस्थान का पतन शुरू हो गया।
आज राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान (रिम्स) की स्थिति यह हो गयी है कि यहां आनेवाले मरीजों और उनके परिजनों को हर समय यह डर सताता रहता है कि ना जाने कब यहां हड़ताल हो जाये। कोरोना संकट के इस दौर में, जब राज्य की पूरी स्वास्थ्य मशीनरी राज्य की सवा तीन करोड़ की आबादी को संक्रमण से बचाने की जद्दोजहद में लगी हुई है, रिम्स में आंदोलन की तैयारी हो रही है। डेढ़ हजार बिस्तरों की क्षमता वाले इस अस्पताल को राज्य का सबसे बड़ा कोविड सेंटर बनाया गया है, लेकिन एक अधिकारी के एक शब्द के कारण संस्थान की पूरी विश्वसनीयता को ताक पर रख दिया गया है।
यह रवैया जायज नहीं कहा जा सकता है। यह सही है कि किसी भी अधिकारी या सामान्य व्यक्ति को यह अधिकार कतई नहीं है कि वह डॉक्टरों को अपशब्द कहे, लेकिन क्या जिम्मेदारी केवल नौकरशाही और आम लोगों की ही है। रिम्स के डॉक्टरों, चिकित्साकर्मियों और दूसरे कर्मियों की कोई जवाबदेही नहीं है। रिम्स में तो मरीजों के परिजनों से मारपीट पर भी हड़ताल होती है। इतना ही नहीं, पेट्रोल पंप पर हुई झड़प का खामियाजा भी मरीजों को भुगतना पड़ता है। रिम्स के चेहरे पर पिछले 20 साल में इतने दाग लग चुके हैं कि लोग अब इसके नाम से ही घबड़ाने लगते हैं। रिम्स के डॉक्टरों और चिकित्साकर्मियों की क्षमता और कुशलता पर किसी को संदेह नहीं है, लेकिन उनका व्यवहार और उनके तेवर से आम लोगों को डर लगता है। चाहे निदेशक की नियुक्ति का सवाल हो या व्यवस्था ठीक करने के लिए उठाया जानेवाला कोई कदम, रिम्स के भीतर के लोग हमेशा आंदोलन और हड़ताल के लिए तैयार रहते हैं। इस संस्थान में जितनी हड़ताल पिछले 20 साल के दौरान हुई, दुनिया के किसी स्वास्थ्य संस्थान में नहीं हुई।
यह वाकई दुखद स्थिति है। रिम्स से पूरे झारखंड की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। यह संस्थान राज्य की सवा तीन करोड़ की आबादी के स्वास्थ्य की देखभाल का केंद्र है। गरीबों और बिना पैसेवाले लोगों को यहां आकर सफेद कोट में लिपटे धरती के भगवान के दर्शन होते हैं और सफेद यूनिफॉर्म में करुणा की प्रतिमूर्ति नर्सों की देखभाल की जरूरत होती है। इस संस्थान के भरोसे को बनाये रखने की जिम्मेवारी यहां के डॉक्टरों, चिकित्साकर्मियों और विद्यार्थियों की है। संस्थान को बनाने या बिगाड़ने का काम वहां के कर्मी ही करते हैं। रिम्स के लोगों को यह बात समझनी होगी। यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह यकीनन इस राज्य के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा, क्योंकि राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था रिम्स के मानकों पर ही तय होती है। इसलिए रिम्स को एक अनुशासित, सुव्यवस्थित और शानदार संस्थान बनाने का संकल्प लेने का समय आ गया है, ताकि इसके पुराने दिन लौटाये जा सकें और लोग एक बार फिर इलाज के लिए पहली प्राथमिकता के रूप में इस संस्थान का चयन करें।

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