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    Home»विशेष»संपादकीयः बयान बनाम पहरेदारी
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    संपादकीयः बयान बनाम पहरेदारी

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीNovember 30, 2017No Comments3 Mins Read
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    पिछले दिनों फिल्म पद्मावती को लेकर कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अनेक राजनेताओं ने तल्ख बयान दिए, जिसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि फिल्म पर राजनेताओं को किसी भी तरह के बयान से बचना चाहिए। मगर यह बात अपने बयानों और ट्वीटों के लिए सदा चर्चा में रहने वाले हरियाणा के स्वास्थ्यमंत्री अनिल विज को हजम नहीं हुई। उन्होंने पत्रकारों को संबोधित करते हुए उलटा सवाल दागा कि क्या अब राजनेताओं और मंत्रियों को अदालतों से पूछ कर कोई बयान देना चाहिए! यह ठीक है कि अनिल विज कई मसलों पर असंगत बयान देते रहे हैं, पर अदालत की नसीहत पर उनके प्रतिप्रश्न और तल्खी की वजह समझी जा सकती है। पिछले कुछ समय से अदालतों की तरफ से भी कई ऐसे निर्देश, आदेश और नाराजगी भरी टिप्पणियां आर्इं, जिन्हें विधायिका के कामकाज में न्यायपालिका की बेजा दखलअंदाजी के रूप में देखा गया। उन्हें लेकर लंबी चर्चाएं भी हुर्इं कि न्यायपालिका को विधायिका के कामकाज में किस हद तक दखल देने की छूट है। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने भी संविधान दिवस के मौके पर स्पष्ट कहा कि लोकतंत्र के चारों खंभों को अपने-अपने दायरे में रह कर दायित्वों का निर्वाह करना चाहिए। विज के ताजा बयान को उससे जोड़ कर देखा और समझा जाना चाहिए।

    छिपी बात नहीं है कि कई बार अदालतों ने मीडिया में सुर्खियां बटोरने के मकसद से विधायिका के कामकाज में हस्तक्षेप करने वाले बयान दिए। इससे न्यायिक सक्रियता को लेकर खूब बहसें भी हुर्इं। हालांकि फिल्म पद्मावती पर राजनेताओं और मुख्यमंत्रियों की तल्खी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर जिस तरह राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं और एक जाति और समुदाय विशेष के बीच तनाव का माहौल बनाने का प्रयास हो रहा है, उससे समाज पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती। फिल्म पर कोई भी निर्णय लेने का अधिकार केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को है। अभी उसने अपना कोई फैसला नहीं सुनाया है। अगर निर्माता-निर्देशक बोर्ड के फैसले से संतुष्ट नहीं होते, तो उन्हें अदालत का दरवाजा खटखटाने की आजादी है। ऐसे में फिल्म को देखे बिना महज उसके प्रचार में दिखाए जाने वाले कुछ दृश्यों के आधार पर राजनेताओं के अपने फैसले थोपने का रवैया किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।

    यह ठीक है कि अदालतों को विधायिका के कामकाज में अनावश्यक दखल नहीं देना चाहिए, पर यह भी लोकतांत्रिक तरीका नहीं कहा जा सकता कि अदालतों के आदेशों-निर्देशों और नाराजगी भरी टिप्पणियों की अनदेखी की जाए। अनेक ऐसे मुद्दे हैं, जिनकी जवाबदेही विधायिका और कार्यपालिका की है, लेकिन उन पर आंख मूंदे रखने की वजह से न्यायपालिका को उन्हें नसीहत देनी पड़ी। उसके बावजूद विधायिका और कार्यपालिका ने अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं किया। कई ऐसे मसले हैं जिनकी तरफ न्यायपालिका के ध्यान दिलाने की वजह से व्यावहारिक कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए गए। हमारे लोकतंत्र का ढांचा ही कुछ ऐसा है कि अगर विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्व का पालन नहीं करते, तो उन पर न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। अगर राजनेता बयान देते समय संयम रखें और अपनी जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वाह करें, तो अदालतों को उनकी तरफ अंगुली उठाने की नौबत ही न आए। इसी तरह अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे महज सुर्खियां बटोरने के मकसद से सक्रियता न दिखाएं।

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