क्या रीजनल पार्टियों पर जनता को भरोसा नही रहा है? ये सवाल इसलिए उठा है, क्योंकि प्रादेशिक अस्मिता के मुद्दे पर राजनीति करने वाली पार्टियों का पिछले कुछ चुनावों में प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नही रहा है.

महाराष्ट्र में हुए ताज़ा चुनाव के आंकड़े भी ये बयां कर रहे हैं. रीजनल पार्टी का वोट शेयर बुरी तरह नीचे खिसका है. दूसरी ओर राष्ट्रीय पार्टियां अपने पाले में ज्यादा वोट खींचने में कामयाब रही हैं.

महाराष्ट्र के नांदेड़ महानगर पालिका चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत बिलकुल यही कहानी बयां करती है. पार्टी को 2012 में 40.41% वोट मिले थे, 2017 में ये बढ़कर 46.28% हो गया.

बीजेपी की भले ही इस चुनाव में बुरी तरह हार हुई हो, लेकिन पार्टी के वोट शेयर में तेजी से इजाफा हुआ है. बीजेपी को 2012 में 3.81% वोट मिले थे, वहीं इस चुनाव में पार्टी के वोट शेयर में 21 फीसदी इजाफा हुआ. बीजेपी को कुल 24.64% वोट मिले है.

दूसरी ओर वोट शेयर के मामले में रीजनल पार्टियों का प्रदर्शन, पार्टी नेताओं के लिए खतरे की घंटी है. सबसे पहले एनसीपी की बात करते हैं. 2012 में पार्टी को 16% वोट मिले थे. लेकिन इस बार वोट शेयरिंग का आंकड़ा गिरकर 3.65 फीसदी हो गया .

महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता और हिंदुत्व का कार्ड खेलने वाली पार्टी शिवसेना का हाल भी बुरा है. 2012 में शिवसेना का वोट शेयर 18.5% था, जो आधे से भी घटकर 7% पर आ गया है. AIMIM की स्थिति और भी बुरी है. पिछली बार 22% वोट हासिल करने वाली पार्टी इस बार 7% पर आ गई है .

महाराष्ट्र के दूसरे इलाक़ों में भी लोकल बॉडीज इलेक्शन के नतीजे राष्ट्रीय पार्टियों के पक्ष में हैं. मुंबई के भांडुप में हुए उपचुनाव में शिवसेना के गढ़ में पार्टी अपने वोट बैंक को साथ रखने में कामयाब नही हो पाई.

साफ है कि रीजनल पार्टियों को अपनी रणनीति में बड़े बदलाव करने की ज़रूरत है. ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले वक्त में रीजनल पार्टियों के अस्तित्व पर बड़ा सवाल खड़ा हो सकता है.

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version