कोरोना का संकट काल छोड़ भी दें, तो सामान्य दिनों में भी झारखंड की सवा तीन करोड़ आबादी के लिए रांची का रिम्स सबसे भरोसेमंद संस्थान है, जहां आकर लोग अपना मर्ज थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन भूल जरूर जाते हैं। तमाम खराबियों और कुप्रबंधन के बावजूद राज्य का यह सबसे बड़ा अस्पताल झारखंड ही नहीं, आसपास के राज्यों के गरीब लोगों के भरोसे का केंद्र है। लेकिन हाल के दिनों में इस संस्थान की विश्वसनीयता को कुप्रबंधन और संवेदनहीनता के दीमक ने खोखला बना दिया है। तभी यहां भर्ती मरीज पानी के लिए तड़प कर मर जाता है, तो किसी मरीज को थाली की जगह जमीन पर ही खाना दे दिया जाता है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस संस्थान की सारी व्यवस्थाएं बेपटरी हो चुकी हैं और यहां जरूरतमंद मरीजों का नहीं, बल्कि केवल ऊंची पहुंचवाले लोगों का ही इलाज होता है। अब लोगों को लगने लगा है कि रिम्स में अनुशासन और व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं बची है। लोग अब इस अस्पताल के नाम से ही घबड़ाने लगे हैं और यहां आने से कतराने लगे हैं। आखिर रिम्स की यह हालत क्यों हो गयी है। जिस संस्थान पर राज्य के बीमार लोगों की चिकित्सा करने का दायित्व हो, वहां इतनी लापरवाही कैसे हो रही है। राज्य के इस सबसे बड़े अस्पताल पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
झारखंड की सवा तीन करोड़ आबादी के भरोसे का सबसे बड़ा केंद्र, यानी रांची का राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान एक बार फिर चर्चा में है। यह चर्चा राज्य के इस सबसे बड़े अस्पताल के माथे पर कलंक का ऐसा टीका है, जिसे मिटा पाना लगभग असंभव है। इस अस्पताल में भर्ती एक मरीज प्यास से तड़प कर मर गया। प्राण त्यागने से पहले उसके परिजन पानी लेकर आये, लेकिन अस्पताल के कर्मियों ने मरीज तक पानी नहीं पहुंचाया। यह घटना किसी भी इंसान के रोंगटे खड़े कर सकती है। आज जब दुनिया थ्री-डी तकनीक से मानव शरीर के अंंग का कृत्रिम उत्पादन कर रही है, मनुष्य को नया जीवन प्रदान किया जा रहा है, वहां एक मरीज प्यास से तड़प कर मर जाये, तो इसे व्यवस्था का ही दोष कहा जा सकता है।
रिम्स में हुई इस घटना ने पूरे झारखंड को झकझोर कर रख दिया है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने घटना की जांच के आदेश दे दिये हैं और दोषियों पर कार्रवाई का भरोसा भी दिया है, लेकिन रिम्स की सड़ चुकी व्यवस्था और पूरी तरह मर चुकी मानवीय संवेदनाओं का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है। यही वह अस्पताल है, जहां मरीज को खाना नहीं मिला, तो उसने जिंदा कबूतर को नोच कर खा लिया। इतना ही नहीं, इसी अस्पताल में थाली नहीं होने के कारण एक मरीज को जमीन पर खाना परोस दिया गया। नवजात शिशुओं की अदला-बदली और चोरी, शवों के साथ अमानवीय व्यवहार और जांच रिपोर्ट बदलने जैसी घटनाएं तो अब यहां के लिए आम बात हो गयी है।
आखिर रिम्स की यह हालत क्यों हो गयी है। एक समय देश के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा संस्थानों में गिना जानेवाला रिम्स आखिर इस हाल में कैसे पहुंच गया। झारखंड के लोगों को रिम्स की इस हालत पर दुख होता है। यहां अब गरीबों का इलाज नहीं होता, बल्कि केवल पैरवी और पहुंच वालों की ही देखभाल होती है। बात-बात पर आंदोलन, हड़ताल और अव्यवस्था को यहां प्रश्रय दिया जाता है। कोई इस हालत को सुधारने के बारे में नहीं सोचता।
वर्ष 1960 में तत्कालीन बिहार सरकार ने राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने का फैसला किया। रांची के सदर अस्पताल में इसकी शुरुआत हुई। चार साल बाद इसका अपना भवन बनाया गया। उस समय देश का यह इकलौता ऐसा संस्थान था, जहां मेडिकल की पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था एक ही परिसर में थी। इस भवन की गिनती एशिया के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थानों में की जाती थी। कुशल डॉक्टर और चिकित्साकर्मी, प्रतिभाशाली विद्यार्थी और कर्तव्यनिष्ठ कर्मियों के कारण यहां आनेवाले मरीज खुद को पूरी तरह इसके हवाले कर देते थे। उन्हें भरोसा था कि रिम्स में उनकी सेहत को कोई खतरा नहीं है। लेकिन स्थापना के 60 साल बाद आज इस संस्थान की स्थिति ऐसी हो गयी है कि यहां जल्दी कोई आना नहीं चाहता है। झारखंड स्थापना की पहली वर्षगांठ पर तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आरएमसीएच को रिम्स का दर्जा देने का एलान किया और उसके बाद से इस संस्थान का पतन शुरू हो गया। आज रिम्स की स्थिति यह हो गयी है कि यहां आनेवाले मरीजों को हर समय यह डर सताता रहता है कि पता नहीं, यहां से जीवित लौटेंगे या नहीं। डेढ़ हजार बिस्तरों की क्षमता वाले इस संस्थान में विवाद और हड़ताल तो आम है, लेकिन मरीजों की समुचित देखभाल और उनकी सेवा-सुश्रूषा से किसी को कोई मतलब नहीं रह गया है।
ऐसा कतई नहीं है कि रिम्स के डॉक्टरों और चिकित्साकर्मियों की क्षमता और कुशलता पर किसी को संदेह है, लेकिन उनका व्यवहार और उनके तेवर से आम लोगों को डर लगता है। इस संस्थान में जितनी हड़ताल पिछले 20 साल के दौरान हुई, दुनिया के किसी स्वास्थ्य संस्थान में नहीं हुई। 20 साल के अंदर मरीजों के परिजनों की जितनी पिटाई की गयी, उतनी कहीं नहीं हुई।
यह वाकई दुखद स्थिति है। रिम्स से पूरे झारखंड की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। यह संस्थान राज्य के स्वास्थ्य की देखभाल का केंद्र है। गरीबों और बिना पैसेवाले लोगों को यहां आकर सफेद कोट में लिपटे धरती के भगवान के दर्शन होते हैं और सफेद यूनिफॉर्म में करुणा की प्रतिमूर्ति नर्सों की देखभाल की जरूरत होती है। इस संस्थान के भरोसे को बनाये रखने की जिम्मेवारी यहां के डॉक्टरों, चिकित्साकर्मियों और विद्यार्थियों की है। संस्थान को बनाने या बिगाड़ने का काम वहां के कर्मी ही करते हैं। रिम्स के लोगों को यह बात समझनी होगी। यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह यकीनन इस राज्य के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा, क्योंकि राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था रिम्स के मानकों पर ही तय होती है। इसलिए रिम्स को एक अनुशासित, सुव्यवस्थित और शानदार संस्थान बनाने का संकल्प लेने का समय आ गया है, ताकि इसके पुराने दिन लौटाये जा सकें और लोग एक बार फिर इलाज के लिए पहली प्राथमिकता के रूप में इस संस्थान का चयन करें।