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    Home»विशेष»कानून का रास्ता
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    कानून का रास्ता

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीNovember 23, 2017No Comments3 Mins Read
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    तीन महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने मुसलिम समुदाय के बीच तीन तलाक के चलन से जुड़े मुकदमे में ऐतिहासिक फैसला दिया था और इसे असंवैधानिक घोषित किया था। तब अदालत ने सरकार को इस मसले पर अगले छह महीने में कानून बनाने की सलाह दी थी। अब एक खबर के मुताबिक सरकार एक बार में तीन तलाक कहने की प्रथा यानी तलाक-ए-बिद्दत को पूरी तरह खत्म करने के लिए संसद के शीतकालीन सत्र में एक विधेयक लाने का संकेत दिया है। इस बाबत उचित कानून लाने पर विचार करने के लिए एक मंत्रीस्तरीय समिति का गठन किया गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने कहा था कि तीन तलाक पर कानून की जरूरत शायद न पड़े, क्योंकि अदालत ने जिस तरह इसे असंवैधानिक बताया है, वह अपने आप कानून की शक्ल ले चुका है। उस समय सरकार की यह राय थी कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधान ऐसे मामलों से निपटने के लिए पर्याप्त हैं। लेकिन सच यह है कि अदालत के फैसले के बावजूद जमीनी स्तर पर एक साथ तीन तलाक कह कर संबंध तोड़ लेने की घटनाएं सामने आती रही हैं। तलाक-ए-बिद्दत की पीड़ित महिलाओं के पास एकमात्र रास्ता पुलिस से संपर्क करना है। जाहिर है, कोई स्पष्ट कानूनी प्रावधान न होने की वजह से इन महिलाओं को न्याय मिलने की संभावनाएं बेहद कम हो जाती है।

    इसी के मद्देनजर मुसलिम महिला संगठन और दूसरे महिला अधिकार समूह स्पष्ट प्रावधानों वाला कानून बनाने की मांग करते रहे हैं। यों भी किसी मसले पर प्रावधानों के स्पष्ट हुए बिना कोई कानून कैसे लागू होगा! अगर सरकार को लगता है कि वह तीन तलाक के मुद्दे पर कोई स्पष्ट रुख रखती है, तो इस दिशा में ठोस पहलकदमी करनी होगी। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले और सलाह के अनुरूप भी है। लेकिन यह भी गौरतलब है कि इस समय देश में संसद के शीतकालीन सत्र में जानबूझ कर देरी करने से लेकर कई दूसरे मामले सुर्खियों में हैं और उन्हें लेकर सरकार पर तमाम सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में सरकार की ओर से तीन तलाक पर कानून बनाने पर विचार के लिए अचानक और अलग से इरादा जताने को स्वाभाविक ही जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। भाजपा पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि वह जनता की बुनियादी समस्याओं पर बात करने और उनके समाधान का रास्ता निकालने के बजाय धार्मिक रूप से संवेदनशील मुद्दों को हवा देती है। लेकिन सरकार में होते हुए किसी भी पार्टी की एक विशेष जिम्मेदारी होती है।

    एक साथ तीन तलाक से मुसलिम समुदाय में महिलाओं के सामने व्यवहार में किस तरह की मुश्किलें पेश आती रही हैं, यह छिपी बात नहीं है। इसे एक व्यापक समस्या के रूप में दर्ज कर इसके खिलाफ खुद मुसलिम महिलाओं के संगठनों ने बड़ा आंदोलन चलाया तो उसका व्यापक असर देखा गया। उस आंदोलन को मुसलमानों के ज्यादातर हिस्से का समर्थन मिला। इस मुद्दे पर अदालत का फैसला आ चुका है और अब गेंद सरकार के पाले में है, तो कोशिश यही हो कि ऐसा कानून बने, जिस पर विवाद की गुंजाइश न हो और तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं को इंसाफ भी मिल सके। यह मुद्दा धार्मिक रूप से संवेदनशील है, इसलिए सरकार को वह सब कुछ करना चाहिए, जिससे इसका सांप्रदायीकरण न हो सके।

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