भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार को एक गंभीर और शालीन राजनेता माना जाता रहा है। लेकिन शुक्रवार को बिहार विधानसभा में उनका जो रूप दिखा, वह सभी को आश्चर्यचकित कर गया। नीतीश ने नेता प्रतिपक्ष की आपत्तिजनक टिप्पणी के जवाब में शालीनता की सारी सीमाएं तोड़ दीं और ऐसी बात कह गये, जो किसी सदन नेता के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य मानी जा सकती हैं। इससे पहले चुनाव प्रचार के दौरान भी नीतीश कई बार आपा खो चुके थे और न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों, बल्कि आम लोगों तक को कोस चुके थे। विधानसभा के भीतर नीतीश कुमार का यह रूप वास्तव में उनका गुस्सा नहीं था, बल्कि यह उनकी खीझ और राजनीतिक रूप से कमजोर होने की झुंझलाहट ही थी। हाल के चुनाव में कभी अपने बड़े भाई समान दोस्त के पुत्र के हाथों बुरी तरह पराजित होनेवाले नीतीश कुमार को कुछ भी बोलने से पहले यह समझ लेना चाहिए कि वह सदन में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं और उनकी सरकार बैसाखियों पर टिकी है। जहां तक तेजस्वी को डिप्टी सीएम बनाने की बात है, तो नीतीश को यह भी याद रखना चाहिए कि 2015 में उन्हें राजद ने सीएम बनाया था। विधानसभा में नीतीश ने अपना जो रूप दिखाया, उससे उनकी ही बदनामी हुई है और वह खुद को कठघरे में खड़ा कर गये हैं। नीतीश के व्यवहार और बयान का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

शुक्रवार 27 नवंबर को बिहार विधानसभा में लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार का जो रूप दुनिया ने देखा, वह बेहद अचरज भरा था। नीतीश को इतना आपा खोते लोगों ने कभी नहीं देखा था। उन्होंने आरोप नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव पर लगाया, लेकिन खुद ही आरोप के घेरे में आ गये। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने तेजस्वी को क्या-क्या नहीं कहा था। उन सभाओं में नीतीश ने कहा था, कहां से लाओगे 10 लाख लोगों को तनख्वाह देने का पैसा? बाप के पास से ले आओगे? जेल से ले आओगे? जाली नोट छापोगे? उन्होंने लालू यादव पर तंज कसा था: नौ-नौ बच्चे पैदा करनेवाले विकास की बात कह रहे हैं। यह सब नीतीश के ही मुंह से निकला था, लेकिन तेजस्वी ने उस समय तो जवाब नहीं दिया था, क्योंकि वह अपने मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे। यह अलग बात है कि सबसे अधिक वोट और सीट लाकर भी वह सत्ता से दूर हैं। लेकिन विधानसभा के अंदर तेजस्वी ने जो कुछ कहा, उसमें गलत कुछ भी नहीं था। तेजस्वी का यह कहना तो बिल्कुल जायज और तार्किक था कि जब उनका नाम सीबीआइ ने चार्जशीट में दे दिया था, तो नीतीश उन्हें जनता के बीच जाकर सफाई देने की सलाह दे रहे थे। लेकिन जब नीतीश हत्या के केस में अभियुक्त बने या दूसरे की लिखी किताब अपने नाम से छपाने के अपराध के आरोपी बने, तो अपने पद से न तो इस्तीफा दिया और न ही जनता के बीच सफाई ही दी। यह तो ईमानदारी नहीं है। अपने लिए एक कसौटी और अन्य के लिए दूसरी कसौटी। यह तो कहीं से नैतिक नहीं कहा जा सकता है। तेजस्वी यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि चुनावी सभा में तो नीतीश ने ही लालू यादव के बच्चों की संख्या गिनायी थी। तेजस्वी मौके का इंतजार कर रहे थे और मौका मिला तो, उन्होंने नीतीश को आइना दिखा दिया।
पहली बार नीतीश कुमार के दांत पेट से बाहर दिखाई दिये। विधानसभा में ऐसी भाषा का इस्तेमाल उन्होंने किया, जो बतौर मुख्यमंत्री कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता। नीतीश कुमार से ऐसी शैली की अपेक्षा किसी ने नहीं की होगी। तेजस्वी यादव सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता के साथ बिहार विधानसभा में विपक्षी दल के नेता भी हैं।
सदन के अंदर बुरी तरह तिलमिलाये नीतीश ने तेजस्वी से कहा कि उन्हें डिप्टी सीएम किसने बनाया था। उसके पिता को विधायक दल का नेता किसने बनाया था। यह कह कर नीतीश ने अपने पूरे राजनीतिक व्यक्तित्व को उस निचले स्तर पर पहुंचा दिया, जहां झांकना भी नैतिक रूप से मजबूत व्यक्ति को गंवारा नहीं हो सकता। नीतीश यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि उन्होंने इसके पिता को लोकदल में विधायक दल का नेता बनवाया। यह इतनी छोटी बात है कि अब तो इसका जिक्र भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि खुद लालू इस बात को कई बार स्वीकार कर चुके हैं और नीतीश के प्रति आभार व्यक्त कर चुके हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद ने 80 सीटें जीती थीं, जबकि नीतीश कुमार की पार्टी को 71 सीटें मिली थीं। सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने नीतीश को सीएम बनाया था। यदि तेजस्वी पलट कर यह बात सदन में कह देते, तो नीतीश कुमार शायद चेहरा दिखाने लायक भी नहीं रहते। इसके उलट यदि नीतीश कुमार उस समय बड़े बन जाते, यदि वह स्वीकार करते कि लालू ने उन्हें सीएम बनाया था।
दरअसल नीतीश कुमार भीतर से कमजोर हो चुके हैं। वह समझ गये हैं कि उनका समय खत्म हो गया है और वह केवल कठपुतली हैं। विधानसभा में उनकी यही कमजोरी बाहर आ गयी। यह तो शुुरुआत है। उनको अपनी कमजोरी का और एहसास होगा, जब उन्हें भाजपा के इशारों पर नाचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
जहां तक लोकप्रियता और सीटों की संख्या का सवाल है, तो इस बार तेजस्वी ने बाजी मारी है। उनकी पार्टी को एक बार फिर सबसे ज्यादा यानी 75 और नीतीश कुमार की पार्टी को 43 सीटें मिली हैं। नीतीश की पार्टी पहले से, दूसरे और फिर तीसरे नंबर पर आ गयी है। नीतीश को मान लेना चाहिए कि वह पराजित हुए हैं। आज वह जहां हैं, वहां से बिहार का हित तो नहीं ही सध रहा, बल्कि इसकी जगह रोज उन्हें जिल्लत जरूर भोगनी पड़ रही है। वह हताश हो चुके हैं। नीतीश कुमार को नजदीक से जाननेवाले कहते हैं कि वह इस तरह की चुनौतियों का सामना करने के अभ्यस्त नहीं हैं और दबाव में वह टूटने लगते हैं।
बहरहाल, नीतीश कुमार के इस तरह के बयान उनकी झुंझलाहट को सामने लाता है। लेकिन उन्हें ध्यान रखना होगा कि वह एक मुख्यमंत्री हैं और सदन के भीतर या बाहर कही गयी उनकी हरेक बात लोगों के लिए नजीर बनती है। नीतीश खुद एक आंदोलन की उपज हैं और वह यह बात अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए लोग उनसे बेहतर भाषा और व्यवहार की उम्मीद करते हैं। और ऐसा करने में कुछ भी गलत नहीं है।

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