मैं जनता की सेवा के लिए बना था, मुझे बचा लो
सुनील भंडारी
धनबाद/परसिया। कभी गांव की उम्मीदों का केंद्र रहा आदर्श ग्राम संसद कला संस्कृति भवन आज अपने टूटे छज्जों, उखड़ी दीवारों और मवेशियों की बैठकी में तब्दील होकर खुद अपनी बर्बादी की कहानी बयां कर रहा है। 2012-13 में जिस सपने को गोद लेकर आदर्श ग्राम के रूप में गढ़ा गया था, आज वह सपना ही सवाल बनकर शासन-प्रशासन और स्थानीय प्रतिनिधियों की आंखों में धूल झोंक रहा है। करीब एक करोड़ की लागत से बना यह भवन 2015 में तैयार हुआ। मकसद था गांव के युवाओं को कला, संस्कृति, खेल और सामुदायिक आयोजनों के लिए एक मंच देना। जब तत्कालीन मंत्री मन्नान मल्लिक ने इसे गोद लिया और शिलान्यास किया था, तब गांव में उत्सव जैसा माहौल था। हर किसी को लगा था कि अब परसिया का भाग्य बदलने वाला है। लेकिन 10 साल में ही भवन की दीवारें जवाब दे चुकी हैं। दरवाजे और पंखे चोरी हो चुके हैं, छतें टपक रही हैं, खिड़कियां टूट चुकी हैं और भीतर अब गांव के मवेशी आराम फरमाते हैं। यह वही भवन है, जिसकी नींव में जनता के खून-पसीने से कमाये गये पैसे से चुकाया गया टैक्स और सरकार की योजनाओं की नीयत जुड़ी है।

जिम्मेदार कौन?
इसमें क्या दोष सिर्फ सरकार का है, या फिर उस सरकारी तंत्र का, जिसने निर्माण के बाद इसे संवारा तक नहीं, या पंचायत प्रतिनिधियों का, जिन्हें इसकी देखरेख की जिम्मेदारी लेनी थी? सवाल तो ये भी है कि निर्माण के बाद इसे किसी विभाग को हैंडओवर क्यों नहीं किया गया? क्यों नहीं किसी ने इसकी उपयोगिता सुनिश्चित की? क्यों बना दिया गया इसे बिना भविष्य की योजना के?
यह रुसवाई है या भ्रष्ट तंत्र की शोहरत?
यह सिर्फ एक इमारत की बर्बादी नहीं, बल्कि करोड़ों की सरकारी राशि के दुरुपयोग की एक जीती-जागती मिसाल है। यह एक गांव के साथ धोखा है, एक पीढ़ी की उम्मीदों की कब्रगाह है। अगर योजनाएं यूं ही कागजों में आदर्श बनती रहीं और जमीन पर खंडहर में तब्दील होती रहीं, तो विकास महज एक जुमला बनकर रह जायेगा।

अब सवाल जनता का है—जवाब देगा कौन?
क्या जिला प्रशासन की आंखें कभी इस ओर खुलेंगी? क्या पंचायत प्रतिनिधि इसे मवेशियों से आजाद कर फिर से जनता को सौंपेंगे? या यह भवन भी उस लंबी लिस्ट में शामिल हो जायेगा, जहां सरकारी योजनाएं शुरू होकर दम तोड़ देती हैं? परसिया पंचायत का यह भवन अब एक प्रतीक बन चुका है—प्रशासनिक अनदेखी, लचर योजना प्रबंधन और बेपरवाह प्रतिनिधित्व का और सबसे बड़ी बात यह है कि ये इमारत अब भी चुप नहीं है। हर टूटी ईंट, हर उखड़ी दीवार और हर उखड़ा दरवाजा चीख-चीख कर कह रहा है, मैं जनता की सेवा के लिए बना था… मुझे बचा लो। आदर्श ग्राम की परिकल्पना आज खंडहर ग्राम में बदल चुकी है। इस भवन की बर्बादी सिर्फ परसिया पंचायत की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता की तस्वीर है। अब देखना यह है कि क्या सरकारी मशीनरी इस इमारत की कराह को सुनेगी या यह भवन आने वाले सालों तक यूं ही अपने उजाले के सपनों को अंधेरों में समेटे अकेले रोता रहेगा। इस भवन का वर्तमान हाल सिर्फ एक ईंट-पत्थर की बर्बादी नहीं, बल्कि जनता के साथ हुआ छलावा है।

प्रशासनिक चूक या भ्रष्टाचार का नतीजा?
सवाल अब बेहद गंभीर और स्पष्ट है कि निर्माण के बाद इस भवन को किसी विभाग को हैंडओवर क्यों नहीं किया गया? क्या करोड़ों की सरकारी राशि यूं ही कागजों पर योजनाओं की शोभा बढ़ाने के लिए होती है? जिम्मेदारी किसकी बनती है—निर्माण एजेंसी, पंचायत, या जिला प्रशासन की?
सवाल प्रशासन से भी है कि क्या जिला प्रशासन इसकी जवाबदेही तय करेगा? क्या जनप्रतिनिधि कभी इसकी सुध लेंगे? क्या इस भवन को पुन: उपयोग में लाकर इसकी मूल भावना को जीवित किया जायेगा?

क्या कहते हैं इलाके के लोग
जिला परिषद प्रत्याशी साधु महतो ने कहा कि आदर्श ग्राम योजना के तहत 2010 में परसिया गांव को तत्कालीन पशुपालन मंत्री मन्नान मल्लिक ने गोद लिया था। उसी के तहत लघु सिंचाई विभाग द्वारा करोड़ों की लागत से बना आदर्श ग्राम संसद भवन 2015 में तैयार कर दिया गया, लेकिन पंचायत प्रतिनिधियों और प्रखंड अधिकारियों की घोर लापरवाही से यह भवन खंडहर बन गया। अगर इस भवन को युवाओं के लिए खोल दिया जाता, तो यहां आज हर हफ्ते कार्यक्रम होते। लेकिन सरकारी सिस्टम ने इसे अकेला मरने के लिए छोड़ दिया। महतो ने राज्य सरकार और जिला प्रशासन से मांग की कि भवन की मरम्मत कर इसे पंचायत को सौंपा जाये। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा और भवन अपने मूल उद्देश्य को फिर से पूरा कर सकेगा।

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