राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए राजनीतिक दल अपने विरोधी दल के वोट बैंक पर ही सेंधमारी नहीं करते, बल्कि नारों की अदला-बदली भी जरुरत पड़ने पर करते हैं। इस कवायद को कुछ-कुछ नयी बोतल में पुरानी शराब भरने की प्रक्रिया की तरह लिया जा सकता है। जैसे वाहन कंपनियां बाजार में बने रहने के लिए अपने मॉडल चेंज करती रहती हैं वैसे ही राजनीतिक दल भी नारे और नीतियों में बदलाव लाते रहते हैं। झारखंड में सत्तारुढ़ भाजपा ने जबसे विपक्षी दलों के नारे को कुंद करना शुरु किया है तब से बदलाव की प्रक्रिया से गुजरते हुए दो दलों ने अपने नारे के फोकस बिंदु की अदला-बदली कर ली है। जिस जल जंगल और जमीन के नारे को झामुमो अपने साथ लिये चलती थी उसे अब कांग्रेस भुनाने में लग गयी है वहीं झामुमो का फोकस जल, जंगल और जमीन से किनारे घसकते हुए पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं का सशक्ति करण हो गया है। राजनीति में कांग्रेस और झामुमो के नारे के एक्सचेंज और भाजपा के नारे की ताकत के बहाने राजनीति में नारों की अहमियत को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।
न जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगाना हाथ पर। कांग्रेस के लिए साहित्यकार श्रीकांत वर्मा का यह नारा बेहद चर्चित रहा था। तब जमाना कांग्रेस का था तो नारे भी कमोबेश राजनीति की फिजां में उसी के उछलते थे। वर्ष 2014 से पहले के लोकसभा चुनावों में टीवी पर बहुत हुई महंगाई की मार अबकी बार भाजपा सरकार ने जनता का दिल ऐसा जीता की गुजरात के मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री तक का सफर नरेंद्र मोदी ने तय कर लिया। देश में भाजपा थी तो झारखंड में भी उसका असर होना था। 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपने दम पर झारखंड में 37 सीटें जीतीं तो यह सबका साथ और सबका विकास के नारे का कमाल था। इस जीत के बाद पार्टी झारखंड में कांग्रेस, झामुमो और झाविमो को रसातल में मिलाने को जुटी हुई है। विपक्षी दल चाहे वह झामुमो हो या कांग्रेस या झाविमो इनके पास भाजपा के सबका साथ सबके विकास की काट का कोई नारा नहीं है। झामुमो का जल, जंगल और जमीन का नारा समय के साथ घिस चुका है और इसमें वह दम नहीं रहा कि वह झामुमो की भविष्य की राजनीति को प्रोपोगेट कर सके। भाजपा के पास सबका साथ सबका विकास का सर्वस्पर्शी नारा है और झामुमो और कांग्रेस इस मामले में कमजोर हो गये हैं। यदि उन्हें झारखंड में भाजपा का मुकाबला करना है तो बराबर का नारा लाना या गढ़ना होगा। ऐसा किये बिना उनकी चुनावी रणनीति कुछ-कुछ अधूरी रहेगी।
नया नहीं ला सके तो अदला-बदली कर ली
झारखंड में भाजपा का मुकाबला करने को कमर कस चुकी कांग्रेस और झामुमो जब भाजपा की टक्कर का नारा ढूंढ नहीं सकी तो इन्होंने अपने-अपने नारों का एक्सचेंज कर लिया। जल, जंगल और जमीन के साथ खड़े रहते हुए हेमंत सोरेन अब झारखंड में खाली पड़े साढ़े छह लाख पदों में से पांच लाख पद सरकार बनने के तुरंत बाद भरने का नारा दे रहे हैं। वहीं बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता का नारा भी झामुमो दे रही है। इससे जाहिर है कि जल, जंगल और जमीन के परंपरागत नारे से झामुमो का विचलन हुआ है। वहीं जिस तरह कांग्रेस राजनीतिक रुप से झारखंड में डवांडोल है उसी तरह नारों के मामले में भी यह सशक्त नहीं बन पायी है। गुरुवार को साहेबगंज के पतना में हेमंत सोरेन ने कहा कि भाजपा की सरकार में चूहे डैम खा जाते हैं। इस सरकार के मुखिया को हम झारखंड से विदाई देकर छत्तीसगढ़ भेज देंगे। युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही है। वहीं विकास के नाम पर सिर्फ प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वहीं झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी अपने नारों में आधी आबादी को फोकस कर रहे हैं। पलामू के पाटन में एक चुनावी सभा में बाबूलाल मरांडी ने कहा कि उनकी सरकार बनी तो सभी जगहों पर आधी आबादी को अधिकार मिलेगा। चाहे थाना हो या ब्लॉक सभी जगहों पर नियुक्ति में महिलाओं को प्राथमिकता मिलेगी। वहीं मनिका में कांग्रेस की प्रमंडल स्तरीय जन आक्रोश रैली में कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह ने कहा कि भाजपा ने अब तक राज्य की जनता को सपने ही दिखाये हैं। उन्होंने कहा कि जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो गरीबों को पचास किलो अनाज और 17 रुपये लीटर मिट्टी का तेल मिलता था पर अब अनाज पांच किलो और मिट्टी का तेल 55 रुपये लीटर मिल रहा है।
ये हो सकता है झामुमो का नारा
झामुमो भाजपा के बाद झारखंड का विधायकों की संख्या के हिसाब से दूसरा बड़ा दल है। भाजपा के सबका साथ सबका विकास के नारे के जवाब में यह झारखंड की बात देश के साथ का नारा दे सकती है। इस तरह के और नारे भी गढ़े जा सकते हैं। वहीं कांग्रेस सबकी बात हाथ के साथ का नारा दे सकती है। असल में हाल के दिनों में भाजपा ने नये नारे गढ़ने में जितना काम किया है उतना दूसरे दल नहीं कर पाये हैं जबकि राजनीति में जीत के लिए कार्यकर्ताओं और नारों की क्या भूमिका है यह जगजाहिर है। झारखंड में अपने दम पर अधिक से अधिक सीटें जीतने के जुगाड़ में लगी भाजपा अबकी बार 65 पार के आक्रामक नारे के साथ बढ़त बनाकर चल रही है। उसके मुकाबले विपक्षी दलों का महागठबंधन अभी तक आकार नहीं ले पाया है, वहीं कांग्रेस हो या झामुमो अपने दम पर इस नारे की काट का दूसरा कोई नारा ढूंढ नहीं सकी है। यदि झामुमो, झाविमो और कांग्रेस चुनाव में सचमुच कमाल दिखाना चाहते हैं तो चुनाव जीतने की अन्य कवायदों के साथ उन्हें इस नारे का जवाब भी जल्द से जल्द ढूंढना होगा।
ये हैं देश में चर्चित रहे कुछ नारे
जमीन गयी चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाये मेरा मरद गया नसबंदी में
(आपातकाल और नसबंदी के खिलाफ यह नारा चर्चित हुआ था)
जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल
(साठ के दशक में कांग्रेस और जनसंघ में जुबानी वार खूब होता था। जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था जबकि कांग्रेस का दो बैलों की जोड़ी)
इस दीपक में तेल नहीं सरकार बनाना खेल नहीं
(जनसंघ के जली झोपड़ी भागे बैल के नारे में कांग्रेस ने यह जवाबी नारा दिया था)
खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को
(1952 में आजादी के बाद के पहले चुनाव में यह नारा कांग्रेस के कुछ नेताओं ने दिया था)
संजय की मम्मी, बड़ी निकम्मी
(1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ यह नारा दिया गया था)
बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती है
(इंदिरा गांधी के खिलाफ यह नारा भी दिया गया था)
नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा, संजय बंशीलाल
(1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ यह नारा दिया गया था)
देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है
(देश की आजादी के बाद कम्यूनिस्ट पार्टी ने यह नारा दिया था)
लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान
(यह नारा वाम पंथी पार्टियों ने दिया था)
धन और धरती बंट के रहेगी भूखी जनता चुप न रहेगी
(यह नारा समाजवादियों और साम्यवादियों ने 60 के दशक में दिया था)