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    Home»Top Story»सीट शेयरिंग को लेकर आजसू नेतृत्व पर बढ़ा दबाव
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    सीट शेयरिंग को लेकर आजसू नेतृत्व पर बढ़ा दबाव

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskOctober 30, 2019No Comments6 Mins Read
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    झारखंड में विधानसभा चुनाव से पहले नये राजनीतिक समीकरण आकार लेने की चर्चा जोरों पर है। महाराष्टÑ में हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा और शिवसेना के बीच का गठबंधन जिस तरह टूटने की कगार पर है, उससे साफ हो गया है कि अब चाहे चुनाव पूर्व का गठबंधन हो या बाद का, कुछ भी स्थायी नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल पीछे हटने या झुकने के लिए तैयार नहीं है। खास कर क्षेत्रीय दल तो अपने फैसले पर दोबारा विचार करने के लिए भी राजी नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि विधानसभा चुनावों में राष्टÑीय दलों की भूमिका धीरे-धीरे कम हो रही है। झारखंड में एनडीए के साथ भी ऐसी ही स्थिति बन रही है। भाजपा की सहयोगी आजसू पार्टी इस बार पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरने के लिए तैयार है। आजसू नेतृत्व को इस बात का भी आभास है कि यदि उसने 15 सीटों से कम पर समझौता किया, तो पार्टी को एकजुट रखना मुश्किल होगा। इस मुद्दे को लेकर आजसू नेतृत्व पर दबाव बढ़ रहा है। इसकी संभावनाओं और परिणामों को रेखांकित करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    झारखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारियों के बीच नये राजनीतिक समीकरणों की संभावनाएं भी तलाशी जा रही हैं। भाजपा ने 65 प्लस का लक्ष्य हासिल करने के लिए विपक्षी दलों को कमजोर करने की रणनीति पर काम करना भी शुरू कर दिया है। दूसरे दल भी अपने-अपने हिसाब और क्षमता से अपनी ताकत बढ़ाने में लगे हैं। लेकिन कम से कम एक दल ऐसा है, जो अर्जुन की तरह लक्ष्य पर निशाना साधे हुए है और वह है सुदेश महतो के नेतृत्व वाला आजसू। इस पार्टी ने इस बार विधानसभा चुनाव के लिए बड़े पैमाने पर तैयारी की है। उसकी तैयारी पूरे राज्य में समान रूप से चल रही है, हालांकि सभी को पता है कि एनडीए का घटक होने के नाते उसे सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिलेगा।

    भाजपा के मूव से आजसू असहज
    हाल के दिनों में भाजपा ने दूसरे दलों के विधायकों को जिस तरह अपने पाले में किया है, उससे आजसू खुद को असहज महसूस करने लगा है। विपक्ष के जो विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं, उनमें से कम से कम दो सीटों पर आजसू की मजबूत दावेदारी है। पहली सीट है लोहरदगा, जिस पर पिछली बार आजसू के कमल किशोर भगत ने सुखदेव भगत को हराया था। हालांकि बाद में अदालत द्वारा सजा सुनाये जाने के बाद कमल किशोर की सदस्यता चली गयी थी और लोहरदगा में उप चुनाव हुआ था। उसमें सुखदेव भगत जीते थे। दूसरी सीट चंदनकियारी है, जहां से 2009 में उमाकांत रजक जीते थे। पिछली बार वहां से झाविमो के टिकट पर अमर बाउरी जीते और बाद में वह भाजपा में शामिल हो गये। इस बार उमाकांत रजक फिर से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। आजसू ने यदि इन दोनों सीटों पर समझौता किया, तो कमल किशोर भगत और उमाकांत रजक अलग रास्ता अपना सकते हैं।
    इसके अलावा आजसू इस बात को लेकर असहज है कि बहरागोड़ा के विधायक कुणाल षाड़ंगी भाजपा में आ गये हैं। बहरागोड़ा में पिछले चुनाव से पहले आजसू ने बहुत काम किया था, लेकिन समझौते में यह सीट भाजपा के कोटे में चली गयी। तब कुणाल झामुमो में चले गये और जीत भी गये। इस बार कुणाल षाड़ंगी को भाजपा का टिकट मिलना लगभग तय है। उस स्थिति में आजसू को एक बार फिर बहरागोड़ा से बाहर ही रहना होगा।

    आजसू को याद है हटिया और गोमिया का बलिदान
    आजसू को पिछले चुनाव से पहले हटिया और गोमिया का बलिदान याद है। उसने भाजपा के दबाव में आकर ये दोनों सीटें छोड़ दी थीं। तब नवीन जायसवाल आजसू में थे। उन्होंने आजसू छोड़ दी और झाविमो के टिकट पर चुनाव जीत गये। इसके बाद वह भाजपा में शामिल हो गये। उसी तरह गोमिया से भाजपा ने माधव लाल सिंह को लड़ाया। आजसू वहां से डॉ लंबोदर महतो को लड़ाना चाहती थी। ये दोनों सीटें भाजपा ने ले तो लीं, लेकिन दोनों सीटें विपक्ष के पास चली गयीं। हालांकि हटिया सीट बाद में भाजपा के पास आ गयी। इस बार आजसू उस गलती को किसी कीमत पर नहीं दोहरायेगा, क्योंकि उसे पता है कि यदि इस बार उसने इन सीटों पर समझौता किया, तो पार्टी को एकजुट रखने में दिक्कत हो सकती है।

    15 सीटों से कम पर समझौता करना आजसू के लिए होगा खतरनाक
    जानकार बताते हैं कि एनडीए को बनाये रखने के लिए आजसू को हर हाल में कम से कम 15 सीटें देनी ही होंगी। इससे कम सीटें मिलने पर आजसू को एकजुट रख पाना बेहद मुश्किल होगा। इनमें सिमरिया, पाकुड़, चंदनकियारी और लोहरदगा ऐसी सीटें हैं, जहां आजसू की पकड़ बेहद मजबूत है। ये सीटें यदि आजसू को नहीं दी गयीं, तो यहां से चुनाव लड़ने की तैयारी कर चुके नेता अलग रास्ता पकड़ सकते हैं।

    अब भाजपा के पाले में है तालमेल की गेंद
    एनडीए के सबसे बड़े घटक के तौर पर इस पेंच को सुलझाने की जिम्मेवारी स्वाभाविक तौर पर भाजपा के पास है। भाजपा ने 65 प्लस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर तरह के हथियार का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं कर रही है। झारखंड में आजसू की स्थिति ऐसी बन गयी है कि उसकी उपेक्षा का खतरा भाजपा नहीं उठा सकती। ऐसे में उसके सामने चुनौती इस बात की है कि वह अपने इस सहयोगी को कैसे संतुष्ट करती है।

    भाजपा ने खेती खरीदी है, खेत नहीं : आजसू
    इन तमाम समीकरणों पर आजसू के केंद्रीय प्रवक्ता डॉ देवशरण भगत कहते हैं, हम एनडीए की एकजुटता और मजबूती के पक्षधर हैं। भाजपा ने खेती खरीदी है, खेत नहीं। लोहरदगा या चंदनकियारी में खेत तो हमारा ही है। हालांकि वह साफ करते हैं कि हम रिश्ता जोड़ने और मजबूत करने में भरोसा करते हैं। हम झारखंड में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस बार आजसू मजबूरी में नहीं, बल्कि मजबूती से चुनाव लड़ेगा। हमने तैयारी की है। क्षेत्र में काम किया है। सीट शेयरिंग का फैसला तो पंचों की राय से होगा।
    अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपने इस विश्वस्त और मजबूत सहयोगी आजसू के लिए कितनी सीटें छोड़ती है और सुदेश महतो अपनी पार्टी को एकजुट रखने के लिए क्या रणनीति अपनाते हैं। वैसे जानकार मानते हैं कि भाजपा आलाकमान को पता है कि आजसू के बिना उसकी ताकत कम हो जायेगी। इसलिए वह आजसू की जरूरतें पूरी करने के लिए त्याग करने को तैयार हो जायेगा।

    Pressure on AJSU leadership for seat sharing
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