गंभीरता से आकलन करने पर पता चलता है, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना किसे कहते हैं
20 सीटें कह रही हैं खुद अपनी गाथा, दिल लगाया किसी और से, ब्याह हो गया कहीं और
भाजपा ने शायद इसीलिए बदली है अपनी रणनीति, अब ज्यादा हमला कांग्रेस पर
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में आसन्न विधानसभा चुनाव के बीच जिस तरह के सियासी घटनाक्रम घट रहे हैं, उनसे यह तो साफ हो गया है कि यह चुनाव बेहद रोमांचक होने के साथ कई नये समीकरणों को आकार देगा। आम तौर पर चुनावी संभावनाओं का आकलन पिछले चुनाव परिणामों को ध्यान में रख कर किया जाता है, तो इस बार झारखंड में होनेवाला विधानसभा चुनाव भी अप्रत्याशित परिणामों की तरफ बढ़ता दिखाई दे रहा है। यदि 2019 और 2024 में हुए लोकसभा चुनावों के परिणामों का विश्लेषण किया जाये, तो साफ हो जाता है कि झारखंड के मतदाता बेहद सुलझे हुए हैं। लोकसभा चुनाव में वे देश को ध्यान में रख कर वोट करते हैं, तो विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दों पर। दो लोकसभा चुनाव और 2019 के विधानसभा चुनाव के परिणाम बताते हैं कि भाजपा-आजसू का गठबंधन अब भी झारखंड में अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे है। हालांकि 2019 के विधानसभा चुनाव में यह गठबंधन टूट गया था, इसलिए इसका नुकसान दोनों ही दलों को उठाना पड़ा था। करीब 20 ऐसी सीटें हैं, जो अपना हाल खुद बयां कर रही हैं। करना था लव मैरिज, हो गया अरेंज। यानी दिल लगाया किसी और से, ब्याह हो गया कहीं और। वहीं हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव के परिणाम से साफ हो जाता है कि झारखंड में भाजपा-आजसू की जोड़ी को मतदाताओं का समर्थन हासिल है, लेकिन झामुमो-कांग्रेस-राजद-माले का इंडी अलायंस भी पीछे नहीं है। उसकी ताकत, यानी आदिवासी और अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण रोकने का कोई तरीका फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। झारखंड में यह भी देखा जा रहा है कि साढ़े चार साल तक सरकार चलाने के बाद भी हेमंत सोरेन के खिलाफ खासकर आदिवासी मतदाताओं में एंटी इंकंबैंसी नहीं है। ऐसे में सबकी नजर घूम जाती है कुर्मी मतदाताओं की ओर। इस विधानसभा चुनाव में कर्मी मतदाता बड़ा फैक्टर बनेंगे, इसमें कोई दो राय नहीं है। इन तमाम समीकरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि झारखंड विधानसभा का चुनाव बेहद रोमांचक होने जा रहा है। आखिर कैसे 2019 के विधानसभा चुनाव की गलतियों में छिपा है, एनडीए की जीत का मंत्र, ऐसा क्या था 2019 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के परिणामों में और 2024 का लोकसभा चुनाव का परिणाम क्या संकेत दे रहा है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड 2024 के विधानसभा चुनाव की गणित अगर समझने की कोशिश की जाये, तो 2019 के लोकसभा चुनाव की तह में जाना होगा। बात 2019 के विधानसभा चुनाव के सात महीने पहले की है। मई महीने में जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आये थे, तो उस चुनाव में भाजपा ने 51 प्रतिशत वोट हासिल किया और उसने 63 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनायी थी। इसमें 35 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा की लीड 50 हजार से अधिक थी। यहां तक कि 16 विधानसभा क्षेत्रों में लीड का मार्जिन 90 हजार से ज्यादा थी। उस लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की 14 में से 11 लोकसभा सीटों पर अपना परचम बुलंद किया था। आजसू को भी एक सीट मिली थी और उसने वह सीट जीती भी। यानी एनडीए के खाते में कुल 12 सीटें थीं। लेकिन इस चुनाव परिणाम से तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास अतिआत्मविश्वास के शिकार हो गये। बस यही वो घड़ी थी, जिसने भाजपा की जड़ों को कमजोर करना शुरू किया। रघुवर दास को लगने लगा था कि उनकी वाणी से जो भी शब्द निकल रहे हैं, या जो भी फैसले वह ले रहे हैं, सब ईश्वरीय शक्ति का प्रताप है। जैसे-जैसे 2019 के विधानसभा चुनाव की तारीख नजदीक आ रही थी, रघुवर दास दनादन फैसले ले रहे थे। उनका ध्यान इस ओर बिल्कुल नहीं था कि कौन फैसला पार्टी पक्ष में है और किस फैसले का असर नकारात्मक पड़ रहा है। उस समय चंद अधिकारियों ने रघुवर दास के सामने एक ऐसा सीन प्रस्तुत कर दिया था, जिसके अलग वह कुछ देखने की कोशिश ही नहीं कर रहे थे। परिणाम हुआ कि रघुवर दास जमीनी सच्चाई से दूर होते चले गये। लोकसभा चुनाव में आये परिणाम को वह अपनी उपलब्धि मान बैठे और उसी को आधार बना कर उन्होंने भाजपा की ओर से नारा दे दिया- अबकी बार 65 पार। एक बार फिर झारखंड में डबल इंजन की सरकार। 65 पार के नारे के चक्कर में भाजपा से आजसू छिटक गया। उसी दौरान एक ऐसी घटना घटी, जिसका अनुमान रघुवर दास को भी नहीं था कि जिसे वह तिनका समझ रहे थे, वही उनके झारखंड के राजनीतिक कैरियर पर ब्रेक लगाने का कारण बनेगा। हुआ भी वही। रघुवर ने जैसे ही सरयू का टिकट काटा, सरयू में उफान आ गया। जो रघुवर खुद को राम जैसा ताकतवर समझने की भूल कर रहे थे, वह सरयू के मामूली वेग भी न सह सके और अपनी सबसे सुरक्षित सीट से वह हार गये।
खैर 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर भाजपा को उम्मीद थी कि वह फिर से झारखंड की सत्ता हासिल कर लेगी। झारखंड का ट्रेंड रहा है कि लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर लगभग 10% गिरता है। अगर वही ट्रेंड रहता तो इस हिसाब से भाजपा का वोट शेयर 51% से घट कर 41% पर टिकता, तो भी वह सत्ता में वापसी कर लेती। लेकिन जैसे ही आजसू उससे छिटकी, एक बड़ा वोट बैंक एनडीए से छिटक गया। यानी भाजपा और आजसू में बंट गया। गठबंधन हुआ नहीं। एनडीए का कोई वजूद रहा नहीं। विधानसभा चुनाव में आजसू को कुल 8% वोट मिले थे। नतीजा यह हुआ कि भाजपा का वोट शेयर भी अनुमानित 41% से 8 फीसदी और कम होकर 33% पर रह गया। चाहे वह गांडेय हो, घाटशिला हो, गुमला हो, नाला हो, जामा हो, जरमुंडी हो, खिजरी हो, सिमडेगा हो, बड़कागांव, बरकट्ठा, चक्रधरपुर, डुमरी, इचागढ़, जगन्नाथपुर, जरमुंडी, जुगसलाई, लोहरदगा, या मधुपुर हो। ये ऐसी सीटें हैं, जहां भाजपा बहुत ही मामूली अंतर से हारी, इनमे कई सीटें ऐसी हैं, जहां भाजपा-आजसू के वोटों को जोड़ लिया जाये तो नंबर वन पर एनडीए रहता। कुछ सीटों पर बाबूलाल की जेवीएम का भी जनाधार ठीक-ठाक रहा था। ये ऐसी सीटें हैं, जहां भाजपा उम्मीद कर सकती है। अगर भाजपा या यूं कहे एनडीए ठीक से रणनीति बना कर फोकस कर ले, तो इन सीटों पर लड़ाई कांटे की हो जायेगी और परिणाम उसके पक्ष में भी जा सकता है। वैसे बाबूलाल मरांडी अब भाजपा में हैं, प्रदेश अध्यक्ष हैं, तो इसका लाभ भी बीजेपी को जरूर मिलेगा। बाबूलाल मरांडी अकेले दम पर 2 से 3 फीसदी वोट शेयर को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं। 2019 के चुनाव में लगभग 20 सीटें ऐसी थीं, जो भाजपा-आजसू-सरयू के आपसी मनमुटाव के कारण एनडीए ने खो दी।
वैसे 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का कुल वोट शेयर घटा है। इस बार सभी 14 संसदीय सीटों में पड़े मतों में इसकी हिस्सेदारी 44.60 प्रतिशत ही रही, जबकि वर्ष 2019 के चुनाव में इस पार्टी को 51.6 प्रतिशत वोट मिले थे। दूसरी तरफ, झामुमो और कांग्रेस के वोट शेयर बढ़े हैं। इस बार दोनों का वोट शेयर 14.60 तथा 19.19 प्रतिशत रहा है। पिछले चुनाव में दोनों का वोट शेयर क्रमश: 11.7 तथा 15.8 प्रतिशत ही रहा था। इस चुनाव में आजसू का भी वोट शेयर घट कर 2.62 हो गया। हालांकि वोट शेयर गिरने के बावजूद 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को कुल 52 सीटों पर लीड मिली है। इसी को आधार मान कर भाजपा अपनी तैयारी भी कर रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ बहुत सारी परिस्थितियां विपरीत थीं। शायद उन परिस्थितियों से भाजपा ने सबक लिया है और अब उन्हें सुलझा रही है। जिस तरीके से भाजपा ने चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम को अपने पाले में किया है, उससे कोल्हान और संथाल की कुछ सीटों पर असर पड़ सकता है।
भाजपा इस विधानसभा चुनाव में एक अलग रणनीति के तहत चुनावी मैदान में उतरेगी। भाजपा जान चुकी है कि शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के खिलाफ उसका कोई भी व्यक्तिगत हमला आदिवासी मतदाताओं में असर नहीं करनेवाला। भाजपा यह भी जानती है कि आज की तारीख में आदिवासियों का बड़ा वर्ग हेमंत सोरेन के साथ है, इसे असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा भी स्वीकारते हैं। भाजपा को यह भी आभास हो गया है कि इस चुनाव में हेमंत सोरेन के ऊपर भ्रष्टाचार का अस्त्र कोई काम नहीं करेगा। लिहाजा उसने अपनी रणनीति बदल ली है। यही कारण है कि भाजपा कांग्रेस पर हमला करने की पूरी तैयारी में है। भाजपा की उसी रणनीति का हिस्सा रहा चंपाई सोरेन का वह भाषण, जिसमें उन्होंने गुरुजी के खिलाफ कुछ नहीं कहा। हेमंत सोरेन का नाम तक नहीं लिया। झामुमो पर भी उन्होंने निशाना नहीं साधा, बल्कि उससे पहले उन्होंने यहां तक कहा कि हम जिस घर को छोड़ कर आये हैं, वहां की एक र्इंट भी नहीं लायेंगे। भाजपा की सदस्यता लेते ही उन्होंने कांग्रेस पर गोला दाग दिया। कह दिया कि कांग्रेस पार्टी ने ही आदिवासियों पर सबसे ज्यादा गोलियां चलवायी हैं। उन्होंने गुवा गोलीकांड का ठीकरा भी कांग्रेस पर फोड़ा। कहा, कांग्रेस के कारण ही संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठियों ने पैर पसारा है। वे घुसपैठिये आदिवासियों का अस्तित्व मिटाने पर तुल गये हैं। आदिवासी बहन-बेटियों की इज्जत पर खतरा बढ़ गया है। उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। सीता सोरेन को भाजपा में लेते वक्त जो गलती हुई है, वह गलती को भाजपा दुहराना नहीं चाहती थी। याद रहे सीता सोरेन भाजपा ज्वाइन करते समय अपना सारा गुस्सा सोरेन परिवार पर उतारा था। पार्टी पर हमला बोला था। जिसे संथाल के मतदाताओं ने घर-परिवार की लड़ाई समझ कर बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। उस चुनाव में सीता सोरेन को सबसे ज्यादा नुकसान सोरेन परिवार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे को सामने लाना पड़ गया। दूसरी तरफ कल्पना सोरेन ने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से हेमंत की गिरफ्तारी को अपना हथियार बनाया और भावनात्मक अपील के साथ वह मैदान में उतरीं। चुनाव में कल्पना की पीड़ा को आदिवासी मतदाताओं ने गंभीरता से लिया।
इस चुनाव में भाजपा ने अपनी रणनीति बदली है। उसे पता है कि वह जेएमएम को बहुत अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सकती है। लेकिन अगर भाजपा कांग्रेस से आधी सीटें भी झटक लेती है, चंपाई फैक्टर कोल्हान में अपना थोड़ा भी कमाल दिखा दे, आजसू और जेडीयू उम्मीद के मुताबिक परफॉर्म कर दें, तो भाजपा इस विधानसभा चुनाव में भारी पड़ सकती है। जो गलती भाजपा ने 2019 के विधानसभा से पूर्व की थी, वह इस बार नहीं दिख रहा है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि 2019 के विधानसभा चुनाव की तुलना में भाजपा इस चुनाव में बेहतर करती दिख रही है। वैसे इस चुनाव में जयराम फैक्टर भी है। लेकिन इसका असर सिर्फ एनडीए पर नहीं सभी पार्टियों पर पड़ेगा। अगर जयराम महतो अच्छा परफार्म करते हैं, तो डुमरी, बेरमो और टुंडी में महागठबंधन को ज्यादा नुकसान होगा, क्योंकि ये सीटें अभी गठबंधन के पास हैं। अगर मांडू और बड़कागांव में भी जयराम प्रभावी रहे, तो नुकसान गठबंधन को ही होगा, क्योंकि अब जेपी भाई पटेल कांग्रेस में और अंबा प्रसाद भी कांग्रेस विधायक हैं। संभव है, जयराम के अच्छा परफार्म करने पर आजसू वहां से बाजी मार जाये।