• सियासी आकलन : यों ही खड़गे को कर्नाटक का सोलिलादा सरदारा नहीं कहा जाता

कांग्रेस को इस महीने नया अध्यक्ष मिलने जा रहा है। 24 साल बाद गांधी परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बनेगा। यह पहला अवसर होगा, जब गांधी परिवार परिवारवाद के आरोप से किसी मामले में खुद का बचाव कर पायेगा। हालांकि यह भी सर्वविदित है कि बिना सोनिया-राहुल की सहमति के कांग्रेस अध्यक्ष बनना किसी के बूते की बात नहीं। सो मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ाना आइवॉश ही है। मुखौटा तो उनका रहेगा, लेकिन गतिविधि वही होगी, जो गांधी परिवार को भायेगी। पोलिटिकल गलियारों में इसे रिमोट कंट्रोल कहा जाता है। सियासी आकलन के हिसाब से सब कुछ ठीक रहा, तो 19 अक्टूबर को मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस की बागडोर संभाल लेंगे। कहने को शशि थरूर भी चुनाव मैदान में हैं, लेकिन अब तक की राजनीतिक पकड़ के हिसाब से वह किसी गिनती में नहीं हैं। हां, जब चुनाव का आडंबर दिखाना है, तो कुछ खिलाड़ियों का मैदान में रहना जरूरी है, नहीं तो इसे फेयर चुनाव कैसे कहा जायेगा। कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में वॉकओवर तो हमेशा से गांधी परिवार को मिलता आया है। ऐसे खड़गे भी क्लीन स्वीप ही करेंगे, ये तय है, क्योंकि गांधी परिवार का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त है। कहने को तो कांग्रेस के नेता जोर देकर कह रहे कि चुनाव को लेकर गांधी परिवार का रुख तटस्थ है, लेकिन नॉमिनेशन की तस्वीर से ही साफ हो गया कि उनका हाथ किसके सिर पर है। खड़गे के नामांकन के वक्त तमाम बड़े नेताओं की फौज मौजूद थी, तो थरूर के पर्चा दाखिले के वक्त उनके अलावा बमुश्किल ही कोई ऐसा चेहरा था, जिसे आम लोग तो छोड़िए, कांग्रेस के कार्यकर्ता भी पहचान रहे होंगे। लिहाजा नतीजा पहले से तय दिख रहा कि खड़गे ही जीतेंगे। आलोचक भले ही कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव को दिखावा कहें, लेकिन यह अपने आपमें बहुत बड़ी बात है कि भारत में कोई राजनीतिक दल पूरे देश के सामने सार्वजनिक तौर पर आंतरिक चुनाव करा तो रहा है। अब देखना यह है कि 80 साल के खड़गे इतिहास के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस में नयी जान कैसे फूंकेंगे। चलिए मल्लिकार्जुन खड़गे की जीवन खिड़की में जरा झांक कर आते हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह के साथ।

संघर्ष भरा रहा सफर चूकते रहे सीएम पद से
मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए नामांकन कर दिया है। प्रबल संभावना है कि कांग्रेस के अगले अध्यक्ष वही बनेंगे। गांधी परिवार के कट्टर वफादारों में से एक मल्लिकार्जुन खड़गे का राजनीतिक जीवन बहुत ही शानदार रहा है। वह पांच बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गये। कहा जाता है कि पांचों बार उनका नाम सीएम पद के लिए लगभग तय था, लेकिन दिल्ली से अचानक आये फरमान के बाद पांचों बार वह सीएम बनने से चूक गये, लेकिन उन्होंने कभी भी कांग्रेस या गांधी परिवार के खिलाफ कुछ नहीं कहा। इसी कारण से उन्हें गांधी परिवार के वफादारों में से एक माना जाता है। या यूं कहें खड़गे गांधी परिवार के लिए खरा सोना से कम नहीं। मल्लिकार्जुन को 50 साल से ज्यादा का राजनीतिक अनुभव है। कांग्रेस में जगजीवन राम के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे दूसरे दलित नेता हैं, जिन्हें कांग्रेस में इतना सम्मान मिला है। इनकी दलित समाज में अच्छी पकड़ है और इन्हें गंभीर नेता माना जाता है। मल्लिकार्जुन खड़गे का जन्म 21 जुलाई 1942 को आज के कर्नाटक के बीदर जिले के वारवट्टी गांव में हुआ था। तब वह पुराने हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में आता था और वहां निजाम का राज था। जब वह सिर्फ सात साल के थे, तब सांप्रादियक दंगों में उन्हें अपनी मां और परिवार के सदस्यों को खोना पड़ा। इतना ही नहीं, दंगों की वजह से खड़गे परिवार को अपना घर-बार तक छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। परिवार को पड़ोसी कलबुर्गी जिले में आना पड़ा, जिसे पहले गुलबर्गा के नाम से जाना जाता था। शायद यही वजह है कि खड़गे सांप्रदायिकता के खिलाफ बहुत मुखर रहते हैं। गुलबर्गा जिले के वारवट्टी में एक गरीब परिवार में जन्मे मल्लिकार्जुन खड़गे अपनी स्कूली शिक्षा और बीए के साथ-साथ गुलबर्गा में कानून की पढ़ाई की। राजनीति में आने से पहले कुछ समय तक वह वकालत के पेशे में थे। उनका विवाह राधाबाई से हुआ है और उनके तीन बेटे और दो बेटियां हैं। उन्होंने संघ नेता के तौर पर अपने करियर की शुरूआत की। श्रमिकों के लिए काम करने के दौरान 1969 में वह कांग्रेस में शामिल हुए और गुलबर्गा सिटी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। उसके बाद उनके राजनीतिक करियर का ग्राफ बढ़ता चला गया। राजनीति में कड़ी मेहनत के चलते उन्हें हमेशा चैंपियन कहा गया। खड़गे 1990 में एस बंगारप्पा कैबिनेट और 1992 से 1994 तक एम वीरप्पा मोइली की कैबिनेट के सदस्य थे। 1994 में विधानसभा में विपक्ष के नेता बनने के बाद उनकी भूमिका बदल गयी। उस समय खड़गे की नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। यह पद उनका होते-होते रह गया। या यूं कहा जा सकता है हाथ को आया मुंह न लगा। जनता दल का सीएम बना। 1999 में वह फिर से मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में से एक थे, लेकिन एसएम कृष्णा ने उन्हें पछाड़ दिया। एसएम कृष्णा को सीएम बनाया गया और खड़गे उनके कार्यकाल में गृह मंत्री रहे। ऐसा ही एक मौका 2004 में भी आया था, लेकिन तब भी खड़गे शीर्ष पद से चूक गये, क्योंकि उनके करीबी दोस्त एन धरम सिंह ने कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन का नेतृत्व किया और उन्होंने उनके अधीन काम किया।

जब फिर चुके सीएम पद हासिल करने से
मल्लिकार्जुन खड़गे को 2005 में केपीसीसी प्रमुख के पद के लिए चुना गया था, उसके बाद उन्हें 2008 में दूसरी बार विपक्ष का नेता बनाया गया। उन्होंने 2013 में मुख्यमंत्री बनने का एक और मौका गंवा दिया, जब पार्टी ने कर्नाटक और दक्षिण में पहली बार भाजपा की सरकार गिराते हुए क्लीन स्वीप किया। इस बार सीएम पद के लिए खड़गे की चुनौती वास्तविक थी, लेकिन एक वफादार पार्टी के व्यक्ति के रूप में, वह सिद्धारमैया के सामने झुक गये, जिन्हें पार्टी आलाकमान ने पसंद किया था। 2019 में एचडी कुमारस्वामी और उनके बीच खींचतान सामने आयी। कुमारस्वामी ने इस्तीफा दिया तो खड़गे के सीएम बनने की खबरें आयीं, लेकिन इस बार वह फिर सीएम बनने से चूक गये और बीजेपी ने यहां बाजी मार ली और बीएस येदियुरप्पा को सीएम बनाया।

सोलिलादा सरदारा यानी अजेय सरदार
विधायक, राज्य सरकार में मंत्री, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, लोकसभा सांसद, केंद्रीय रेल मंत्री, श्रम मंत्री, राज्यसभा सांसद, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष। खड़गे अपने राजनीतिक जीवन में इन महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं और अब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे। उनके सियासी कद का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्हें कर्नाटक का ‘सोलिलादा सरदारा’ यानी ‘अजेय सरदार’ कहा जाता है। खड़गे विभिन्न परोपकारी और सामाजिक गतिविधियों से भी जुड़े हुए हैं। चुनाव की बात करें तो मल्लिकार्जुन हमेशा अजेय रहे। यहां तक कि लोकसभा चुनावों में मोदी लहर भी उन्हें नहीं हरा सकी। प्रबल मोदी लहर में जहां लोकसभा चुनाव में सूफड़ा साफ हुआ, उन्होंने गुलबर्गा से 74,000 से अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल की।

लगातार नौ बार रहे हैं विधायक
1971 में कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खड़गे को गुरमितकल विधानसभा सीट से टिकट दिया, जिसमें उन्होंने जीत हासिल की। इसके बाद से उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1971 से जीत का जो सिलसिला चला, वह 2019 तक जारी रहा। 2008 तक लगातार नौ बार वह कर्नाटक विधानसभा के सदस्य रहे। 2009 में कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा का टिकट दिया। उन्होंने कर्नाटक की गुलबर्गा लोकसभा सीट से जीत हासिल की। 2014 में वह फिर से लोकसभा के लिए चुने गये। हालांकि, 2019 में उनकी जीत का सिलसिला तब टूटा, जब बीजेपी उम्मीदवार से उन्हें शिकस्त झेलनी पड़ी। लेकिन कांग्रेस में उनकी मजबूत पकड़ होने के कारण जल्द ही उन्हें राज्यसभा में भेज दिया गया।

2009 तक कर्नाटक राजनीति में रमे खड़गे ने पूरे सूबे में अपनी छाप छोड़ी। हालांकि कभी वह सीएम नहीं बन पाये। वह राज्य सरकार में राज्यमंत्री से लेकर कैबिनेट मंत्री तक रहे। अहम विभागों को संभाला। 1994 में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने। 2008 में दूसरी बार इस पद को संभाला। उसी साल कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष की भी जिम्मेदारी संभाली। जब 2009 में सांसद बने, तब मनमोहन सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। 2014 में जब बीजेपी सत्ता में आयी तो वह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बने। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। गुलाम नबी आजाद के राज्यसभा से रिटायर होने के बाद कांग्रेस ने खड़गे को उच्च सदन में नेता प्रतिपक्ष बनाया।

खड़गे से राहुल को भविष्य में खतरा नहीं
खड़गे के चुनाव के पीछे सबसे बड़ी वजह उनकी उम्र भी है। खड़गे अभी 80 साल के हैं और 2024 लोकसभा चुनाव तक 82 साल के हो जायेंगे। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि खड़गे की बजाय कोई और अध्यक्ष बनता, तो राहुल के लिए भविष्य में चैलेंजर हो सकता था, लेकिन खड़गे के मामले में ऐसा नहीं है। खड़गे की जाति भी उनके सिलेक्शन की बड़ी वजह मानी जा रही है। खड़गे दलित हैं, जो वोटों के लिहाज से काफी प्रभावी हैं।

लोकसभा सीटों के हिसाब से देखा जाये तो देश की कुल 543 में से 131 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं। खड़गे दक्षिण भारत से आते हैं, जहां भाजपा उत्तर भारत के मुकाबले ज्यादा मजबूत नहीं है। सिलेक्शन के लिए ये भी उनके लिए प्लस पॉइंट रहा। खड़के कांग्रेस के लिए 24 कैरेट सोना इसलिए साबित होंगे, क्योंकि कांग्रेस अब जोर गले से कह सकती है कि अगर भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को देश का राष्टÑपति बनाया, तो हमने दलित समाज को सम्मान देते हुए अपने पार्टी के शीर्ष पर पहुंचाया।

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