रघुवर दास को राज्यपाल बनाये जाने के बाद उठ रहा है सवाल

भाजपा ने अपने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास को राज्यपाल बनाने का फैसला कर भले ही राजनीतिक दृष्टिकोण से बड़ा कदम उठाया है, लेकिन इसके साथ ही उसके सामने एक बड़ी चुनौती भी खड़ी हो गयी है। झारखंड भाजपा में रघुवर दास के बाद अब कोई ऐसा ओबीसी चेहरा नहीं है, जिसकी पहचान पूरे राज्य में हो। रघुवर दास झारखंड में भाजपा के ओबीसी के सबसे बड़े और प्रभावी चेहरा थे। इसलिए मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी लोगों में वह लोकप्रिय थे। इसके अलावा सबसे खास बात यह है कि जातीय राजनीति के इस दौर में रघुवर दास झारखंड भाजपा में ओबीसी का सबसे बड़ा चेहरा थे। इसलिए उनके समर्थकों के अलावा भाजपा के आम कार्यकर्ता यह सवाल पूछ रहे हैं कि रघुवर दास के स्थान पर पार्टी अब किसे ओबीसी का चेहरा बनायेगी या कौन नेता इसके लिए फिट है। रघुवर दास के स्थान पर जिन दो नेताओं का नाम सबसे पहले लिया जा रहा है, उनमें एक जयप्रकाश भाई पटेल हैं, जिन्हें भाजपा ने विधानसभा में सचेतक बनाया है और दूसरे आदित्य साहू हैं, जो राज्यसभा के सांसद हैं। जयप्रकाश भाई पटेल कुर्मी के नेता हैं, जबकि आदित्य साहू उसी वैश्य साहू समुदाय से हैं, जिससे रघुवर दास आते हैं। लेकिन आदित्य साहू की पहचान आज भी राज्य स्तर पर नहीं है, इसलिए वह रघुवर दास का विकल्प नहीं हो सकते हैं। इस तरह भाजपा को अब झारखंड में एक ऐसा ओबीसी और खास कर वैश्य साहू चेहरा चाहिए, जो आर्थिक रूप से ताकतवर इस समुदाय का समर्थन उसे दिला सके। इस तरह रघुवर दास को राज्यपाल नियुक्त किये जाने का फैसला भले ही भाजपा के लिए लाभदायक दिख रहा हो, रघुवर दास के विकल्प की चिंता उसके भीतर पैदा होने लगी है। क्या है भाजपा की चिंता और क्या है इससे निबटने की उसकी रणनीति, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

भाजपा ने झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास को ओड़िशा का राज्यपाल नियुक्त करने का फैसला कर पार्टी की प्रदेश इकाई में चल रही गुटबाजी को एक झटके में खत्म तो कर दिया है, लेकिन अब इसके सामने नयी चुनौती खड़ी हो गयी है। यह चुनौती है रघुवर दास का विकल्प तैयार करने की। रघुवर दास झारखंड के मुख्यमंत्री रहने के अलावा पार्टी के स्थापना काल से ही इससे जुड़े रहे। संघ परिवार के अनुशासन की भट्ठी में तप कर राजनीति के मैदान में आये रघुवर दास न केवल भाजपा के बड़े नेताओं की कतार में शुमार थे, बल्कि झारखंड समेत पूर्वी भारत में वैश्य साहू जाति के सबसे बड़े नेता भी रहे। झारखंड में वैश्य साहू समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग, यानी ओबीसी में शामिल है, तो जाहिर है, इसका समर्थन पूरी तरह भाजपा को मिलता रहा है। झारखंड भाजपा में रघुवर दास की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के भीतर आज तक उनकी जाति का कोई दूसरा नेता उनके कद का नहीं बन सका है। इसलिए रघुवर दास के समर्थक और भाजपा के ग्रासरूट स्तर के नेता अब इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अब वैश्य साहू समुदाय का वोट भाजपा के पाले में कौन डलवायेगा।

झारखंड में 40 फीसदी है ओबीसी आबादी
जहां तक झारखंड में ओबीसी आबादी का सवाल है, तो इसका सबसे विश्वसनीय आंकड़ा 2011 में करायी गयी जनगणना की रिपोर्ट है। इसके मुताबिक झारखंड में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के करीब 1.33 करोड़ लोग रहते हैं। यह राज्य की कुल आबादी 3.29 करोड़ का 40.43 फीसदी है। आंकड़े के अनुसार ओबीसी की सबसे अधिक संख्या गिरिडीह जिले में है। यहां इनकी आबादी 15.42 लाख है, जो जिले की कुल आबादी का करीब 63 फीसदी है। इसके बाद फीसदी के आधार पर सर्वाधिक ओबीसी देवघर, पलामू, सरायकेला तथा चतरा जिले में हैं। हालांकि ओबीसी जनसंख्या के लिहाज से धनबाद (11.54 लाख) दूसरे और रांची (10.54 लाख) तीसरे नंबर पर हैं, लेकिन प्रतिशत के आधार पर ये दोनों जिले पीछे हैं। इसी आधार पर झारखंड में ओबीसी का आरक्षण प्रतिशत 14 से बढ़ा कर 27 किया गया था, लेकिन उसको मान्यता नहीं मिली। जहां तक वैश्य साहू आबादी का सवाल है, तो झारखंड में इनकी आबादी 33 लाख के करीब बतायी जाती है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह समुदाय राज्य की आधा दर्जन विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में होती है और आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर है।

क्या है वोटों का समीकरण
झारखंड विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए नौ सीटें आरक्षित हैं। 2019 में इनमें से छह सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी। लोकसभा की 14 में से एक सीट पलामू अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, जिस पर फिलहाल भाजपा का कब्जा है। लेकिन विडंबना यह है कि विधानसभा में भाजपा के 25 विधायकों में बिरंची नारायण और नवीन जायसवाल को छोड़ कर कोई वैश्य साहू जाति का विधायक नहीं है।

बिरंची नारायण नहीं हो सकते विकल्प
भाजपा ने रघुवर दास को राज्यपाल बना कर उनके राजनीतिक करियर पर फिलहाल विराम तो लगा दिया है, लेकिन अब उसके नेता वैश्य साहू वोट को लेकर चिंतित हैं। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से ही इस जाति का वोट हमेशा भाजपा को मिलता रहा। इसका सारा श्रेय रघुवर दास को जाता है। पार्टी ने 2019 में सत्ता से बाहर होने के बाद इस जाति को संतुष्ट करने के लिए विरंची नारायण को मुख्य सचेतक बनाया हुआ है, लेकिन उनकी पहचान विधानसभा के भीतर या फिर उनके क्षेत्र बोकारो तक ही सीमित है। इसलिए उन्हें रघुवर दास का विकल्प तो कतई नहीं माना जा सकता है। भाजपा की असली चिंता यही है।

आदित्य साहू की पहचान भी सीमित
भाजपा में वैश्य साहू समाज के दूसरे बड़े नेता आदित्य साहू हैं, जिन्हें पार्टी ने हाल ही में राज्यसभा में भेजा है। वह एक कुशल संगठनकर्ता तो हैं, लेकिन मुख्य धारा की राजनीति में उनकी पहचान सीमित ही रही है। राज्यसभा में भी उनका अब तक का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा है। हालांकि पिछले चुनाव में उन्हें मुकाबले में उतारने की जोरदार तैयारी हुई थी, लेकिन बाद में किसी कारण से उसे टाल दिया गया।

भाजपा के सामने बड़ी चुनौती
इस तरह अब भाजपा के सामने बड़ी चुनौती पैदा हो गयी है। पार्टी ने एक आदिवासी को प्रदेश अध्यक्ष बना कर उन्हें फ्री हैंड तो दे दिया है, लेकिन एक प्रभावशाली जाति का वोट खिसकने का खतरा भी पैदा हो गया है। अनुसूचित जाति के विधायक को विधायक दल का नेता और ओबीसी के दो नेताओं के साथ एक ब्राह्मण को सचेतक बना कर भाजपा ने सामाजिक संतुलन तो बनाया है, लेकिन वैश्य साहू जाति का समर्थन हासिल करने के लिए वह क्या करेगी, यह बड़ा सवाल है।

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