विशेष
अतीत को देखते हुए भविष्य का भी खयाल रखा गया है सीटों के समीकरण में
भाजपा ने जदयू के बराबर सीट लेकर बता दिया कि अब वह छोटा भाई नहीं है
दलित राजनीति को नया नेतृत्व देने के लिए ही चिराग पासवान को अहमियत दी गयी है
मांझी और कुशवाहा को उनकी हैसियत के अनुरूप सीटें देकर सियासी संतुलन साधा गया
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, यानी एनडीए में सीट शेयरिंग को अंतिम रूप दे दिया गया है। बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दलों के नेताओं की दिल्ली में हुई बैठक में इस फॉर्मूले को अंतिम रूप दिया गया, जिससे साफ पता चलता है कि इस बार बिहार की राजनीति में बहुत कुछ नया होनेवाला है। 243 सीटों के बंटवारे के क्रम में भाजपा ने इस बार जेडीयू के बराबर सीटें लेकर साफ कर दिया है कि वह अब बिहार में न तो छोटे भाई की भूमिका में रहना चाहती है और न ही दूसरे दर्जे की भूमिका निभायेगी। पार्टी ने साफ कर दिया है कि अब बिहार के सियासी समीकरण की ड्राइविंग सीट पर वह भी बैठी है। इसके अलावा भाजपा ने चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) को 29 सीटें देकर यह भी बता दिया है कि बिहार की दलित राजनीति में वह नये नेतृत्व को स्थापित करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुकी है। हालांकि जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा को 6-6 सीटें देकर भाजपा-जेडीयू ने गठबंधन की एकता और मजबूती को बरकरार रखने की शानदार कोशिश की है, लेकिन चिराग पासवान के बढ़ते कद ने भाजपा को एक विश्वस्त सहयोगी बनाने में बड़ी कामयाबी मिली है। क्या है बिहार एनडीए की सीट शेयरिंग के पीछे की सियासत और समीकरण, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।

भाजपा ने पहली बार बिहार में खुद को जदयू के बराबर खड़ा कर लिया
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर एनडीए ने रविवार को सीट शेयरिंग की घोषणा कर दी है। भाजपा और जेडीयू 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) 29 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसके अलावा जीतन राम मांझी के हम को छह सीटें मिली हैं। इतनी ही यानी छह सीटें उपेंद्र कुशवाहा को भी मिली हैं। यानी कुल मिलाकर 243 सीटों के बंटवारे में भाजपा और जदयू के बाद लोजपा (रामविलास) दूसरी बड़ी पार्टी बन गयी है। भाजपा ने सीट शेयरिंग के इस नंबर के आधार पर अपनी हैसियत बराबर की बना ली है। भले ही पार्टी लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में बड़ा भाई नहीं बन पायी हो, लेकिन पहली बार बिहार में खुद को जदयू के बराबर खड़ा कर लिया है।

चिराग पासवान सबसे बड़े बार्गेनर
वहीं इस सीट शेयरिंग में चिराग पासवान सबसे बड़े बार्गेनर साबित हुए। पिछली बार चिराग पासवान एनडीए का हिस्सा नहीं थे। इस बार जब वह एनडीए का हिस्सा बने, तो नीतीश कुमार ने सीधे तौर पर उनसे दूरी बना ली। नीतीश कुमार की तरफ से सीधे तौर पर कह दिया गया था कि चिराग कितनी सीटों पर लड़ेंगे, ये उनकी समस्या है। इसके बाद चिराग की सीटों को लेकर कई तरह की बातें सामने आयीं। पसंद की सीटों से लेकर सीटों की संख्या तक कई दिनों तक खींचतान चलती रही, लेकिन चिराग अपनी जिद पर अड़े रहे। चिराग अपनी पसंद की सीटों के अलावा अपनी पसंद के नंबर लेने में भी कामयाब रहे।

मांझी का राजनीतिक दायरा सिर्फ गया तक
जीतन राम मांझी लगातार 20-22 सीटों की मांग कर रहे थे। वे अपनी पार्टी को राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा दिलाने की बात कह कर अपनी सीटें बढ़ाने की बात कर रहे थे, लेकिन एनडीए की सीट शेयरिंग में उनकी मांग नहीं सुनी गयी। उन्होंने आखिरी गुहार लगायी थी कि उन्हें कम से कम 15 सीटें दी जायें, लेकिन सिर्फ छह सीटें ही मिलीं। जानकारों की मानें, तो जीतन राम मांझी का राजनीतिक दायरा अभी भी गया तक ही सीमित है। देखा जाये तो राज्य भर में न तो इनके वोटर हैं और न ही उन पर इनकी पकड़ है। एनडीए के नेता इस बात को बहुत अच्छे से समझते हैं। चुनाव लड़ने वालों में भी ज्यादातर इनके परिवार के लोग ही शामिल होते हैं। मांझी खुद अभी लोकसभा के सांसद होने के साथ-साथ केंद्र में मंत्री भी हैं। इनके बेटे संतोष सुमन विधान परिषद के सदस्य होने के साथ राज्य सरकार में मंत्री हैं।

आज बादलों ने फिर साजिश की, जहां मेरा घर था वहीं बारिश की: कुशवाहा
एनडीए में अगर कोई पार्टी सबसे कमजोर थी, तो वह उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा थी। पिछले 10 साल से विधानसभा में उनका एक भी सदस्य नहीं है। आखिरी बार उनकी पार्टी ने 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान दो सीटें जीतीं थी। एनडीए के साथ रहने के बाद भी वे 2024 में काराकाट से लोकसभा का चुनाव हार गये थे। लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनकी बार्गेनिंग क्षमता पहले ही घट गयी थी। जिस तरीके से महागठबंधन ने एनडीए के कोर वोट बैंक रहे कुशवाहा में सेंधमारी की है, ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा का गठबंधन में रहना बेहद जरूरी था। बिहार में कुशवाहा वोटरों की संख्या लगभग 4.2 फीसदी है। खास कर मगध और शाहाबाद के इलाके की सीटों की जीत-हार में ये अहम फैक्टर होते हैं। यही कारण है कि भाजपा किसी भी सूरत में उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए से बाहर नहीं होने देना चाह रही थी। सीट शेयरिंग से पहले वे 10 सीट पर अड़े हुए थे। दो दिन पहले जब वे पटना से दिल्ली निकल रहे थे, तब उन्होंने अपनी सीटों की संख्या पर नाराजगी भी जतायी थी। उन्होंने कहा था कि अभी सीट शेयरिंग फाइनल नहीं हुआ है। छह सीटें देकर गठबंधन में उनके सम्मान को बरकरार रखा गया है। ‘आज बादलों ने फिर साजिश की, जहां मेरा घर था वहीं बारिश की। अगर फलक को जिद है बिजलियां गिराने की, तो हमें भी जिद है वहीं पर आशियां बसाने की ‘। यह पोस्ट सीट शेयरिंग के बाद उपेंद्र कुशवाहा द्वारा किया गया है।

सीट बंटवारे में छिपे हैं कई समीकरण
वैसे चिराग तो कहते ही हैं कि वह मोदी के हनुमान हैं। इस सीट बंटवारे में कई समीकरण छिपे हुए हैं। एनडीए की मौजूदा स्थिति को देखते हुए लगता है कि विपरीत परिस्थिति में चिराग पासवान भाजपा के साथ रहेंगे। उधर मांझी और कुशवाहा फिलहाल जदयू, यानी नीतीश कुमार के साथ हैं। हालांकि इस सीट बंटवारे के बाद दोनों ने साफ कर दिया है कि उन्हें ये मंजूर नहीं था, लेकिन गठबंधन की मजबूरी के चलते 6-6 सीटों पर मानने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। अब यहीं से सियासी गलियारे में प्लान की चर्चा शुरू हो गयी। जदयू को 101 सीटें मिली हैं। जीतन राम मांझी को छह और उपेंद्र कुशवाहा को छह सीटें मिली हैं। तीनों एक साथ रहेंगे, तो भी सभी सीटों पर जीतने के बाद उनके खाते में 101+6+6 यानी 113 सीटें ही रहेंगी। ऐसे में ये तीन पार्टियां सभी सीटें जीत कर भी पूर्ण बहुमत नहीं ला सकती हैं। इसके लिए उन्हें भाजपा और चिराग या इनमें से किसी एक की जरूरत पड़ेगी ही। सियासी गलियारे में ये चर्चा तेजी से फैल रही है कि भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव में अपने प्लान का पहला फेज पूरा कर चुकी है। कहा जा रहा है कि चिराग और भाजपा हर हाल में एक साथ रहेंगे। ऐसे में अगर बीजेपी और चिराग के हिस्सों में आयी सीटों को जोड़ें, तो 101+29 मिलाकर 130 सीटें होती हैं। ऐसे समझिए कि अगर बीजेपी और चिराग पासवान ने अपने ही दम पर बहुमत के जादुई आंकड़े 122 को छू लिया, तो उन्हें नीतीश कुमार की कोई जरूरत नहीं रहेगी। लेकिन इसके लिए उन्हें सात से ज्यादा सीटों पर हारना नहीं होगा। तभी वो बहुमत के आंकड़ों तक पहुंचेंगे। अब सवाल यही है कि जो चर्चा चल रही है क्या वो वाकई सही है? लेकिन नीतीश कुमार के पहले की पलटने वाली आदत से हो सकता है भाजपा अलर्ट मोड में हो।

भाजपा का बढ़ता दबदबा
सीट बंटवारे का पहला और स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि अब नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड, राज्य की राजनीति में ड्राइविंग सीट पर नहीं है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी यह संकेत मिला था, जब बीजेपी ने 17 और जेडीयू ने 16 सीटों पर चुनाव लड़ा था। राज्य विधानसभा चुनाव में भी यही संतुलन कायम होता दिख रहा है। भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह अब दूसरे दर्जे की भूमिका नहीं निभायेगी और वह सत्ता के संतुलन को बनाये रखते हुए अगले चरण में राज्य का नेतृत्व हासिल करने की तैयारी कर रही है।

भाजपा की नयी दलित रणनीति, चिराग का बढ़ता राजनीतिक कद
दूसरा बड़ा निष्कर्ष चिराग पासवान के मजबूत होते राजनीतिक कद से जुड़ा है। सूत्रों का कहना है कि 29 सीटों का बड़ा हिस्सा देकर बीजेपी ने यह साफ संकेत दिया है कि वह अब बिहार की राजनीति में पूरी तरह से नीतीश कुमार पर निर्भर नहीं रहना चाहती है। पिछले चुनाव में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने नीतीश कुमार के जेडीयू को काफी नुकसान पहुंचाया था, जिससे नीतीश कुमार को राज्य की राजनीति में अपना दबदबा खोना पड़ा था। चिराग पासवान को 29 सीटें देना बीजेपी के लिए अगला कदम माना जा रहा है। बीजेपी अब चिराग के राजनीतिक प्रभाव को न केवल मान्यता दे रही है, बल्कि उन्हें राज्य के दलित चेहरे के रूप में भी आगे बढ़ा रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी की यह रणनीति बिहार में दलित वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश है।

मांझी बनाम पासवान
इस समायोजन की राजनीति में सबसे अधिक प्रभावित जीतन राम मांझी हुए हैं। उनकी पार्टी हम को इस बार केवल छह सीटें मिली हैं, जो 2020 के चुनाव से एक कम है। राजनीतिक सूत्रों के अनुसार मांझी की सीटें चिराग पासवान को संतुष्ट करने के लिए कम की गयी हैं। इससे एक बात साफ हो गयी है कि एनडीए का ध्यान अब राज्य के दलित नेतृत्व को एक मजबूत चेहरा प्रदान करने पर है, और वह चेहरा अब जीतन राम मांझी नहीं, बल्कि चिराग पासवान हैं।

इसका असर एनडीए पर पड़ सकता है: मांझी
सीट शेयरिंग के बाद जीतनराम मांझी ने पहले कहा, मैं संतुष्ट हूं। हालांकि इसके बाद तीखे तेवर दिखाते हुए बयान दिया, आलाकमान ने जो फैसला लिया है, वो स्वीकार है। हमें सिर्फ छह सीट देकर उन्होंने हमारी अहमियत कम आंकी है। इसका असर एनडीए पर पड़ सकता है।

आने वाला समय बतायेगा फैसला कितना उचित : उपेंद्र कुशवाहा
सीट शेयरिंग के बाद उपेंद्र कुशवाहा ने एक्स पर लिखा कि आप सभी से क्षमा चाहता हूं। आपके मन के अनुकूल सीटों की संख्या नहीं हो पायी। मैं समझ रहा हूं, इस निर्णय से अपनी पार्टी के उम्मीदवार होने की इच्छा रखने वाले साथियों सहित हजारों-लाखों लोगों का मन दुखी होगा। आज कई घरों में खाना नहीं बना होगा। परंतु आप सभी मेरी और पार्टी की विवशता और सीमा को बखूबी समझ रहे होंगे। किसी भी निर्णय के पीछे कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जो बाहर से दिखती हैं, मगर कुछ ऐसी भी होती हैं, जो बाहर से नहीं दिखतीं। हम जानते हैं कि अंदर की परिस्थितियों से अनभिज्ञता के कारण आपके मन में मेरे प्रति गुस्सा भी होगा, जो स्वाभाविक भी है। आपसे विनम्र आग्रह है कि आप गुस्सा को शांत होने दीजिए, फिर आप स्वयं महसूस करेंगे कि फैसला कितना उचित है या अनुचित। फिर कुछ आने वाला समय बतायेगा। फिलहाल इतना ही।

एनडीए की सीट शेयरिंग का आधार बना लोकसभा चुनाव
एनडीए के फॉर्मूले में लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को आधार बनाया गया है। लोकसभा चुनाव में भाजपा 17 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिनमें 104 विधानसभा सीटें आती हैं। आरा और बेगूसराय लोकसभा में सात-सात और बाकी में 6-6 सीटें हैं। जबकि जदयू ने लोकसभा में 16 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस आधार पर 97 सीटें होती हैं। इनमें नालंदा में सात और बाकी लोकसभा में 6-6 विधानसभा सीटें हैं। अब सीट शेयरिंग की बात करें, तो बीजेपी ने लोकसभा के अनुसार तीन सीटें कम ली हैं, जबकि जदयू को चार सीटें ज्यादा दी गयी है। यानी एनडीए ने बीच का रास्ता निकाला और दोनों पार्टी 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ने पर सहमत हुई। अब न कोई बड़ा भाई और न कोई छोटा भाई है। लोकसभा चुनाव में चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी-आर ने पांच सीटों पर चुनाव लड़ा। इसी आधार पर उसे 29 सीटें मिलीं, जबकि जीतन राम मांझी का हम और उपेंद्र कुशवाहा का राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा (रालोमो) लोकसभा में एक-एक सीट पर चुनाव लड़ा था। इस आधार पर इन्हें विधानसभा की 6-6 सीटें दी गयी हैं।

15 साल में जदयू की 29% सीटें घट गयीं
2003 में पार्टी बनने के बाद जदयू ने सबसे पहला चुनाव 2005 में लड़ा था। अगर सीट शेयरिंग के फॉर्मूले को देखें, तो 2005 के बाद जदयू की सीटें 27 फीसदी घट गयी हैं। तब पार्टी 138 सीटें पर चुनाव लड़ी थी। जेडीयू ने सबसे ज्यादा 2010 में 141 सीटों पर चुनाव लड़ा। अब 101 पर चुनाव लड़ रहा है। 2025 के सीट शेयरिंग के फॉर्मूले के तहत 15 साल में पार्टी की 40 सीटें कम हो गयीं। यानी 15 साल में जेडीयू की करीब 29% सीटें घट गयीं, जबकि भाजपा 2005 में भी 101 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और 2025 में भी 101 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है।

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