जेएनयू से मुख्यधारा की राजनीति में आए सीपीआई के नेता कन्हैया कुमार इन दिनों अपनी ही पार्टी से नाराज चल रहे हैं। कन्हैया कुमार बिहार विधानसभा चुनाव में टिकट की उम्मीद लगाए बैठे थे लेकिन सीपीआई ने उन्हें विधानसभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी न उतारने का निर्णय लिया। नतीजतन पार्टी और पार्टी की विचारधारा से जुड़े मामलों में कन्हैया कुमार ने चुप्पी साध रखी है।
जेएनयू के विद्यार्थी आंदोलन से उभरे कन्हैया कुमार वामपंथी आंदोलन के पोस्टर-बॉय रहे हैं। जेएनयू में 2016 में गूंजे देश विरोधी नारों के दाग अपने दामन पर लिए कन्हैया कुमार, उमर खालिद और शेहला राशिद ऐसे 3 युवा चेहरे राजनीति में बड़ी तेजी से उभरे थे। इन तीनों में कन्हैया कुमार अकेले ही राजनीति के रास्ते पर चल पड़े। लोकसभा के आम चुनाव में कन्हैया कुमार को बिहार की बेगूसराय सीट से बतौर सीपीआई प्रत्याशी उतारा गया था। उन्हें भाजपा के कद्दावर नेता गिरिराज सिंह से 4 लाख 22 हजार वोटों से मात खानी पड़ी। अपने राजनीतिक करियर के पहले ही चुनाव में इतने बड़े नेता से लोहा लेने के एवज में कन्हैया कुमार बिहार विधानसभा चुनाव में टिकट की उम्मीद लगाए बैठे थे। पार्टी से टिकट न मिलने का अहसास कन्हैया को काफी पहले हो गया था। नतीजतन सीपीआई और पार्टी की विचारधारा से जुड़े कई मामलों में कन्हैया ने दूरी बनाने का फैसला कर लिया है। यही वजह है कि कन्हैया ने उमर खालिद की गिरफ्तारी से लेकर हाथरस कांड तक कई मामलों पर मौन रहने का फैसला किया है।
राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ीं: डॉ. कोलमकर
वामपंथी राजनीति का गहरा अध्ययन करने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ. अनंत कोलमकर ने बताया कि भारतीय समाज में हिंसा को पसंद नहीं किया जाता नतीजतन कन्हैया और उनके जैसे नेता हथियार उठाने वालों के साथ दिखना पसंद नहीं करते। बेगूसराय़ चुनाव से कन्हैया की राजनीतिक सूझबूझ में इजाफा हो गया है और कन्हैया की महत्वाकांक्षा भी बढ़ गई है। नतीजतन बिहार विधानसभा में टिकट ना मिलने से कन्हैया फिलहाल नाराज चल रहे हैं। डॉ. कोलमकर कहा कि दिल्ली दंगों के मामले में उमर खालिद की गिरफ्तारी के बाद कन्हैया फेसबुक पर 2 हजार शब्दों की अपनी पोस्ट में सीधे तौर पर उमर खालिद का साथ देने से बचते नजर आए।
मौका परस्त होते हैं वामपंथी: सुनील किटकरू
पूर्वोत्तर भारत में कई वर्ष सेवा कार्य करने वाले और वामपंथी इतिहास का गहरा अध्ययन करने वाले सुनील किटकरू ने कन्हैया कुमार के साथ-साथ वामपंथी चरित्र को कठघरे में खड़ा किया है। किटकरू ने बताया कि वामपंथी आंदोलन का दूसरा चेहरा रहे नक्सलवाद में बहुत बदलाव आया है। मौजूदा वक्त में हार्डकोर और अर्बन नक्सल में ऐसा विभाजन साफ तौर पर देखा जा सकता है। अर्बन नक्सलियों में भी दलित और मुस्लिम खेमे बन चुके हैं। दलित खेमे में आनंद तेलतुंबडे, सुधीर ढवले, महेश राऊत, सुरेंद्र गडलिंग जैसे लोग शामिल हैं। वहीं मुस्लिम खेमे में उमर खालिद, शेहला राशिद, शरजील इमाम और सफुरा जर्गर जैसे लोग हैं। प्रो. साईबाबा, शोमा सेन, सुधा भारद्वाज, गौतम नौलखा, स्टेन स्वामी जैसे लोग तीसरे खेमे में आते हैं। चुनावी राजनीति में किस्मत आजमाने वाले वामपंथी केवल हिंसा फैलाने वाले नक्सलियों के साथ-साथ अर्बन नक्सलियों से भी दूरी बनाए रखते हैं।
Share.

Comments are closed.

Exit mobile version