राजनीति सचमुच ऐसा विषय है, जिसे न तो इतिहास से कोई मतलब रहता है और न ही भविष्य से। यह केवल वर्तमान पर जीता है और वर्तमान के बारे में ही सोचता है। इसलिए कहा जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न कोई स्थायी दुश्मन। बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान यह बात पूरी तरह सही साबित हो रही है। कल तक जो दल एक साथ होने का दंभ भर रहे थे, आज छिटक कर दूर खड़े दिख रहे हैं। बिहार में 15 साल से सत्तारूढ़ एनडीए को चुनौती देने के लिए जिस महागठबंधन की तैयारी की जा रही थी, वह अब ‘गांठों के बंधन’ में बदलता दिखाई दे रहा है। इस गठबंधन के दो प्रमुख घटक राजद और कांग्रेस ने सीटों का बंटवारा कर लिया है। इस बंटवारे में इन दोनों दलों ने कम से कम तीन घटक दलों को एक भी सीट नहीं दी है। ये दल हैं, झामुमो, माकपा और वीआइपी। सीट बंटवारे के एलान के साथ वीआइपी महागठबंधन से अलग हो गया है, जबकि झामुमो और माकपा के भीतर इस फैसले को लेकर असहज स्थिति पैदा होने की पूरी संभावना है। झामुमो की उपेक्षा करना राजद और कांग्रेस के लिए इसलिए भी भारी पड़ सकता है, क्योंकि झारखंड में इन तीनों की सरकार है। इसलिए बिहार में महागठबंधन के सीट बंटवारे की धमक झारखंड में भी सुनाई पड़ सकती है। माकपा भी अब अलग रास्ता अख्तियार करने पर विचार कर रही है। इस तरह बिहार का चुनावी मुकाबला दिलचस्प मोड़ पर पहुंचता दिख रहा है। इस सियासी चाल और उसके संभावित असर को रेखांकित करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास पेशकश।
शनिवार को पटना में राजद और कांग्रेस के नेताओं द्वारा सीट शेयरिंग की घोषणा किये जाने के दौरान जो घटनाक्रम हुआ, उसका साफ संकेत यही था कि बिहार में विपक्ष का महागठबंधन पूरी तरह बिखर चुका है। राजद, कांग्रेस और दो वामपंथी पार्टियां ही इस महागठबंधन में शामिल हैं। मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी, यानी वीआइपी ने अलग राह अपनाने का एलान कर दिया, जबकि झामुमो और माकपा के दावों को राजद-कांग्रेस ने कोई तरजीह नहीं दी।
बिहार में हुए इस सीट बंटवारे का सियासी मतलब साफ है कि विपक्ष की कमान राजद के हाथों में है और कांग्रेस इसकी पिछलग्गू मात्र है। पिछले चुनाव की तुलना में इस बार कांग्रेस और राजद ने अपनी-अपनी सीटों की संख्या बढ़ा कर अपना-अपना कद तो बढ़ा लिया, लेकिन सहयोगियों मुकेश सहनी और झामुमो की सीटों पर स्थिति साफ नहीं की। यही कारण था कि महागठबंधन के बीच सीटों के एलान के दौरान ही बगावत दिखी। पिछली बार कांग्रेस 44 सीटों पर लड़ी थी और 27 पर उसे जीत हासिल हुई थी। इस बार उसे 70 सीटें मिली हैं। साथ में उपचुनाव में वाल्मीकिनगर लोकसभा सीट भी। राजद पिछली बार 101 सीटों पर लड़ा था और 85 सीटें उसके कब्जे में आयी थीं। इस बार राजद ने अपने लिए 144 सीटें ली हैं। लेकिन इस बंटवारे में न तो झामुमो को कोई सीट दी गयी और न ही माकपा को। वाम दलों को 29 सीटें दी गयी हैं, लेकिन इनका बंटवारा भाकपा और माले के बीच ही होगा।
बात शुरू करते हैं देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस से। कभी पूरे देश की राजनीति के केंद्र में रही कांग्रेस आज बिहार में पूरी तरह राजद पर आश्रित होकर रह गयी है। 1990 के आसपास से कांग्रेस की बिहार में लगातार जमीन खिसकती चली गयी। 1989-90 के दौरान मंडल और कमंडल आंदोलनों का मिजाज भांपने में कांग्रेस नाकाम रही और पार्टी ने अपना जनाधार खो दिया। अब कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए राजद के साथ रहने को मजबूर है। 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 169 सीटें जीतीं थीं। 1985 में तो 196 सीटें जीतकर कांग्रेस ने विरोधियों को धूल चटा दी, लेकिन ठीक पांच साल बाद मंडल और कमंडल आंदोलनों ने राजनीति बदल दी। कांग्रेस की बड़ी हार हुई। 1990 के चुनाव में कांग्रेस की मात्र 72 सीटों पर जीत हुई। 1995 में कांग्रेस 29 सीटों पर सिमट गयी। लालू ने कांग्रेस की जमीन ऐसी खिसकायी कि आज उसे उनकी ही जमीन की दरकार पड़ रही है।
अब बात राजद की। पिछले चुनाव में नीतीश के साथ मिल कर राजद सत्ता में जरूर आयी, लेकिन उसके अतीत और नेतृत्व की अपरिपक्वता ने उसे जल्दी ही सत्ता से बाहर कर दिया। इस तरह वह एक बार फिर 2010 की स्थिति में है। इसके उलट नीतीश कुमार के साथ भाजपा मजबूती से खड़ी है और जदयू-भाजपा गठजोड़ के साथ अब महादलितों के नेता जीतनराम मांझी भी जुड़ चुके हैं। राजद को मांझी और सहनी के अलावा रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा के अलग होने की परेशानी से जूझना पड़ रहा है। इसके साथ अपने ही घर में मचे घमासान ने पार्टी के चुनावी नाव में कई छेद कर दिये हैं।
इसके साथ सीट बंटवारे में झामुमो की उपेक्षा का असर कम से कम झारखंड में भी पड़ना स्वाभाविक है। राजद और कांग्रेस झारखंड में झामुमो के साथ सत्ता में हिस्सेदार है। पार्टी ने बिहार में करीब एक दर्जन सीटों पर प्रत्याशी देने का एलान किया था। पिछले चुनाव में बांका और जमुई की पांच सीटों पर राजद कोे जीत दिलाने में झामुमो की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। यही नहीं, झारखंड में जब हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनील, तो सिर्फ एक विधायक वाले राजद को हेमंत सोरेन ने सम्मानजनक स्थान दिया और उसके एकमात्र विधायक सत्यानंद भोक्ता को मंत्रिमंडल में शामिल किया। लेकिन बिहार चुनाव में राजद ने इस उपकार को भुला दिया। अब, जबकि झामुमो को कोई सीट नहीं दी गयी है, झारखंड में राजद-कांग्रेस के साथ उसके रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा, यह देखना वाकई दिलचस्प होगा। उधर माकपा को भी राजद-कांग्रेस ने ठेंगा दिखा दिया है, जिससे पार्टी के भीतर खासी नाराजगी है। पार्टी के भीतर अलग रास्ता अख्तियार करने पर विचार शुरू हो गया है।
इस तरह बिहार में जिस ‘महागठबंधन’ का दावा किया जा रहा था, उसका सफर ही अलग-अलग शुरू हुआ है और यह ‘गांठों से भरा बंधन’ बन कर रह गया है। यह गठबंधन 15 साल से सत्तारूढ़ नीतीश कुमार और एनडीए को कितनी कड़ी चुनौैती देगा, इस बारे में अभी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन इतना तो तय है कि बिहार चुनाव के दौरान और बाद में कई नये सियासी समीकरणों से देश का सामना होगा, जिसका दूरगामी असर पड़ेगा।