झारखंड की उप राजधानी दुमका और कोयला क्षेत्र की प्रमुख सीट बेरमो में तीन नवंबर को होनेवाले विधानसभा उप चुनाव के लिए प्रचार अभियान जोरों पर है। इन दोनों सीटों पर मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ झामुमो-कांग्रेस और भाजपा के बीच है। कोरोना काल में हो रहे इस चुनाव में प्रचार का तरीका भी बदल गया है। हालांकि राजनीतिक सभाओं की अनुमति दी गयी है, लेकिन उनमें पहले जितनी भीड़ नहीं उमड़ रही है। ऐसे में लोगों से निजी संपर्क और संवाद बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। प्रचार में दोनों पक्षों ने पूरी ताकत झोंक रखी है, लेकिन पिछले दो-तीन दिनों के दौरान भाजपा के भीतर ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंवाद के स्तर पर कुछ कमजोरी देखने को मिल रही है। यह कमजोरी दोनों सीटों पर लोगों से निजी संपर्क के मोर्चे पर है। दुमका में भाजपा के सभी नेता खूब पसीना बहा रहे हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर ऐसा कोई चेहरा पार्टी सामने नहीं ला सकी है, जो ग्रामीण मतदाताओं के साथ घुल-मिल सके, उनकी भाषा में बात कर सके। संथाल में लुइस मरांडी के अलावा भाजपा के पास बाबूलाल मरांडी हैं, लेकिन 15 साल तक भाजपा के विरोध में रहने के कारण उनकी स्वीकार्यता अब कितनी है, यह दिखना अभी बाकी है। बेरमो में भी कमोबेश यही स्थिति बनती दिख रही है। दुमका और बेरमो में भाजपा और झामुमो-कांग्रेस की ज्जमीनी स्तर पर पकड़ को रेखांकित करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
दुमका और बेरमो विधानसभा क्षेत्र में तीन नवंबर को होनेवाले उप चुनाव का शोर लगातार बढ़ रहा है। सत्तारूढ़ झामुमो-कांग्रेस और विपक्षी भाजपा की ओर से इन दोनों सीटों को जीतने के लिए पूरी ताकत झोंकी जा चुकी है। कोरोना काल में हो रहे इस उप चुनाव में बहुत सी चीजें पहली बार हो रही हैं। चुनाव प्रचार का तौर-तरीका भी बहुत हद तक बदला हुआ है। बदले तरीके से चुनाव प्रचार में सबसे अंतिम कतार के मतदाताओं से संपर्क-संवाद बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। दुमका में झामुमो के बसंत सोरेन और भाजपा की प्रो लुइस मरांडी के बीच मुकाबला है, जबकि बेरमो में कांग्रेस के कुमार जयमंगल उर्फ अनुप सिंह और भाजपा के योगेश्वर महतो बाटुल आमने-सामने हैं। इन दोनों क्षेत्रों में चल रहे चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक बात उभर कर सामने आयी है कि इस नये तरीके में भाजपा स्थानीय लोगों से संवाद में कहीं न कहीं पिछड़ रही है। हालांकि वह दोनों ही सीटों पर पूरी ताकत झोंके हुए है।
बात शुरू करते हैं दुमका से। यहां भाजपा के पास सबसे बड़ा संथाली चेहरा खुद प्रो लुइस मरांडी ही हैं। उनके अलावा कोई ऐसा नेता नहीं है, जो दुमका के गांवों में जाकर स्थानीय भाषा में ग्रामीणों से बात कर सके और उन्हें भाजपा के पक्ष में वोट देने के लिए कह सके। दुमका के सांसद सुनील सोरेन पहले से ही विवादों में घिरे हैं और वह पार्टी की बहुत अधिक मदद करने की स्थिति में नहीं हैं। वैसे भी सुनील सोरेन बहुत वोकल नहीं हैं। गोड्डा के सांसद डॉ निशिकांत दुबे अब तक प्रचार अभियान में उतरे नहीं हैं। उनके साथ एक समस्या यह भी है कि दुमका के इलाके में ग्रामीण इलाके में उनका बहुत अधिक असर नहीं है। विधायकों में रणधीर सिंह जरूर प्रो लुइस मरांडी के पक्ष में ताकत लगाये हुए हैं, लेकिन आदिवासियों में वह कितने असरदार साबित होंगे, यह देखना अभी बाकी है। भाजपा के पास दूसरा बड़ा आदिवासी चेहरा बाबूलाल मरांडी का है। लेकिन उनके साथ समस्या यह है कि उन्हें भाजपा में लौटे अभी आठ महीने ही हुए हैं। लगभग 15 साल तक भाजपा के खिलाफ खड़े होनेवाले बाबूलाल को दुमका की जनता कितना भाजपाई मानती है, यह इस चुनाव में साबित हो जायेगा। इसके अलावा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के नवनियुक्त अध्यक्ष सह सांसद समीर उरांव लंबे समय से संथाल इलाके में काम कर रहे हैं, लेकिन स्थानीय आदिवासी उनसे पूरी तरह घुल-मिल नहीं सके हैं। भाजपा के लिए यह बहुत बड़ी परेशानी है। दूसरी तरफ झामुमो की बात करें, तो उसके पास हेमंत सोरेन के अलावा स्टीफन मरांडी, नलिन सोरेन, लोबिन हेंब्रम और कई अन्य स्थानीय नेताओं की कतार है, जो गांवों में बेधड़क जा सकते हैं और स्थानीय ग्रामीणों से उनकी ही भाषा में संवाद स्थापित कर सकते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भाजपा के नेता दुमका में पूरी ताकत लगाये हुए हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि यह उनकी नेतृत्व क्षमता और स्वीकार्यता की परीक्षा तो है ही, साथ ही दिसंबर में हुई पराजय का बदला लेने का सबसे अच्छा मौका भी है। लेकिन इस प्रयास में स्थानीयता के अभाव की कमी साफ झलक रही है। दुमका के स्थानीय भाजपाई अब तक चुनाव प्रचार में पूरी तरह सक्रिय नहीं हुए हैं। इसका कारण चाहे जो हो, लेकिन यह पार्टी उम्मीदवार के लिए भारी पड़ रहा है।
अब बात बेरमो की। दिसंबर में हुए चुनाव में भाजपा उम्मीदवार बाटुल के हारने का एक प्रमुख कारण आम लोगों से उनकी दूरी को बताया गया था। इस बार पार्टी ने फिर उन्हें मैदान में उतारा है। लेकिन इस बार भी बाटुल के पुराने रवैये में कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा है। नामांकन दाखिल करने के बाद से अब तक बाटुल का चुनाव प्रचार शहरी इलाकों तक ही सीमित है। भाजपा के लोग ग्रामीण इलाकों तक नहीं पहुंच सके हैं। इसके विपरीत कांग्रेस के कुमार जयमंगल उर्फ अनुप सिंह पूरे क्षेत्र का एक चक्कर लगा चुके हैं। आज स्थिति यह है कि बेरमो के हर गांव में कांग्रेस प्रत्याशी का चुनावी कार्यालय काम कर रहा है, जबकि भाजपा के लोग अब भी रणनीति बनाने में और शहरी इलाकों तक सिमट कर रह गये हैं।
बदली हुई परिस्थितियों के चुनाव प्रचार अभियान में इस तरह की कमजोरी प्रत्याशी की संभावनाओं पर विपरीत असर डाल सकती है। इसलिए भाजपा को तेजी से काम करना होगा और अपनी रणनीति को परिस्थितियों के अनुरूप ढालना होगा। यह एक स्थापित अवधारणा है कि चुनावी राजनीति में जो पक्ष लचीली रणनीति अपनाता है, उसकी सफलता की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। इसलिए भाजपा के सामने अब अपनी रणनीति में आवश्यक बदलाव करने की बड़ी चुनौैती है। यह काम वह जितनी जल्दी कर लेगी, उसके लिए अच्छा रहेगा।