कोरोना महामारी से तबाही की कगार पर पहुंच चुकी भारत की अर्थव्यवस्था से झारखंड भी अछूता नहीं है। आर्थिक गतिविधियां बंद होने के कारण राज्य में विकास योजनाएं लंबे समय से ठप पड़ी हुई हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे पर गंभीर रुख अख्तियार किया है और अपने मंत्रियों के साथ इस पर मंथन किया है। यह एक सराहनीय पहल है और शीर्ष स्तर पर विकास योजनाओं की गति तेज करने के मुद्दे पर विमर्श से नयी उम्मीद बंधी है। लेकिन इसके साथ ही हकीकत यह भी है कि झारखंड संसाधनों की भयानक कमी से जूझ रहा है। राज्य सरकार के पास अपनी आमदनी बढ़ाने का कोई सहज जरिया नजर नहीं आ रहा है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि विकास योजनाएं लागू कैसे की जायें और उनका अंतिम परिणाम क्या होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना काल में सामाजिक मोर्चे पर झारखंड सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन इसका राज्य के खजाने पर विपरीत असर पड़ा है, यह भी एक हकीकत है। ऐसे में राज्य सरकार के पास अपनी आमदनी बढ़ाने के उपायों पर विचार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इस विकल्प के तहत ऐसी छोटी योजनाएं तैयार की जा सकती हैं, जिनका दूरगामी लाभ हो और राज्य सरकार की आमदनी बढ़ सके। सीएम की पहल की पृष्ठभूमि में झारखंड के सामने चुनौतियों को रेखांकित करता आजाद सिपाही ब्यूरो का खास विश्लेषण।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पिछले नौ महीने के अपने कार्यकाल में पहली बार राज्य के विकास को लेकर गंभीर चिंता जतायी और अपने मंत्रियों के साथ इस मुद्दे पर गहन मंथन किया। यह बेहद संतोषजनक है कि राज्य के विकास का मुद्दा शीर्ष स्तर पर इतनी गंभीरता से लिया गया है। लेकिन कोरोना काल और लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था में आये ठहराव से निबटने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है। यह रास्ता झारखंड जैसे राज्यों के लिए बेहद कठिन होगा, क्योंकि यहां की अर्थव्यवस्था लंबी अवधि की आर्थिक गतिविधियों पर ही निर्भर है। खनिजों की रॉयल्टी और सेस के अलावा बड़े उद्योगों से होनेवाली आय पर अब राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इतना ही नहीं, छोटी-छोटी आर्थिक गतिविधियों पर लगनेवाले टैक्स के सीधे लाभ से भी राज्य वंचित हो गया है। ऐसे में झारखंड में विकास योजनाओं को धरातल पर कैसे उतारा जायेगा, यह सवाल सभी के मन में कौंध रहा है। स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी इस सवाल पर मंथन कर रहे होंगे।
तो फिर इस संकटपूर्ण स्थिति से उबरने का उपाय क्या हो सकता है। झारखंड की अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि राज्य को विकास का वैकल्पिक मॉडल तैयार करना होगा। यह एक ऐसा मॉडल होना चाहिए, जिसमें खर्च कम हो और उससे आमदनी का नियमित स्रोत पैदा हो सके। इसके लिए सबसे जरूरी है कि लोगों को उत्पादक कार्यों से जोड़ना। राज्य सरकार ने गरीबों को मुफ्त या अनुदानित दर पर अनाज देने का बड़ा फैसला किया है। यह सराहनीय भी है और राज्य की जरूरत भी। लेकिन इसके साथ ही लोगों से इस लाभ के बदले कुछ काम लेने की तैयारी करनी चाहिए। अमेरिका के चर्चित सामाजिक-राजनीतिक टीकाकार मैथ्यू आर्नल्ड ने अपने एक लेख में कहा है कि यदि किसी समाज को बर्बाद करना है, तो उसे मुफ्तखोरी की आदत लगा दो। यानी लोगों को मुफ्त में सब कुछ दे दिया जाये, तो उनकी काम करने की आदत धीरे-धीरे खत्म हो जायेगी और उनका समाज पंगु बन जायेगा। इस कथन को झारखंड को समझना होगा। गरीबों को रियायती दर पर या मुफ्त में अनाज देने की योजना तो अच्छी है, लेकिन इसके साथ ही उन लोगों को कोई न कोई काम में लगाना भी जरूरी है। लोगों को खाली जमीन को जोतने या उन पर पौधे लगाने के काम में लगाया जा सकता है। हेमंत सरकार ने ऐसी तीन योजनाएं शुरू की हैं। मुफ्त या रियायती अनाज देने के फैसले के साथ इन योजनाओं को जोड़ा जा सकता है। इसका सीधा परिणाम यह होगा कि लोगों को अनाज भी मिलता रहेगा और उनकी काम करने की आदत भी बनी रहेगी।
झारखंड के सामने दूसरा विकल्प छोटी-छोटी योजनाओं को तेजी से पूरा करने की हो सकती है। बड़ी योजनाओं में पैसा भी अधिक खर्च होता है और समय भी अधिक लगता है। इस पर सख्ती से रोक लगाने से समस्या कुछ हद तक खत्म हो सकती है। इनके बदले ऐसी छोटी-छोटी योजनाएं तैयार की जायें, जिन्हें कम समय में उत्पादकता से जोड़ा जा सकता है। इससे जहां लोगों को रोजगार मिलेगा, वहीं राज्य के खजाने पर बोझ भी कम होगा। साथ ही योजनाएं जितनी जल्दी पूरी होंगी, राज्य की आमदनी भी उतनी जल्दी बढ़ेगी। कहा जाता है कि यदि छोटी-छोटी योजनाओं पर काम लगातार चलता रहे, तो फिर कोई बड़ा काम भी छोटा लगने लगता है। इसलिए पहला ध्यान छोटे कामों पर लगाया जाना चाहिए।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि झारखंड का आगे का सफर बेहद कठिन है। हेमंत सरकार ने फिजूलखर्ची रोकने के लिए बेहद सख्त कदम उठाये हैं। इसके अलावा उसने अपने हक के लिए आवाज भी बुलंद की है। लेकिन यह भी हकीकत है कि झारखंड को अपना रास्ता खुद तय करना होगा। राज्य को अपने ही संसाधनों पर निर्भरता बढ़ानी होगी। कुटीर और लघु उद्योगों को जितना अधिक प्रोत्साहन मिलेगा, आर्थिक गतिविधियां उतनी ही तेज होंगी। लॉकडाउन के कारण रुकी पड़ी विकास की गाड़ी को दोबारा स्टार्ट करने के लिए अतिरिक्त ताकत और ईंधन की आवश्यकता है। मुख्यमंत्री ने इस जरूरत को पूरा करने की दिशा में ठोस कदम तो बढ़ाया है, लेकिन इसमें आम लोगों को भी मदद करनी होगी। जब तक ऐसा नहीं होगा, विकास की गाड़ी दोबारा स्टार्ट नहीं होगी।
इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में सबसे जरूरी आत्मविश्वास बनाये रखने और नये उत्साह से काम करने की जरूरत है। झारखंड के पास सब कुछ है और उसे जरूरत सिर्फ उन्हें पहचानने और उचित समय पर उनका इस्तेमाल करने की है। राज्य सरकार अपना काम कर रही है, लेकिन अब इसमें गंभीरता से जुटने की जरूरत है। ऐसा होने से ही झारखंड के विकास की गाड़ी दोबारा रफ्तार कड़ सकती है। और एक बार यह गाड़ी चल पड़ी, तो बड़े-बड़े सूरमा भी पीछे छूट सकते हैं।