जिस तरह से पाकिस्तान के कानूनमंत्री जाहिद हामिद को इस्तीफा देने को विवश होना पड़ा, वह कई कारणों से चिंताजनक है। उनके इस्तीफे से वहां कट्टरपंथियों का हौसला और बढ़ेगा, वहीं दूसरी तरफ लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए परेशानी बढ़ेगी। इस प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित किया है कि पाकिस्तान में सेना सिरमौर है और नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद वह और मजबूत हुई है। तीन हफ्ते से हजारों प्रदर्शनकारी राजधानी इस्लामाबाद और रावलपिंडी को जोड़ने वाले हाइवे पर डेरा डाले हुए थे। उनकी मांग थी कि चुनाव के लिए नामांकन के दौरान दिए जाने वाले हलफनामे में ‘खत्म-ए-नबूवत’ प्रावधान या अंश को बहाल किया जाए।

इस अंश को पिछले महीने के शुरू में सरकार ने हटा दिया था। प्रदर्शनकारियों का मानना था कि इसके पीछे कानूनमंत्री जाहिद हामिद का हाथ था। इसलिए उन्होंने हामिद को पद से हटाने की मांग भी जोड़ दी। यों तो इस विरोध-प्रदर्शन के पीछे कई कट्टरपंथी समूहों की ताकत थी, पर इसे आयोजित करने में मुख्य भूमिका तहरीक-ए-लब्बैक (टीएलपी) की थी, जो पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी के प्रति समर्थन जुटाने की कोशिश से जनमा था। काफी समय तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी और आंतरिक सुरक्षा मंत्री अहसान इकबाल को सूझ नहीं रहा था कि हाइवे जाम किए हुए इस विरोध-प्रदर्शन से कैसे निपटें।

कई दिनों से लगातार हाइवे जाम रहने से यातायात के अलावा रोजमर्रा की जरूरी चीजों की आपूर्ति भी बुरी तरह प्रभावित हो रही थी। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सरकार सक्रिय हुई। पुलिस और कुछ अर्धसैनिक बलों ने बलप्रयोग किया, जिसमें छह लोग मारे गए। मगर वे हाइवे को प्रदर्शनकारियों से मुक्त नहीं करा सके। तब सरकार ने सेना की मदद लेनी चाही। पर सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने साफ मना कर दिया, यह कहते हुए कि अपने ही लोगों के खिलाफ बलप्रयोग ठीक नहीं।

नतीजा यह निकला कि सरकार ‘खत्म-ए-नबूवत’ को बहाल करने पर भी राजी हो गई और कानूनमंत्री से इस्तीफा भी ले लिया। दोनों पक्षों के बीच जो समझौता हुआ वह किसकी जीत है? समझौते के दस्तावेज में सेना की खूब तारीफ की गई है। माना जा रहा है कि इस समझौते का स्वरूप सेना ने तय कराया। इससे सरकार पर सेना की बढ़त ही साबित हुई है। समझौता कराने में बाजवा की दिलचस्पी की एक वजह यह भी हो सकती है कि वे अहमदिया यानी एक ऐसे समुदाय से हैं, जो कट्टरपंथी संगठनों को फूटी आंख नहीं सुहाता। अगर सरकार के कहने पर सेना बल प्रयोग करती, तो इसे शायद बाजवा के अहमदिया होने से भी जोड़ कर देखा जाता। तब वही लोग बाजवा के प्रति शक का माहौल बनाने में जुट जाते, जो अभी सेना का शुक्रिया अदा कर रहे हैं।

कट्टरपंथी संगठनों का तीन हफ्ते तक चला धरना, फिर उन्हें खुश करने वाले एक चुनावी प्रावधान की बहाली, सरकार का घुटने टेकना और कानूनमंत्री का इस्तीफा, यह सब ऐसे वक्त हुआ है जब पाकिस्तान में संसदीय चुनावों को बस छह महीने रह गए हैं। इसलिए इस विरोध-प्रदर्शन के पीछे साजिश की शंका भी जताई जा रही है। यह शंका सच हो या नहीं, इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस घटनाक्रम से कट्टरपंथी संगठनों को अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका मिला है। दूसरी तरफ इससे पाकिस्तान मुसलिम लीग (नवाज), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, तहरीक-ए-इंसाफ समेत लोकतांत्रिक ताकतों को धक्का पहुंचा है। वहां की सिविल सोसाइटी के लिए तो यह सब और भी चिंता का विषय है।

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