पिछले साल जब झारखंड में विधानसभा चुनाव की गहमागहमी थी, कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में राज्य के किसानों का कर्ज माफ करने की घोषणा की थी। चुनाव हुए और झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन को सत्ता मिल गयी। दिसंबर में सरकार बनाने के महज तीन महीने बाद ही कोरोना का संकट पैदा हो गया और पूरे देश का पहिया थम गया। इस संकट के बीच अब हेमंत सोरेन सरकार ने राज्य के आठ लाख किसानों का 25 हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी है, जिसे किसानों के हित में एक बड़ा कदम माना जा रहा है, साथ ही एक वर्ग इसे एक बड़े राजनीतिक दांव के रूप में देख रहा है। सत्ता संभालने के बाद से ही हेमंत सोरेन लगातार राज्य की बदहाल अर्थव्यवस्था की बात कहते रहे हैं। इसी बदहाली के कारण उन्हें कई लोकप्रिय योजनाओं को बंद करने का कठोर फैसला लेना पड़ा, जिसमें से एक मुख्यमंत्री कृषि आशीर्वाद योजना भी थी। अब उन्होंने किसानों के हित में बड़ा फैसला तो ले लिया है, लेकिन इसके कारण राज्य के खजाने पर पड़नेवाले दो हजार करोड़ के बोझ को वह कैसे संभालेंगे, यह उनके लिए कठिन चुनौती है। एक तरफ जहां किसान इसे अच्छा कदम मान रहे हैं, वहीं विपक्ष उनकी इस घोषणा को संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है। विपक्ष यह जानना चाह रहा है कि आखिर अर्थव्यवस्था के थमे पहिये पर दो हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ डालने का फैसला कहां तक उचित है। जिन किसानों को कर्ज से मुक्ति मिलनेवाली है, वे तो हेमंत के फैसले से जरूर खुश होंगे, लेकिन इसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर कितना और क्या असर होगा, इसकी पड़ताल करती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
दो दिन पहले 29 सितंबर को जब कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह ने झारखंड के किसानों का कर्ज माफ किये जाने की घोषणा की, किसी को इस पर भरोसा नहीं हुआ। लेकिन अगले ही दिन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस फैसले को अपनी मंजूरी देकर साफ कर दिया कि उनकी सरकार किसानों की समस्या को लेकर संजीदा है। हेमंत सरकार के इस फैसले का लाभ राज्य के करीब आठ लाख किसानों को मिलेगा। उनके 25 हजार रुपये तक के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे। राज्य के बदहाल खजाने पर इस फैसले से करीब दो हजार करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। कोरोना संकट और लॉकडाउन के कारण झारखंड की अर्थव्यवस्था के पहिये पर इतना बड़ा बोझ डालने का फैसला सही है या गलत, यह तो बाद में तय होता रहेगा, लेकिन एक बात तय है कि हेमंत सोरेन सरकार ने यह फैसला कर बड़ा राजनीतिक दांव खेला है। उनका यह फैसला विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले तत्कालीन सरकार द्वारा घोषित मुख्यमंत्री कृषि आशीर्वाद योजना से बड़ा साबित हो सकता है, लेकिन शर्त केवल इतनी है कि इसे ठीक ढंग से लागू किया जाये।
पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में जब 2018 में कांग्रेस सत्ता में लौटी, तब उसने भी अपने इस चुनावी वादे को पूरा किया था। लेकिन उसका पूरा लाभ किसानों को नहीं मिल पाया। ऐसे में झारखंड सरकार को इसे लागृू करवाने के लिए पग-पग पर मॉनिटरिंग करनी पड़ेगी, वरना परिणाम उलट भी पड़ सकता है।
झारखंड में खेती की हालत क्या है, यह किसी से छिपी नहीं है। करीब 79 हजार 714 वर्ग किलोमीटर वाले झारखंड में खेती-किसानी कागजों पर तो अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्तंभ है, लेकिन हकीकत कुछ और है। राज्य की अर्थव्यवस्था में खेती-किसानी का बहुत अधिक योगदान नहीं रहा है। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान जहां 22 से 25 प्रतिशत है, वहीं झारखंड में यह महज पांच से आठ प्रतिशत है। झारखंड में खेती की यह हालत केवल इसलिए है, क्योंकि किसी भी सरकार ने इसके विकास की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। करीब 24 हजार वर्ग किलोमीटर की वन संपदा वाले राज्य में केवल 38 लाख हेक्टेयर जमीन ही खेती के लायक है और उसमें भी महज 10 प्रतिशत में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। झारखंड के 90 प्रतिशत खेत मानसून पर निर्भर हैं। पिछले दो दशक में यदि इस तरफ ध्यान दिया जाता, तो आज राज्य की स्थिति कुछ और होती। राज्य में किसानों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। खेती से जुड़ी आधारभूत सुविधाओं, जैसे कोल्ड स्टोरेज, मंडी और परिवहन की कमी के कारण राज्य के अधिकांश किसान अपनी पैदावार बिचौलियों के हाथों बेचने पर मजबूर होते हैं। फसलों की सरकारी खरीद की व्यवस्था इतनी लचर है कि किसानों को अकसर निराश होना पड़ता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हेमंत सोरेन सरकार ने राज्य की खेती की तरफ ध्यान दिया है। सरकार सामूहिक खेती कराने की योजना बना रही है। खाली पड़ी जमीन पर खेती कराने से न केवल रोजगार के अवसर पैदा होंगे, बल्कि आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ेंगी। राज्य में इस साल मानसून भी अच्छा रहा है और बंपर पैदावार का अनुमान है। झारखंड के किसान मेहनती हैं और वे अपनी मिट्टी से जुड़ कर और उसे अपनी कामयाबी का जरिया बना कर झारखंड को विकास के रास्ते पर लौटा सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें प्रोत्साहन दिया जाना जरूरी है। कर्ज माफी इसका एक रास्ता जरूर है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता। जानकारों का कहना है कि कर्ज माफी के साथ किसानों की नियमित आय की भी व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए।
हेमंत सोरेन सरकार का कर्ज माफी का फैसला निश्चित तौर पर उन्हें राजनीतिक रूप से माइलेज देगा, लेकिन राज्य के खजाने की सेहत का ध्यान भी उन्हें ही रखना है। इसके साथ ही फैसले का सही क्रियान्वयन भी एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि पहले का अनुभव बेहद कटु रहा है। यदि हेमंत सोरेन सरकार अपने इस फैसले को धरातल पर उतार ले गयी, तो फिर इसे एक मास्टर स्ट्रोक की श्रेणी में रखा जायेगा। इसमें जरा सी चूक न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि राजनीतिक रूप से भी नुकसानदेह साबित हो सकता है। विपक्ष अभी से ही इस फैसले पर अंगुली उठाने लगा है और उसे सरकार की नीयत पर संदेह है, लेकिन हेमंत सोरेन की कार्यशैली से ऐसा तो नहीं लगता कि वह इतने बड़े फैसले को बेकार जाने देंगे।