-भाजपा ने अपने लक्की चार्म धर्मेंद्र प्रधान को चुनाव प्रभारी नियुक्त कर दे दिया मैसेज
-प्रधान विपरीत परिस्थितियों में भी कमल खिलाने की काबिलियत रखते हैं
-यूपी, हरियाणा और ओड़िशा में अपनी काबिलियत सिद्ध कर चुके हैं प्रधान
-केशव मौर्य और सीआर पाटिल की सहायता से पक्ष में करेंगे चुनावी बाजी

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने अपनी बड़ी चाल चल दी है। पार्टी ने चुनाव प्रभारी के तौर पर बिहार के सियासी मैदान में धर्मेंद्र प्रधान को उतार दिया है, जबकि उनकी मदद के लिए केशव प्रसाद मौर्य और सीआर पाटिल को नियुक्त किया है। प्रधान इससे पहले यूपी, हरियाणा और ओड़िशा के चुनाव में अपनी काबिलियत साबित कर चुके हैं। इन राज्यों में उन्होंने भाजपा को जीत दिलायी है और अब बिहार में अपना कमाल दिखायेंगे, ऐसा पार्टी को विश्वास है। प्रधान भाजपा के लिए ‘लकी चार्म’ हैं। पार्टी ने उन्हें अब तक जिन भी राज्यों की कमान सौंपी है, प्रधान ने पार्टी को हमेशा जीत का तोहफा दिया है। ओड़िशा से ताल्लुक रखने वाले प्रधान खुद लो प्रोफाइल रहकर पार्टी के लिए काम करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने कई मौकों पर अपनी रणनीतिक क्षमता और संगठनात्मक कौशल के कारण भाजपा को कई राज्यों में जीत दिलायी। नरेंद्र मोदी की पहली कैबिनेट में वह राज्यमंत्री के तौर पर शामिल हुए, लेकिन जैसे-जैसे उन्होंने अपनी काबिलियत साबित की, पार्टी और सरकार में उनका कद बढ़ता गया और उन्होंने राज्यमंत्री से कैबिनेट मंत्री तक का सफर तय किया। धर्मेंद्र प्रधान कठिन राज्यों में भाजपा की कमजोरियों को ताकत में बदलने में माहिर हैं, खासकर जहां जातिगत और क्षेत्रीय गठबंधन चुनौतीपूर्ण होते हैं। प्रधान को ‘मोदी का भरोसेमंद लेफ्टिनेंट’ कहा जाता है। यह तमगा उनको यूं ही नहीं मिला है। इसके पीछे उनकी चुनावी रणनीति और व्यूह रचना है। क्या है धर्मेंद्र प्रधान को बिहार का चुनाव प्रभारी बनाने के पीछे की रणनीति और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।

बिहार विधानसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने पिछड़े वर्ग के दो राष्ट्रीय क्षत्रपों को तैनात कर दिया है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को बिहार में भाजपा का चुनाव प्रभारी बनाया गया है। वह पहले भी बिहार में चुनाव सह-प्रभारी रह चुके हैं। इसके अलावा केंद्रीय जलशक्ति मंत्री सीआर पाटिल और उत्तरप्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सह-प्रभारी बनाया गया है। इस तैनाती में बिहार के जातीय समीकरण का खास ध्यान रखा गया है। इनके नेतृत्व में भाजपा गैर-यादव मतों को अपने पाले में करने की मुहिम चलायेगी। धर्मेंद्र प्रधान के चुनावी प्रबंधन से देश के दो सीटिंग मुख्यमंत्री खुद चुनाव हार चुके हैं। एक हैं ममता बनर्जी और दूसरे हैं नवीन पटनायक।

ओबसी चेहरों को उतारने का मतलब
धर्मेंद्र प्रधान ओड़िशा के रहने वाले हैं और खंडायत कुर्मी समुदाय से आते हैं। केशव प्रसाद मौर्य कुशवाहा (कोइरी) जाति से आते हैं। सीआर पाटिल का जन्म तो महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका परिवार गुजरात आ गया। वह गुजरात पुलिस में 16 साल तक कांस्टेबल रहे। फिर नरेंद्र मोदी उन्हें चुनावी राजनीति में ले आये। वह चुनाव जीतने की रणनीति बनाने में माहिर हैं। इसी विशिष्टता के कारण वह सफलता के सोपान पर ऊपर चढ़े हैं। उनके नेतृत्व में भाजपा ने गुजरात में सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी। वह मोदी-शाह के अत्यंत करीबी हैं। सीआर पाटिल बिहार चुनाव जीतने की रणनीति बनायेंगे। धर्मेंद्र प्रधान और केशव मौर्य कोइरी-कुर्मी मतों के साथ-साथ अति पिछड़े वोटरों को भाजपा के पक्ष में एकजुट करेंगे।

धर्मेंद्र प्रधान मुश्किल में भी कमल खिलाते हैं
धर्मेंद्र प्रधान की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी कमल को खिलाने की काबिलियत रखते हैं। अगर 2015 के बिहार को चुनाव को छोड़ दिया जाये, तो उन्होंने अधिकतर राज्यों में भाजपा की जीत का रास्ता तैयार किया है। 2017 में उत्तराखंड, 2022 में उत्तर प्रदेश और 2024 में ओड़िशा। अक्टूबर 2024 में हरियाणा विधानसभा चुनाव उनके लिए सबसे मुश्किल टास्क था। सत्ता विरोधी लहर में भाजपा के लिए सरकार को बरकरार रखना कठिन लग रहा था। लेकिन इसके बावजूद वह पार्टी को जीत दिलाने में सफल रहे। भाजपा ने 90 में से 48 सीटें जीत कर बहुमत हासिल कर लिया। उस समय जाट और किसान नाराज चल रहे थे। अग्निवीर योजना को लेकर नौजवानों में गुस्सा था। दूसरी तरफ कांग्रेस बहुत मजबूती से अपना चुनाव अभियान चला रही थी। भाजपा के बागी नेता अलग चुनौती दे रहे थे।

प्रधान ने कैसे मुश्किलों पर पाया काबू
हरियाणा विधानसभा चुनाव धर्मेंद्र प्रधान की काबिलियत का सबसे बड़ा प्रमाण है। उन्होंने चुनौतियां स्वीकार की और उससे दो-दो हाथ करने की ठानी। पंचकुला, कुरुक्षेत्र और रोहतक में ज्यादा समस्याएं थीं। उन्होंने वहां कैंप लगाया। एक महीने तक इन कैंपों से हटे नहीं। स्थानीय लोगों से संवाद किया। बूथ लेवल पार्टी कार्यकतार्ओं से बात की। उनके साथ बैठक की और धैर्यपूर्वक उनकी बातों को सुना। इससे कमजोर बूथों की पहचान में मदद मिली। कार्यकतार्ओं और आम लोगों से मिले फीडबैक को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचाया। कार्यकतार्ओं को सम्मान दिया और उनमें उत्साह पैदा किया। जिन बूथों पर पार्टी की स्थिति ठीक नहीं थी, वहां गैर-भाजपाई लोगों को भी अपने साथ जोड़ा। इससे योग्य उम्मीदवारों के चयन में सहूलियत हुई। टिकट मिलने के बाद करीब 25 नेताओं ने बगावत कर दी। इनमें से 22 को मना लिया गया। इस तरह मुश्किल में भी कमल खिल गया।

सीएम रहते हारीं ममता बनर्जी
धर्मेंद्र प्रधान को एक और बेहद मुश्किल अभियान पर भेजा गया था, जिसमें उन्होंने कामयाबी दिला कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उन्हें केवल नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र का चुनाव प्रभारी बनाया गया था। इस सीट से भाजपा के सुवेंदु अधिकारी चुनाव लड़ रहे थे। यह हाइ प्रोफाइल सीट थी, क्योंकि यहां से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव लड़ रही थीं। चुनाव के समय यहां बहुत ही तनावपूर्ण माहौल था। धर्मेंद्र प्रधान की एक चुनावी सभा पर हमला भी हुआ था, जिसमें भाजपा के कई नेता घायल हो गये थे। लेकिन बिना किसी डर-भय के वह नंदीग्राम में जमे रहे। इस चुनाव में ममता बनर्जी की हार भारतीय राजनीति के लिए एक विस्मयकारी घटना थी। धर्मेंद्र प्रधान और सुवेंदु अधिकारी ने मिल एक एक नया इतिहास लिख दिया। चुनाव में भले तृणमूल कांग्रेस को जीत मिली, लेकिन इस पार्टी को एक हारे मुख्यमंत्री को फिर से कुर्सी पर बैठाना पड़ा।

धर्मेंद्र प्रधान बिहार से रह चुके हैं राज्यसभा सांसद
धर्मेंद्र प्रधान ओड़िशा के उत्कल विश्वविद्यालय से मानव शास्त्र में स्नातकोत्तर हैं। उनके पिता देवेंद्र प्रधान अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे थे। धर्मेंद्र प्रधान की विशिष्टता यह है कि वह किसी संगठन को मजबूत और प्रभावशाली बनाने के लिए अथक मेहनत करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने बिहार में जो प्रदर्शन किया था, उसमें एक कारण धर्मेंद्र प्रधान की सटीक रणनीति भी थी। वह 2012 में बिहार से राज्यसभा सांसद भी चुने गये थे। 2010 के विधानसभा चुनाव में वह बिहार भाजपा संगठन के सह-प्रभारी थे। उस चुनाव में भाजपा ने 91 सीटें जीती थीं, जो बिहार के चुनावी इतिहास में सबसे बड़ा प्रदर्शन है। वह पिछले साल ओड़िशा चुनाव में भाजपा के प्रभारी थे। उन्होंने चुनावी घोषणा पत्र तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस चुनाव में भाजपा ने शक्तिशाली माने जाने वाले नवीन पटनायक को हरा कर बहुत बड़ी जीत दर्ज की थी। यहां तक कि मुख्यमंत्री रहते नवीन पटनायक तक चुनाव हार गये थे।

सीआर पाटिल की क्षमता से प्रधानमंत्री भी प्रभावित
चुनाव प्रबंधन में सीआर पाटिल को कितनी महारत हासिल है, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान से स्पष्ट हो जाता है। सीआर पाटिल को 2020 में गुजरात भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया था। दिसंबर 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 182 में से 156 सीटें जीत कर पिछले सभी रिकॉर्ड को तोड़ दिया था। इस प्रचंड जीत पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि गुजरात में बड़ी जीत का श्रेय श्री पाटिल (सीआर पाटिल) को है। उनकी सफलता का राज है, जनता के लिए हमेशा उपलब्ध रहना। बिना किसी आडंबर के वह हर किसी से मिलने के लिए तैयार रहते हैं। नरेंद्र मोदी को उन पर अगाध विश्वास है। इसलिए उन्होंने अपने क्षेत्र वाराणसी का चुनाव प्रबंधन भी इन्हीं को सौंप रखा है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के विकास कार्यों की देखरेख वही करते हैं।

केशव प्रसाद मौर्य की खासियत
केशव प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश में भाजपा की लगातार जीत के एक प्रमुख योजनाकार हैं। वह कुशवाहा समुदाय से आते हैं। 2016 में उन्हें उत्तर प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया था। 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा के पक्ष में गैर यादव पिछड़ी जातियों को गोलबंद किया था। इससे सपा और बसपा दोनों के जातीय समीकरण छिन्न-भिन्न हो गये थे। उन्होंने पार्टी के लिए अति पिछड़ी जातियों का समर्थन हासिल किया। उनके योगदान को देख कर उन्हें 2017 में उप मुख्यमंत्री बनाया गया था। 2022 के विधानसभा चुनाव में वह हार गये, लेकिन इसके बाद भी भाजपा ने उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाये रखा। कुशवाहा नेता के रूप में केशव मौर्य की लोकप्रियता को भुनाने की बिहार में भी कोशिश हुई। अप्रैल 2022 में बिहार भाजपा ने सम्राट अशोक की जयंती मनाने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम के संयोजक थे बिहार सरकार के तत्कालीन पंचायती राज मंत्री सम्राट चौधरी (कुशवाहा)। इस मौके पर उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी शामिल हुए थे।

इस नियुक्ति से विपक्ष में खलबली
भाजपा द्वारा बिहार में ‘डीकेपी’ (धर्मेंद्र-केशव-पाटिल) की नियुक्ति से सियासी खलबली मच गयी है। विपक्षी खेमे में अभी से ही चिंता दिखने लगी है, क्योंकि इन तीनों की चुनावी रणनीति के जवाब में रणनीति बनानेवाला कोई नेता विपक्षी गठबंधन में नहीं है। जातीय समीकरण के अलावा चुनावी प्रबंधन के मोेर्चे पर भाजपा की यह ‘स्ट्राइक टीम’ अप्रत्याशित परिणाम ला दे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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