भारत में राजनीति भी अजीब फंडा है। यहां कौन नेता किस कारण से कब किस दल को छोड़ेगा या कब किसमें शामिल हो जायेगा, इसकी भविष्यवाणी बेहद कठिन है। शायद इसलिए व्यक्तिगत आकांक्षाओं और अपना राजनीतिक उद्देश्य पूरा करने के लिए नेताओं का दलबदल करना सुर्खियों में नहीं आता। आम लोग भी इस खेल को समझने लगे हैं। इसके बावजूद कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिनका दल बदलना राजनीति के मैदान में कम से कम हलचल तो जरूर पैदा करता है, हालांकि इस बदलाव के कारण को वे नेता साफ-साफ बता नहीं पाते। आम तौर पर चुनावों से पहले दल बदलने का सिलसिला शुरू होता है और इसके पीछे का उद्देश्य केवल टिकट हासिल करना होता है। इसके अलावा होनेवाला दलबदल उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जहां तक झारखंड का सवाल है, तो यहां दलबदल कब और क्यों होता है, इस बारे में सटीक जानकारी नहीं है, लेकिन इतना तो माना ही जा सकता है कि दल बदलने का खेल निजी कारणों से भी होता है। करीब 14 महीने पहले जिस डॉ अजय कुमार ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया था, वही एक बार फिर कांग्रेस में शामिल हो गये हैं। उनकी वापसी को कांग्रेस के बड़े प्लान का हिस्सा माना जा रहा है। यह प्लान पार्टी के नये कलेवर में आने और झारखंड की राजनीति में नया ट्विस्ट पैदा करने का है। क्या है कांग्रेस का प्लान और इसका प्रदेश की राजनीति पर क्या असर होगा, इन सवालों को टटोलती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

झारखंड प्रदेश कांग्रेस के नवग्रहों से हार कर प्रदेश अध्यक्ष पद और पार्टी छोड़नेवाले डॉ अजय कुमार एक बार फिर कांग्रेस में शामिल हो गये हैं। उनकी वापसी को झारखंड कांग्रेस के नये गेम प्लान का हिस्सा माना जा रहा है, जिसके तहत पार्टी के पुराने कद्दावर नेताओं की घर वापसी करायी जानी है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की योजना झारखंड की राजनीति में नयी हलचल पैदा करने की है, जिसकी मदद से वह एक बार फिर राजनीति की मुख्य धारा में लौट सके।
डॉ अजय ने पिछले साल नौ अगस्त को कांग्रेस से इस्तीफा देते हुए राहुल गांधी को लंबा पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, एक गर्वित भारतीय, वीरता पदक पानेवाला सबसे कम उम्र का एक अधिकारी होने और जमशेदपुर से माफियाओं का उन्मूलन करने के बाद, मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि खराब से खराब अपराधी भी मेरे कुछ सहयोगियों से बेहतर हैं। अपने उस पत्र में डॉ अजय कुमार ने पार्टी के प्रदेश प्रभारी से लेकर प्रदेश के कई वरिष्ठ नेताओं के बारे में बहुत कुछ लिखा था। उन्होंने उन नौ नेताओं का नाम खास तौर पर लिया था, जिनके कारण उन्हें काम करने में मुश्किल आ रही थी।
अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर डॉ अजय कांग्रेस में वापस क्यों आये। क्या कांग्रेस के भीतर के वे तमाम मुद्दे खत्म हो गये हैं, जिनके कारण उन्होंने पार्टी छोड़ी थी। इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं, लेकिन झारखंड कांग्रेस के एक पुराने नेता के अनुसार, डॉ अजय के पार्टी छोड़ने का न कोई ठोस कारण था और न वापसी का कोई ठोस आधार। उस नेता ने साफ कहा कि कांग्रेस एक महासागर है और इससे बाहर जानेवालों या इसमें आनेवालों से पार्टी कभी प्रभावित नहीं होती।
लेकिन झारखंड कांग्रेस की हकीकत कुछ दूसरी ही कहानी कहती है। राज्य के दो दशक के राजनीतिक इतिहास में पार्टी पहली बार 16 विधानसभा सीटें जीतने में कामयाब हुई है। झामुमो के साथ मिल कर वह सरकार चला रही है। यह सब डॉ अजय के पार्टी छोड़ने के बाद हुआ। डॉ अजय की वापसी के बाद झारखंड की राजनीति में उनकी क्या भूमिका होगी, यह तय नहीं है, लेकिन एक बात साफ है कि पार्टी छोड़ते समय उन्होंने जिन नेताओं पर टिप्पणी की थी, वे इतनी आसानी से भूलनेवाले नहीं हैं। ऐसे में आशंका इस बात की भी है कि कहीं डॉ अजय की वापसी झारखंड कांग्रेस के लिए कोई संकटकालीन दरवाजा न खोल दे। हालांकि कांग्रेस प्रभारी आरपीएन सिंह यह स्पष्ट कर चुके हैं कि डॉ अजय की झारखंड की राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं होगी। उनका कार्यक्षेत्र दिल्ली होगा।
कांग्रेस के 135 साल के इतिहास पर नजर दौड़ाने से एक बात साफ होती है कि इस पार्टी ने बुरे से बुरे दौर को भी झेला है। पार्टी ने कई बार ऐसे समय में वापसी की है, जब इसे पूरी तरह खारिज माना जाता रहा। लेकिन राजनीति का वर्तमान दौर इतना अधिक आक्रामक हो गया है कि अब यहां पुराने तौर-तरीके उतने प्रभावी नहीं रह गये हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए खुद को मजबूत करने का एकमात्र विकल्प अपने पुराने नेताओं को दोबारा से इकट्ठा करना ही रह गया है। इस लिहाज से देखा जाये, तो डॉ अजय कुमार की वापसी एक सही फैसला लग सकता है। लेकिन उन नेताओं का क्या, जिन्होंने चुनावों से पहले पार्टी छोड़ दी थी। प्रदीप बलमुचू, सुखदेव भगत और मनोज यादव कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में शुमार रहे हैं। डॉ अजय की वापसी के बाद अब कयास लगाये जा रहे हैं कि इनकी वापसी भी देर-सबेर हो जायेगी। लेकिन इसका एक खतरा भी है और वह यह कि पार्टी कहीं पुराने स्वरूप में न आ जाये, जिसमें गुटबाजी और निजी आकांक्षाएं पार्टी पर भारी पड़ने लगी थीं। डॉ अजय ने पार्टी छोड़ते समय इसका विस्तार से जिक्र भी किया था। क्या पुराने कांग्रेसी पार्टी की वर्तमान व्यवस्था को स्वीकार करेंगे और पार्टी नेतृत्व उनसे इस बात की गारंटी लेने में सफल होगा कि पुरानी बातें दोहरायी नहीं जायेंगी।
हाल के दिनों में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेतृत्व ने नये किस्म की राजनीतिक समझ का मुजाहिरा किया है, लेकिन झारखंड में यह प्रयोग कितना सफल हो सकेगा, यह कहना बेहद मुश्किल है। झारखंड की परिस्थिति पूरी तरह अलग है और कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति भी। यहां न अशोक गहलोत या टीएन सिंहदेव सरीखे नेता हैं और न ही कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार चल रही है। गठबंधन की सहयोगी होने के नाते कांग्रेस पर संतुलन साधे रहने का अतिरिक्त दबाव है। ऐसे में पार्टी आलाकमान अपने पुराने नेताओं को एकत्र कर झारखंड की राजनीति में कितना ट्विस्ट ला पाता है, यह देखना अभी बाकी है।

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