जम्मू-कश्मीर मसले पर कांग्रेस के नेता पी. चिदंबरम के एक बयान पर राष्ट्रीय दलों के बीच राजनीतिक माहौल गरमा गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर भाजपा के अन्य नेता प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं कि कांग्रेस के नेता अलगाववादियों की भाषा बोल रहे हैं। चिदंबरम ने कहा था कि जब मैंने जम्मू-कश्मीर के लोगों से बातचीत की तो मुझे पता चला कि आजादी की बात करने वालों का मुख्य आशय ‘वृहद स्वायत्तता’ से होता है। चिदंबरम का बयान सामने आते ही वित्त मंत्री अरूण जेटली ने तीखी प्रतिक्रिया में कहा कि आजादी और स्वायत्तता की मांग राष्ट्रहित के खिलाफ है। क्योंकि चिदंबरम ने अपने बयान में यह भी कहा था कि संविधान के दायरे में कश्मीरियों को कुछ क्षेत्रों में स्वायत्तता दी जानी चाहिए। चिदंबरम के बयान के बाद उठे सवालों व आलोचनाओं से घिरी कांग्र्रेस ने चिदंबर के बयान से अपने आपको अलग करके कह दिया है कि यह चिदंबरम का निजी बयान है। ऐसा नहीं है कि चिदंबरम ने ऐसी राय पहली बार व्यक्त की है। वे पहले भी ऐसी मांग को आगे रखकर अपनी और पार्टी की किरकिरी करा चुके हैं। गौर से देखें तो ऐसे बयान अलगाववादी भावना को बढ़ावा देने वाला माना जा सकता है। एक ऐसे समय जब कश्मीर घाटी में अशांति का माहौल है और अलगाववादी तरह-तरह की साजिशों को अंजाम देने पर तुले हैं।
फिर भारत सरकार ने शांति समाधान के लिए आईबी के पूर्व अधिकारी दिनेश्वर शर्मा को मुख्य वार्ताकार नियुक्त कर दिया है तो स्वायत्तता संबंधी बयानों व राजनीतिक माहौल को गरम करने का कोई औचित्य नहीं बनता। कम से कम प्रधानमंत्री मोदी को तो चिदंबरम के बयान पर कांग्र्रेस को सीधे निशाना नहीं बनाना चाहिए था क्योंकि इससे वार्ताकार को समस्या के समाधान संबंधी वार्ता में कई सवालों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन संभव है प्रधानमंत्री व भाजपा नेताओं ने दो राज्यों के चुनावों के मद्देनजर चिदंबरम के बयान को मुद्दा बनाना उचित समझा होगा। दरअसल, कश्मीर की समस्या नई नहीं है, बल्कि सालों से चल रही है, लेकिन किसी भी सरकार ने इसके समाधान का ठोस प्रयास नहीं किया। मामले को दबाने की कोशिशें अधिक की गई। जबकि कश्मीर की समस्या मुख्यत: राजनीतिक है और समाधान भी राजनीतिक तरीके से निकाला जा सकता है। सरकारों ने जन अपेक्षाओं के स्थान पर अपनी राजनीतिक अपेक्षाओं को अधिक महत्व दिया। देश के सभी राजनीतिक दल कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा ही स्वीकार करते हैं, लेकिन जब-जब वहां आजादी की मांग उठती है कई बार राजनीतिक दलों के रूख में विरोधाभास नजर आने लगता है। चिदंबरम के ताजा बयान को लेकर उठा विवाद इसी का हिस्सा है।
भाजपा अनुच्छेद 370 को हटाने की वकालत करती है, जबकि चिदंबरम का मानना है कि इस अनुच्छेद में स्वायत्तता का उल्लेख है। भाजपा की बड़ी आपत्ति यही है। और विवाद की मुख्य वजह भी यही है। बहरहाल, यह सही है कि केन्द्र और जम्मू-कश्मीर में भाजपा के सत्ता में आने के बाद कश्मीर में आतंकी घटनाएं बढ़ी हैं और घाटी के लोगों ने आजादी के नारे के साथ सड़कों पर उतर कर कानून-व्यवस्था के लिए चुनौतियां खड़ी कर रखी है। स्थितियों से निपटने के लिए केन्द्र सरकार ने सख्ती बरतने की नीति को अपनाना उचित समझा। हुर्रियत नेताओं की गतिविधियों और उनके बैंक खातों पर कड़ी नजर रखनी शुरू की है। उन्हें बाहर से हो रही फडिंग को लेकर भी कार्रवाई की। इन सबका सकारात्मक नतीजा भी देखने को मिला है लेकिन स्थानीय लोगों पर अलगाववादियों के बहकावे का असर कम नहीं हो पाया है। यह सही है कि इसके लिए आतंकी और अलगाववादी संगठनों पर नकेल कसने के साथ-साथ स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने के प्रयास भी होते रहना चाहिए। अब केन्द्र ने वार्ताकार के माध्यम से घाटी के लोगों को सुनने का रास्ता खोला है, जो उचित है। इस काम में सभी राजनीतिक दलों को दलीय राजनीति से ऊपर उठकर अपनी भूमिका भी निभानी चाहिए। इस माहौल में चिदंबरम जैसे नेताओं को विवाद खड़े करने वाले बयानों से बचना चाहिए।