यह सहज रूप से मान लिया जाता है कि भारत में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में लैंगिक समानता है। पर हकीकत में ऐसा है नहीं। लेखिका कुमुद शर्मा अपने शोध पत्र पावर वर्सेज रिप्रेजेंटेशन में कहती हैं कि संविधान ऐसे राष्ट्र का भ्रम पैदा करता है, जिसमें स्त्री और पुरुष के बीच समानता है। पहली लोकसभा के लिए 43 महिलाओं ने चुनाव लड़ा और उनमें से मात्र 14 जीतकर सदन में पहुंची थीं। तब लोकसभा की कुल सीटें 489 थीं। इसी तरह 1950 में 3,000 विधानसभा सीटों पर 216 महिलाओं ने चुनाव लड़ा और मात्र 82 चुनी गईं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, विधायिका में महिलाओं की नुमाइंदगी के मामले में विश्व में भारत का 149वां स्थान है, जहां 11 फीसदी महिला संसदीय प्रतिनिधि हैं। जाहिरा तौर पर महिलाओं की चुनाव जीत पाने की अक्षमता इसमें बड़ी सामाजिक रुकावट है। और इन सबके बावजूद महिलाओं की नुमाइंदगी बढ़ाने की कोशिशों की रस्म अदायगी जारी है। महिला प्रत्याशियों को टिकट दिया जाता है, उनमें से कुछ जीत भी जाती हैं, और उन्हें बेहतर नियुक्तियां भी दी जाती हैं। पर व्यापक सामाजिक फलक पर देखें, तो राजनीतिक सत्ता पर अब भी पुरुषों का ही कब्जा है। महिलाएं पार्टी के आंतरिक वरिष्ठता क्रम में अदृश्य ही हैं और विभिन्न राजनीतिक दलों की निष्क्रिय महिला इकाइयों का इस्तेमाल सिर्फ सामाजिक कार्यक्रमों और चुनाव प्रचार के लिए ही किया जाता है।
भारत की महिलाओं के लिए आगे अभी बड़ी लड़ाई है। पश्चिम के उलट हमारे समाज में महिलाएं अब भी जाति, वर्ग, धर्म, भाषा, क्षेत्र, पहनावा, शिक्षा और भारी गरीबी की दीवारों से बंटी हुई हैं। इस तरह महिला नेता, महिलाओं के व्यक्तिगत अधिकार के लिए जनता के बीच जागरूकता जगाने में खुद ही रुकावट बन गईं। हमें अब भी ऐसी मजबूत, खुले विचारों वाली महिला नेताओं का इंतजार है, जो गहराई तक जड़ें जमाए ऐसी गैरबराबरी का खात्मा कर हाशिये की महिलाओं को मुख्यधारा में लाएं। जब तक ऐसा नहीं होता, लैंगिक असमानता यों ही बनी रहेगी। भारतीय राजनीति, खासकर केंद्र व राज्यों की विधायिका में महिलाओं को शक्ति हस्तांतरण के लिए जरूरी संवेदनशीलता और समझदारी का अभाव दिखता है। तर्क दिया जाता है कि इससे पुरुषों की संभावनाओं में कटौती हो जाएगी।

हालांकि कई उपाय हैं, जिनकी मदद से स्थिति सुधारी जा सकती है। महिलाओं का आरक्षण एक समाधान हो सकता है। यह कोई नया विचार नहीं है- एक मशहूर घटना में सरोजिनी नायडू अखिल भारतीय महिला शिष्टमंडल की अगुवाई करते हुए एक ज्ञापन के साथ ब्रिटेन के तत्कालीन भारत मंत्री मांटेग्यू से मिलने गई थीं। ज्ञापन में कहा गया था कि ‘अगर भारत के सभी लोगों को समान मताधिकार दिया गया, तो इससे महिलाओं को भी आम जन समझा जाएगा।’ लेकिन बहुत जल्द उन्हें निराशा का सामना करना पड़ा- मांटेग्यू के भारत के लिए किए गए सुधारों (जिसके आधार पर 1919 का अधिनियम बना) में महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया। तर्क दिया गया कि ऐसा करना देश के पारंपरिक-सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ होगा। मोतीलाल नेहरू ने महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखने के सरकार के फैसले की निंदा की और उम्मीद जताई कि भारतीय पुरुष उठ खड़े होंगे और उनके मताधिकार के मौके को जल्द ही वास्तविकता में बदल देंगे। 1927 तक मद्रास प्रांतीय विधानसभा की सदस्यता महिलाओं के लिए भी खोल दी गई। 1928 और 1937 के बीच भारतीय महिलाओं ने मताधिकार की शर्तों में रियायत के साथ महिलाओं की ज्यादा नुमाइंदगी की मांग उठाई। 1932 में लोथियन कमेटी ने महिलाओं को भी अल्पसंख्यकों और दलितों की तरह खास दर्जा दिए जाने और उन्हें प्रांतीय विधानसभाओं में दस साल के लिए दो-पांच फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की थी। 1988 में नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान के मसौदे में स्थानीय निकाय के साथ जिला परिषद और पंचायत स्तर पर 30 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की गई थी।

वर्ष 1990 में आयोजित ‘पंचायती राज और महिलाएं’ विषय पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने लोकसभा में शुरुआती तौर पर 30 फीसदी आरक्षण दिए जाने और फिर अगले दो साल के अंदर इसे बढ़ाकर 50 फीसदी करने का वायदा किया था। इस पर अमल के लिए संसद के आने वाले सत्र में पेश किया जाने वाला महिला आरक्षण विधेयक, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान था, बड़े बदलाव ला सकता था। इस विधेयक पर विरोधी दलों की सहमति का अनूठा इतिहास है। इसे 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार ने पेश किया था और फिर वाजपेयी और यूपीए सरकार ने। इसे आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक दलों में भी पदों पर आरक्षण पर विचार किया जा सकता है। सभी दलों की सहमति से बना ऐसा कानून महिलाओं की समानता के दशकों के संघर्ष का अभिवादन होगा। मौजूदा सरकार को आगामी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा करानी चाहिए, ताकि इसे 2019 के चुनाव में लागू किया जा सके। यह सिर्फ अच्छी राजनीति के लिए नहीं, बल्कि समाज को न्यायपूर्ण और समावेशी बनाने के लिए भी जरूरी है।

हालांकि इससे भी जरूरी है-अच्छे उम्मीदवारों का आना। महिला आरक्षण के खिलाफ एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इससे पर्दे के पीछे से कमान अपने हाथ में रखने वाले दबंगों को मौका मिल जाएगा। ग्रामीण भारत में महिला सरपंच के ‘सरपंच पति’ अब कोई असामान्य बात नहीं है। ईमानदारी से देखें, तो महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर देने से पीछे से कमान हाथ में रखने की वह प्रवृत्ति खत्म नहीं हो जाएगी। लेकिन समय के साथ महिला नेतृत्व का उसी तरह विकास होगा, जैसे महिला आरक्षण बढ़ाने के बाद स्थानीय निकायों में हुआ। हमें जरूरत है ऐसी महिला नेताओं की, जो समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्होंने महिलाओं के अधिकार के लिए संघर्ष किया। हमें हर हाल में उनकी आवाज सुननी होगी और उनको शक्ति देनी होगी।

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