विशेष
हरियाणा के सूरजकुंड में तीन दिन तक आयोजित गृह मंत्रियों के चिंतन शिविर के अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय नौकरशाही और विभिन्न जांच एजेंसियों को लेकर जो चिंता व्यक्त की है, वह सचमुच गंभीर है। पीएम मोदी ने पूरे देश की पुलिस व्यवस्था में एकरूपता लाने पर जो जोर दिया, वह भी इसी चिंता से जुड़ा हुआ है। वास्तव में हाल के कुछ वर्षों में भारतीय नौकरशाही ने खुद को ही सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। अपनी विश्वसनीयता को लगातार नौकरशाहों ने खतरे में डाला है। नौकरशाही की विवादित कार्यशैली और संविधान-कानून की बजाय राजनीतिक नेतृत्व के प्रति इसके उत्तरदायी होने के कारण नौकरशाही अपनी मूल भावना और उद्देश्य से दूर छिटकती चली गयी। वास्तव में स्वतंत्र भारत में नौकरशाही को सामंती सोच से अलग करके सेवाव्रती बनाने के लिए अनुच्छेद 310 के तहत एक संरक्षण दिया गया है, लेकिन अफसोस इस बात का है कि उसने खुद इस संरक्षण का बेजा फायदा उठाने की कोशिश की। हालांकि नौकरशाही को संरक्षण के मुद्दे पर संविधान सभा में जोरदार बहस हुई थी और कुछ सदस्यों ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि भविष्य में इसका फायदा उठा कर नौकरशाही जनरुचि के कामों में बाधाएं खड़ी करने लगेगी। आज उनकी यह चिंता पूरी तरह सही साबित हो रही है। पीएम मोदी ने अपने संबोधन में नौकरशाही के भटकाव को रेखांकित करते हुए जो कुछ कहा, उस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। राजनीतिक नेतृत्व के प्रति उत्तरदायित्व गलत नहीं है, लेकिन वह संविधान की कीमत पर नहीं होना चाहिए, यह बात सभी को समझनी होगी। पीएम मोदी के सूरजकुंड संबोधन की पृष्ठभूमि में भारतीय नौकरशाही के इसी पहलू का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरियाणा के सूरजकुंड में राज्यों के गृह मंत्रियों के चिंतन शिविर में जो कुछ कहा है, उसका लब्बो-लुआब यह है कि भारतीय नौकरशाही को अपनी गिरेवां में झांकने और अपना मूल्यांकन खुद करने का समय आ गया है। उन्होंने भारतीय संघवाद के इस फौलादी कवच के कमजोर होने और इसकी विश्वसनीयता कम होने पर जो चिंता जतायी है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज भारतीय नौकरशाही अपने मूल उद्देश्य से भटक गयी है और संविधान की बजाय उसकी प्रतिबद्धता अपने राजनीतिक आकाओं के प्रति अधिक हो गयी है। पीएम मोदी की चिंता को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।
आजादी के बाद से भारतीय नौकरशाही लगातार अपने स्वरूप में सैद्धांंतिक नहीं, तो व्यावहारिक बदलाव लाती रही है। आजादी के फौरन बाद नौकरशाहों ने संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को न केवल अंगीकार किया, बल्कि उसे आत्मसात भी किया। कई नौकरशाहों की कहानियां आज भी सुनने को मिलती हैं। लेकिन आज क्या हो रहा है। अधिकारी अपने राजनीतिक आका के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहता है। वह यह भूल गया है कि राजनीतिक आका आते-जाते रहेंगे, लेकिन लोकतंत्र हमेशा रहेगा। यही कारण है कि नौकरशाहों के फैसलों पर राजनीतिक सवाल खड़े किये जा रहे हैं। यही हाल केंद्रीय जांच एजेंसियों का भी है, जिन पर आरोप लगता रहा है कि वे ज् राजनीतिक नेतृत्व के इशारों पर काम करने के लिए तैयार रहती हैं।
यह हकीकत है कि भारतीय नौकरशाही को संविधान के तहत व्यापक संरक्षण मिला हुआ है। उस समय सरदार पटेल ने इस संवैधानिक संरक्षण का बचाव करते हुए कहा था कि आने वाले दिनों में इस बात की गारंटी नहीं है कि राजनीतिक अगुआ स्वाधीनता सेनानियों की तरह त्यागी और तपस्वी ही होंगे। हो सकता है कि भविष्य में अपने निजी उद्देश्यों के लिए वे नौकरशाही को दबाव में लेने की कोशिश करें। ऐसा हुआ तो यह व्यवस्था के लिए सही नहीं होगा। इसलिए सिस्टम चलाने वालों के लिए संरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन सूरजकुंड में गृह मंत्रियों के चिंतन शिविर में पीएम मोदी के संबोधन से साफ हो गया है कि आज स्थिति पूरी तरह बदली हुई है। राज्यों की पुलिस अपने राज्य की सरकारों के निर्देश पर काम करती है, तो केंद्र सरकार की एजेंसियां केंद्रीय नेतृत्व के कहे अनुसार। इससे राजनीतिक टकराव तो बढ़ा ही है, साथ ही संघवाद की नींव भी कमजोर हुई है। नौकरशाही की साख के कम होने का सबसे अच्छा उदाहरण झारखंड ही है। यहां एक हजार करोड़ के खनन घोटाले की बात तो खूब हो रही है, केंद्रीय जांच एजेंसियां काम भी कर रही हैं, लेकिन इसकी कुछ कार्य प्रणाली सवालों के घेरे में है। राज्य का एक बड़ा वर्ग पूछ रहा है कि क्या यह घोटाला 2019 के बाद ही हुआ और आज जो लोग इडी की गिरफ्त में हैं, क्या वे एक दिन में इतने ताकतवर हो गये। अगर नहीं, तो इस घोटाले की नींव रखनेवाले अधिकारी या नेता के खिलाफ एक्शन क्यों नहीं हो रहा। आखिर पूजा सिंघल मात्र ढाई साल में तो इतनी ताकतवर नहीं हुर्इं। उनका सभी सरकारों में रुतबा था। इसी तरह प्रेम प्रकाश और विशाल चौधरी मात्र ढाई साल में इतने ताकतवर नहीं बने हैं। वे पूर्व की सरकार में ही अपनी धमक दिख चुके थे। जिन अधिकारियों ने उन्हें झारखंड में इंट्री दिलायी, उनकी पहुंच बनायी, उनके खिलाफ भी एक्शन होना चाहिए था। दूसरा उदाहरण पश्चिम बंगाल का है। वहां के तत्कालीन मुख्य सचिव प्रधानमंत्री के दौरे के समय भी उनके समक्ष नहीं गये, जबकि प्रोटोकोल कहता है कि उन्हें हर हाल में जाना चाहिए था। चूंकि ममता बनर्जी की कृपा पर वह मुख्य सचिव बने थे और ममता बनर्जी खुद मिलने नहीं गयीं, तो वह भी नहीं गये। उन्हें डर सता रहा था कि अगर गये, तो कहीं नाराज होकर ममता बनर्जी उन्हें मुख्य सचिव पद से हटा न दें। इस तरह के दृष्टांट भरे पड़े हैं। इसी तरह देश के दूसरे हिस्सों में चल रही जांच कभी भी अंजाम तक नहीं पहुंचती है, चाहे वह 2 जी घोटाला हो या फिर उससे पहले का शेयर घोटाला। यहां तक कि आपराधिक मामलों की जांच भी बहुत देर से अंजाम तक पहुंचती है, जिसका सीधा असर जांच एजेंसियों और उनके अधिकारियों की विश्वसनीयता पर पड़ता है।
यह बात सही है कि देश में कदाचार और भ्रष्टाचार की कहानियां 70 के दशक से बढ़नी शुरू हुईं। राजनीति पर पैनी निगाह रखने वाले कुछ जानकारों का मानना है कि नेताओं को भ्रष्टाचार की ओर प्रवृत्त करने में सरकारी तंत्र के प्रभावी वर्ग की बड़ी भूमिका रही। जिन लोगों का भी पाला सरकारी तंत्र से पड़ा है, वे मानते हैं कि नौकरशाही ने व्यवस्था को सहजता की ओर मोड़ने की बजाय उसे और जटिल ही बनाया है। अमूमन सत्ता के शीर्ष केंद्र की तरफ से खुले तौर पर कभी इस व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाया जाता। माना जाता है कि इससे नौकरशाही नाराज हो सकती है।
इस संदर्भ में 2002 में बाल श्रम पर आयोजित देशभर के जिलाधिकारियों की कार्यशाला के समापन समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का संबोधन बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कह दिया था कि अगर अधिकारियों ने अपनी जिम्मेदारी निभायी होती, तो इस कार्यशाला की जरूरत ही नहीं पड़ती। ऐसा नहीं कि प्रशासनिक सुधार के लिए कोशिशें नहीं हुईं। 1966 में मोरारजी देसाई और 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में इन कमियों पर विचार करने और नौकरशाही में सुधार संबंधी सुझाव देने के लिए प्रशासनिक सुधार आयोग बनाये गये, लेकिन इनकी रिपोर्टों पर अमल नहीं हो पाया। माना जा सकता है कि नौकरशाहों के दबाव में ही राजनीतिक तंत्र यह काम नहीं कर पाया।
आजादी के बाद माना गया था कि नौकरशाही वैसी नहीं रहेगी, जैसी अंग्रेजों की थी। नौकरशाही को चुनने के लिए लोक सेवा आयोग की अवधारणा का मतलब भी यही था कि चुने गये लोग लोक के सेवक होंगे। हकीकत में देखें तो भारतीय नौकरशाही ‘यस मिनिस्टर’ का विस्तारित रूप बनती चली गयी। आजादी के आंदोलनों से क्रूरतापूर्वक निबटने वाली अंग्रेज नौकरशाही का सामना कर चुकी पीढ़ी अब अपने अवसान की ओर है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था के प्रति उसका क्षोभ कई बार इतना बढ़ जाता है कि उसके लोग भी यहां तक कह देते हैं कि अंग्रेजी व्यवस्था आज से कहीं बेहतर थी। मौजूदा सरकारी तंत्र में कर्मठ और लोकोन्मुखी लोग भी हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। जिस तरह की व्यवस्था विकसित हो गयी है, उसमें ढलना या चुप पड़े रहना एक दौर के बाद उनकी मजबूरी बन जाती है।
एक पूर्व अधिकारी नौकरशाही की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए कहते हैं, जब भी किसी जिम्मेदार अधिकारी के सामने कोई प्रस्ताव आता है, तो उसकी पहली प्रतिक्रिया उसे टालने की होती है। अगर वह टाल नहीं पाता, तो प्रस्ताव में वह पहले अपना फायदा देखता है। जरूरी नहीं कि वह आर्थिक ही हो। उनके मुताबिक, प्रस्ताव पर फैसला लेते वक्त अधिकारी सोचता है कि इससे उसकी अगली पोस्टिंग या प्रमोशन में कोई फायदा मिल सकता है या नहीं। अगर ऐसी कोई गुंजाइश नजर नहीं आती, तो वह अपने बैच का लाभ देखने की कोशिश करता है। अगर ऐसा भी नहीं हुआ, तो वह अपने संवर्ग के बारे में सोचता है। संवर्ग यानी अगर वह आइएएस है तो आइएएस के बारे में सोचेगा, आइपीएस है तो आइपीएस या आइआरएस है तो आइआरएस के बारे में। ऐसे मानस में लोक कहां रह जाता है? पूर्व अधिकारी का मानना है कि कहीं न कहीं, अधिकारियों के प्रशिक्षण में ही कमी है। इसी वजह से उनमें लोकोन्मुखी होने का भाव नहीं भर पाता और यही वजह है कि देश में अब तक जैसा जमीनी बदलाव दिखना चाहिए था, नहीं दिख रहा है। भारतीय नौकरशाही के बारे में यह भी कहा जाता रहा है कि वह भावी चुनौतियों को देख पाने की क्षमता विकसित करने में सफल नहीं हो पायी है।
इसलिए सूरजकुंड में पीएम मोदी के संबोधन को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है। भारतीय संविधान की एक खूबी यह भी है कि इसने शासन के किसी भी अंग को संपूर्ण स्वायत्तता नहीं दी है। इस खूबी को बरकरार रखने के लिए अब शासन के इन अंगों को ही आगे आना होगा, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब लोग अधिकारियों और केंद्रीय जांच एजेंसियों को भी राजनीतिक चश्मे से देखने लगेंगे।