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    Home»झारखंड»रांची»रांची का एक गांव, जहां रहता है 25 घर मुंडा परिवार, पर नहीं है किसी के पास खतियान
    रांची

    रांची का एक गांव, जहां रहता है 25 घर मुंडा परिवार, पर नहीं है किसी के पास खतियान

    adminBy adminNovember 8, 2022No Comments17 Mins Read
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    रांची का एक गांव, जहां रहता है 25 घर मुंडा परिवार, पर नहीं है किसी के पास खतियान
    नहीं बन रहा आदिवासी परिवार के लोगों का जाति और आवासीय प्रमाण पत्र
    गांव में नहीं मिलती किसी को वृद्धा और विधवा पेंशन
    बगल का एक और गांव, जहां 70 परिवार में सिर्फ एक को सरकारी नौकरी
    गांव के किसी बच्चे का कस्तूरबा, एकलव्य या अन्य आवासीय विद्यालय में एडमिशन नहीं
    कस्तूरबा में एडमिशन के लिए दलाल ने ठग लिये 15-15 हजार रुपये, नहीं निकला सूची में नाम
    आबादी लगभग 350, सिर्फ एक बच्चा संजय मुंडा है बीए पास
    गांव में है एक प्राइमरी स्कूल, जाते हैं 30 बच्चे, खिचड़ी खाकर लौट आते हैं, शिक्षा विभाग का कोई अफसर आज तक नहीं पहुंचा गांव
    हाइस्कूल में पढ़ने के लिए जाना पड़ता है 20 किलोमीटर दूर, वह भी साइकिल से
    बीए की पढ़ाई के लिए आना पड़ेगा बुंडू वाया तमाड़, 40 किलोमीटर दूर
    सुबह और शाम सिर्फ एक बस चलती है, किराया लगता है एक तरफ से 40 रुपये
    टेंपो से आये, तो चुकाना होगा एक तरफ से सौ रुपये, शाम को लौट पायेंगे कि नहीं, पता नहीं
    विधायक बनने से पहले सिर्फ एक बार आये थे विकास सिंह मुंडा, उसके बाद दर्शन नहीं हुए
    गांव के लोगों ने नहीं देखा है सांसद अर्जुन मुंडा का चेहरा
    डॉ रामदयाल मुंडा जब राज्यसभा सांसद बने थे, तो सांसद फंड से बनायी थी सड़क, उसके बाद मरम्मत नहीं, हो गयी है जर्जर
    बरसात के दिनों में अपने घरों में कैद हो जाते हैं ग्रामवासी, नहीं है कोई सुध लेनेवाला
    शाम छह बजे के बाद गांव का कोई व्यक्ति अपने घर से बाहर नहीं निकलता
    हाथी कब अपनी सूंड़ में लपेट लेगा, कहा नहीं जा सकता
    हाथी के डर से गांववाले नहीं लगा रहे मकई, अरहर और आलू की फसल
    सिर्फ धान की फसल बोते हैं, वह घर में आयेगा कि नहीं, यह हाथियों की दया पर निर्भर
    डर से रात में नींद नहीं आती, हाथी ढाह देता है घर, महंगी-महंगी गाड़ियों में आते हैं वन विभाग के अफसर, मुवाअजा मिलता है सिर्फ 1800 रुपये
    बिजली के खंभे तो हैं, लेकिन वह आयेगी कब, पता नहीं, हर समय अंधेरा का वसेरा
    नहीं है कोई स्वास्थ्य केंद्र, इलाज के लिए जाना पड़ता है ओझा-गुनी के पास
    झोलाछाप डॉक्टर कर रहे हैं गांववालों का शोषण, चाकू-छुरी से करते हैं

    ऑपरेशन आज तक गांव में सहिया और आंगनबाड़ी सेविकाओं के दर्शन तक नहीं हुएगांव की महिलाएं करवाती हैं प्रसव, तड़प-तड़प कर बच्चा जनना महिलाओं की बन गयी है नियति
    गांव के लोगों को नहीं पता, सरकार उनके कल्याण के लिए क्या-क्या योजनाएं चला रही है
    परिवार में पांच से छह सदस्य, लेकिन सरकारी राशन मिलता है सिर्फ एक सदस्य को
    यह किसी फिल्म की पटकथा नहीं। यह कहानी है रांची जिला के तमाड़ प्रखंड के गांव गोमिया कोचा और कुरुचुडीह की, जहां के लोगों की जिंदगी अभिशाप बन कर रह गयी है। यह गांव तमाड़ प्रखंड का अंतिम गांव है। पहाड़ की तलहटी से सटा हुआ। उसके बाद ईचागढ़ की सीमा शुरू होती है।
    कहानी गोमिया कोचा की
    सोमवार की दोपहर यह संवाददाता तमाड़ से 22 किलोमीटर दूर पहाड़ की तलहटी के पास बसे गोमिया कोचा गांव में था, जो झारखंड में सरकार की तरफ से किये जा रहे विकास कार्यों से पूरी तरह अनभिज्ञ है। गांव के लगभग ढाई सौ लोग ग्राम प्रधान यदुगोपाल सिंह मुंडा के बुलावे पर इमली के पेड़ के पास जमा हुए थे। बूढ़े-बुजुर्ग, नौजवान और छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां जमीन पर बैठे हैं। वे आजाद सिपाही की टीम को टुकुर-टुकुर निहार रहे हैं। वे इस विश्वास के साथ आये थे कि कोई आया है, शायद उनकी समस्याओं को जानने। उपस्थित हर गांववासी समस्याओं के मकड़जाल में उलझा हुआ। बातचीत की शुरूआत करने से पहले ग्राम प्रधान का यह आग्रह कि परंपरा के अनुसार आप लोगों को अपना पांव पखरवाना पड़ेगा। यहां ना की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी, क्योंकि परंपरा के अनुसार ग्राम प्रधान यदुगोपाल सिंह मुंडा ने हमें अपना आदेश पहले ही सुना दिया था। दो बहनें फूल की थाली और लोटा लिये आती हैं और पांव पखारती हैं। फिर तौलिया से पांव पोंछती हैं। उसके बाद हाथ जोड़ कर प्रणाम करती हैं। उनकी मेनमाननवाजी देख कर मन द्रवित हो जाता है।
    ग्राम प्रधान यदुगोपाल सिंह मुंडा अपनी भाषा में गांववालों को बताते हैं कि ये अखबारवाले हैं। आपकी समस्या जानने के लिए यहां आये हैं। एक-एक कर आप लोग अपनी बात रखिये। सबसे पहले एक 80 साल की बुजुर्ग माता खड़ा होने की कोशिश करती हैं। हम उन्हें बैठे रहने को ही कहते हैं, लेकिन वह नहीं मानतीं। जिद कर जाती हैं। डंडे के सहारे वह उठने की कोशिश करती हैं। एक व्यक्ति उन्हें सहारा देता है, तब वह किसी तरह खड़ा हो पाती हैं। बोलते समय उनकी जबान लड़खड़ा रही है। वह टूटे-फूटे शब्दों में किसी तरह कह पाती हैं कि उन्हें पेंशन नहीं मिलती। बीमार हैं। इलाज नहीं करा पा रहीं, क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं। उनके शरीर पर झिझरी साड़ी उनकी आर्थिक विपन्नता की कहानी कह रही है।
    आंखों में आंसू हमें अंदर तक झकझोर देते हैं। इसके बाद शुरू हुई गोमिया कोचा के ग्रामीणों की अवाक कर देनेवाली दास्तां। इस गांव में 30 परिवार हैं। 25 परिवार मुंडा जाति के और पांच परिवार महतो जाति के। इस गांव के किसी परिवार के पास खतियान नहीं है। खतियान नहीं होने के कारण इनके समक्ष समस्याओं का अंबार खड़ा हो गया है। अगर यह कहें कि यहां समस्याओं ने अपना स्थायी बसेरा बना लिया है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। गांववालों का जाति और आवासीय प्रमाणपत्र नहीं बन रहा है। वे सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं। सच कहा जाये, तो झारखंड गठन के 22 साल बाद भी उन्हें यह तक नहीं पता कि राज्य सरकार उनके हित के लिए क्या-क्या योजनाएं चला रही है। वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, आयुष्मान योजना, कुपोषण से मुक्ति के लिए चल रही कल्याणकारी योजनाओं के नाम तक वह नहीं जानते। उन्हें यह भी पता नहीं कि उनके बच्चों का एडमिशन कस्बूरबा गांधी, एकलव्य या सरकारी आवासीय स्कूलों में कैसे होगा। बीए की पढ़ाई करने के लिए उन्हें 40 किलोमीटर दूर बुंडू वाया तमाड़ जाकर क्या-क्या औपचारिकताएं निभानी पड़ेंगी। हालांकि सबके पास आधार कार्ड है, लेकिन उन्हें लाल, पीला और हरा कार्ड में अंतर नहीं मालूम। राशन कार्ड में नाम की गलती कैसे ठीक होगी, वे यह भी नहीं जानते, लिहाजा डीलर कार्ड में नुख्स निकाल कर उन्हें राशन से वंचित कर देता है। जिनके कार्ड दुरूस्त हैं, उन्हें राशन लेने के लिए दस किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। जाहिर है, पैसे के अभाव में वे पैदल जाते हैं। दिन बीत जाता है आते-जाते। हांफते-हांफते शाम ढलने पर वे राशन लेकर लौटते हैं। परिवार में चार से पांच सदस्य हैं। राशन मिलता है एक सदस्य को। वह भी वजन में आधा-अधूरा।

    70 साल पहले यहां बसने आये थे
    गोमिया कोचा में यह परिवार लगभग 70 साल से रह रहा है। ग्राम प्रधान यदुगोपाल सिंह मुंडा के पिता युगल सिंह मुंडा और चाचा सनातन सिंह मुंडा ने तमाड़, बुंडू और आसपास के लोगों को बुला कर यहां बसाया था। सबसे पहले गोमिया मुंडा यहां आये थे। उन्हीं के नाम पर इस गांव का नाम पड़ा गोमिया कोचा। उसके बाद कड़िया मुंडा, बासु मुंडा, डोलगा मुंडा, हिंदू मुंडा, सोमा मुंडा, जादे मुंडा, युगल महतो, मलीन महतो, चंदा मुंडा, बेरगा मुंडा, सुकरा मुंडा, दुबराज मुंडा, लर मुंडा, जबरा मुंडा, महादेव मुंडा, लखीनदास मुंडा, लूसा मुंडा, कुंजाल मुंडा सहित कुल 30 परिवार यहां बस गये। अपना आशियाना भी बना लिया। पहाड़ की तलहटी और प्रकृति की गोद में वे अपना गुजर-बसर भी करने लगे। खुंटकटी क्षेत्र होने के कारण युगल सिंह मुंडा ने उन्हें सादा पट्टा देकर बसाया था। मुंडा रसीद उन्हें दी गयी। आज भी उन्हें वही रसीद मिलती है। यही प्रमाण है उनके निवासी होने का।
    लेकिन इस प्रमाण का सरकारी अधिकारियों की नजर में कोई मोल नहीं, लिहाजा आज भी वे सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं। हां दो-चार लोगों को कुरुचुडीह में पीएम आवास का लाभ जरूर मिला है। इस गांव की शायद ही कोई बच्ची हाइस्कूल का मुंह देख पायी हो। ढूंढ़ने से भी नहीं मिली। इंटर में पढ़नेवाला भी कोई नहीं मिला। यहां के युवा सेना में जाकर देश की सेवा करना चाहते हैं, लेकिन जाति और आवासीय प्रमाण पत्र नहीं होने के कारण वह देश सेवा नहीं कर पा रहे हैं। पुलिस में भी भर्ती होना चाहते हैं ये लोग, लेकिन बगैर प्रमाण पत्र के यह कैसे संभव होगा। गांववालों को यह भी पता नहीं कि खतियान नहीं होने के बाद भी ग्राम प्रधान के लिखने पर उनका जाति और आवासीय प्रमाण पत्र बन सकता है। बता दें कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने खतियानविहीन लोगों के लिए यह आदेश दिया है कि जिनके पास खतियान नहीं है, उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं। मुखिया, ग्राम प्रधान की अनुशंसा पर उनका जाति और आवासीय प्रमाण पत्र बन जायेगा। लेकिन इस आदेश का प्रसार नहीं होने के कारण ग्रामीण इस लाभ से पूरी तरह वंचित हैं। आपको यह जान कर ताज्जुब होगा कि किसी तरह माड़-भात खाकर वे अपना जीवन बसर कर रहे हैं। गांव के कुछ लोग अपने खेतों में ओल, अरुई और कुछ हरी सब्जी की खेती करते हैं। यही आसरा है उनके जीने का। अरहर की दाल कब खाये, इन्हें याद नहीं। कारण हाथियों के डर से इन्होंने मकई, अरहर और आलू की फसल लगाना छोड़ दिया है। माड़-भात से उन्हें कितना पौष्टिक मिल पाता होगा, यह उनकी दुबली-पतली काया देख कर समझा जा सकता है। अपने तन को ढकने के लिए उनके पास साबूत कपड़े तक नहीं हैं। पैर हैं, लेकिन उसमें ताकत नहीं। डंडे के सहारे वे किसी तरह चल रहे हैं। हाथ हैं, लेकिन मुश्किल से ऊपर उठ पाते हैं। आंखों की रोशनी जवाब दे गयी है। कंठ से आवाज निकलते वक्त भहरा जाती है। इनमें से कइयों ने तो आज तक शहर का मुंह तक नहीं देखा है। बस की सवारी नहीं की है। कुछ ने जमीन बेच कर मोटरसाइकिल तो ले ली, लेकिन पेट्रोल के अभाव में वे सवारी नहीं कर पाते। लिहाजा, डगमगाते पैरों से जरूरत की चीजों को लेने के लिए वे जैसे-तैसे 10 से 12 किलोमीटर की दूरी तय कर जाते हैं और आते हैं। लौटने पर उनकीं सांसें फूलने लगती हैं। कई बार वे पगडंडी पर ढिमला भी जाते हैं। हाथ-पैर टूट जाते हैं। दवा-दारू के नाम पर वे इमली के पत्तों को उबाल कर हाथ पैर सेकते हैं। पत्ते को कपड़े के सहारे बांध कर अपना दर्द कम करने का उपक्रम करते हैं। झोलाछाप डॉक्टर के पास जाने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं। कभी-कभी ओझा-गुनी आकर झाड़-फूंक करते हैं। वह भी मुर्गा और दारू लेने के बाद।
    इनकी जीवन की सच्चाई यहीं खत्म नहीं होती। कुरुचुडीह से इस गांव की दूरी लगभग एक किलोमीटर है। कुरुचुडीह तक टूटी-फूटी सड़क है। इसे डॉ रामदयाल मुंडा ने सांसद फंड से बनवायी थी, जब वह राज्यसभा के सांसद बने थे। आज वह भी पूरी तरह टूट-फूट गयी है। गांव के प्रधान यदुगोपाल सिंह मुंडा कहते हैं, डॉ रामदयाल मुंडा की पहल पर गांव में उस समय आइएएस अधिकारी केके सोन और एसके चौधरी आये थे। उन्होंने ही पहल कर सड़क बनवायी। कुरुचुडीह से गोमिया कोचा जाने के लिए पगडंडी ही एकमात्र सहारा है। बीच में एक बड़ा तालाब है। गार्डवाल नहीं होने के कारण बरसात में उसका पानी उफान लेने लगता है। लिहाजा पगडंडी भी कीचड़ से सन जाती है और उसमें एक फुट नीचे तक पैर दबने लगता है। लिहाजा, बरसात के दिनों में गोमिया कोचा टापू बन जाता है और वहां के लोग अपने घरों में कैद हो जाते हैं। वे चाह कर भी बाहर नहीं निकल पाते और न बाहर के लोग उनका दुख-दर्द बांटने जा पाते हैं। यदुगोपाल सिंह मुंडा कहते हैं: अगर तालाब के चारों तरफ गार्डवाल बन जाये, तो गोमिया कोचा के लोगों को नारकीय जिंदगी से मुक्ति मिल जायेगी। गांववाले श्रमदान करने को भी तैयार हैं। लेकिन विडंबना यह है कि यहां कोई अधिकारी आता ही नहीं। बहुत पहले बीडीओ साहब वहां गये थे पीएम आवास का मुआयना करने। उनके अतिरिक्त और किसी अधिकारी के दर्शन आज तक नहीं हुए।
    जनप्रतिनिधियों के दर्शन नहीं हुए
    सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के एक गांव की सच्चाई यह है कि वहां के लोगों ने आज तक कड़िया मुंडा को भी नहीं देखा है, जो कई बार उस क्षेत्र के सांसद थे। लोगों ने उन्हें वोट भी दिया था। उसके बाद उस क्षेत्र का नेतृत्व सांसद के रूप में अर्जुन मुंडा के हाथों आया। यदुगोपाल सिंह मुंडा कहते हैं कि आज तक गांव के लोगों ने अर्जुन मुंडा का चेहरा नहीं देखा है। हां, यहां विकास सिंह मुंडा एक बार आये जरूर थे, उस समय वह विधायक नहीं थे। उसके बाद आज तक यहां के लोग उनके दर्शन को तरस गये हैं। अधिकारियों की तो छोड़िये, गांव में सहिया और आंगनबाड़ी सहायिका तक नहीं जातीं।

    कहानी कुरुचुडीह की
    बात कुरुचुडीह की। आबादी लगभग 350 के आसपास। गांव के प्रधान हैं यदुगोपाल सिंह मुंडा। मुख्य पेशा: धान की खेती। यहां तक जाने के लिए पक्की सड़क के नाम पर एक टूटी-फूटी सड़क है। 2015 के आसपास वह बनी थी। डॉ रामदयाल मुंडा ने उसे बनवाया था। उसके बाद एक बार भी उसकी मरम्मत नहीं हुई, लिहाजा वह पगडंडी का स्वरूप ले चुकी है।
    तमाड़ से कुरुचुडीह की दूरी है तो मात्र 22 किलोमीटर, लेकिन हिचकोले खाते हुए यहां डेढ़ घंटे लग ही जाते हैं पहुंचने में। जहां तक सरकारी योजनाओं के लाभ की बात है, तो इसकी भी वही कहानी है, जो गोमिया कोचा की है। हां, विकास के नाम पर यहां दो-चार पीएम आवास जरूर बनाये गये हैं। बिजली के खंभे और तार भी झूलते नजर आयेंगे, लेकिन बिजली के दर्शन कब होंगे, कहा नहीं जा सकता। इस गांव में एक उत्क्रमित विद्यालय है, जहां बीस बच्चे टाट लेकर पढ़ने जाते हैं। पढ़ाई क्या होती है, यह तो बच्चों को भी नहीं पता, हां, उन्हें खिचड़ी जरूर मिलती है। कभी भात भी, पीले रंग की दालनुमा पानी के साथ। रजिस्टर में तीन मास्टर साहब हैं, लेकिन एक साथ तीनों के दर्शन कम ही होते हैं। हां, रजिस्टर में हाजिरी जरूर होती होगी। यहां के बच्चे चाह कर भी हाइस्कूल में नामांकन नहीं करा पाते, कारण पढ़ने के लिए उन्हें लगभग 20 किलोमीटर दूर जाना पड़ेगा। पैदल वे कैसे जायेंगे, जबकि टेंपो में जाने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं और पैसे के अभाव में उनके पास साइकिल भी नहीं है। इसका खामियाजा यह है कि यहां का सिर्फ एक बच्चा संजय मुंडा बीए पास है। उसने भी शहर जाकर पढ़ाई की। नौकरी के नाम पर 350 लोगों में से सिर्फ एक व्यक्ति सरकारी शिक्षक हैं। उनका नाम है मंगल मुंडा। बाकी लोग मौसम के भरोसे धान की खेती करते हैं। धान तो घर में आता है, लेकिन कभी-कभी हाथी उसे भी चट कर जाते हैं।
    गोमिया कोचा की तरह कुरुचुडीह के ग्रामीण भी हाथी के डर से आलू, मकई और अरहर की खेती नहीं करते। आज भी गांव के लोगों को रातजगा कर पहरा देना पड़ता है हाथी भगाने के लिए। हाथी आने की सूचना पर गांववाले एकत्र हो जाते हैं। लकड़ी जला कर वे हाथी को डराने की कोशिश करते हैं। आलू बम भी रखा है गांववालों ने, हाथी को भगाने के लिए। फिर भी कभी-कभी हाथी आ ही जाते हैं और गरीबों के आशियाने ढाह देते हैं। उसके बाद आंसू पोंछने के लिए वन विभाग के अधिकारी आते हैं। महंगी-महंगी गाड़ियों में बैठ कर। दो-चार बार आने-जाने में वे पेट्रोल-डीजल में दो-तीन हजार रुपये खर्च कर देते हैं, लेकिन पीड़ित को मिलता है सिर्फ 1800 रुपये। इतने में कैसे आशियाना खड़ा होगा, यह वन विभाग के अधिकारी ही समझें।
    किसी भी बच्चे का एडमिशन कस्तूरबा विद्यालय में नहीं
    केंद्र और राज्य सरकार ने गरीबों के बच्चों की पढ़ाई के लिए कस्तूरबा गांधी, एकलव्य और अन्य आवासीय विद्यालय खोल रखे हैं। गांववालों को उम्मीद थी कि उनके बच्चे भी वहां फ्री में पढ़ेंगे और साहब अफसर बनेंगे। लेकिन आज तक यहां के किसी बच्चे का इन स्कूलों में एडमिशन नहीं हुआ। कुछ के परिवारवालों ने कुछ पैसे जुटा कर फार्म भरवाया।
    दलाल भी गांव में आया। कुछ लोगों से उसने एडमिशन कराने के नाम पर 15-15 हजार रुपये भी लिये, लेकिन किसी बच्चे का नाम लिस्ट में नहीं आया। लिहाजा, कस्तूरबा गांधी स्कूल में पढ़ने का इनका सपना आज भी धरा का धरा रह गया है। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे अपनी फरियाद किसके पास लेकर जायें। यहां कोई नेता भी तो नहीं आता। गांववाले शहर जाकर नेताओं तक अपनी फरियाद इसलिए नहीं सुना पाते कि उनके पास बस के पैसे नहीं हैं। पैसे तो इलाज कराने के लिए भी नहीं हैं उनके पास। बीमार होने पर वे भगवान और ओझा-गुनी के आसरे जिंदगी काट देते हैं।
    तीन दर्जन ग्रामीणों को नहीं मिलती वृद्धा और विधवा पेंशन
    कुरुचुडीह और गोमिया कोचा में लगभग तीन दर्जन बुजुर्ग हैं, जिनकी उम्र साठ साल से ऊपर और 80 साल के आसपास है। लगभग एक दर्जन के आसपास विधवाएं हैं। इनमें से किसी को भी पेंशन का लाभ नहीं मिलता। इन्हें यह भी नहीं पता कि पेंशन का कार्ड कैसे बनेगा। पैसे के अभाव में वे शहर जाते नहीं और अधिकारी चल कर उनके पास आते नहीं। लिहाजा, आधार कार्ड लेकर हर दिन बुजुर्ग पुरुष और महिलाएं अधिकारियों के आने के आसरे में दिन काट देते हैं।

    पेंशन की बाट जोह रहे हैं ग्रामीण
    जब आजाद सिपाही की टीम कुरुचुडीह में लोगों से मुखातिब हुई, तो वहां आधार कार्ड लेकर आनेवालों की लाइन लग गयी। वृद्धा पेंशन पाने की आस में देवनारायण मुंडा-जन्म 1056, जानकी देवी-जन्म 1954, देवी सिंह मुंडा-जन्म 1948, विधवा गिरिबाला देवी, पति स्वर्गीय बीरबल महतो, -उम्र 70 वर्ष, गुणधर महतो-जन्म 1960, नुनी बाला देवी-जन्म 1958, घनश्याम मुंडा-जन्म 1956, हाराधन मुंडा-जन्म 1958, दिव्यांग सरनाबाला देवी-जन्म 1963, विधवा रुमचू देवी, पति स्व सुखराम मुंडा-उम्र 70 साल, श्यामलाल मुंडा-जन्म 1948, विधवा धनेश्वरी देवी, पति स्व हलधर महतो-उम्र 60 साल, जयमनी देवी-उम्र 60 साल से अधिक, सोमा मुंडा-जन्म 1957, चामिनी देवी-जन्म 1961, बिमली देवी-जन्म 1960, विधवा दुर्गा देवी-जन्म 1975, मिथला देवी-जन्म 1953, विधवा सोमवारी देवी-जन्म 1988, शिरोमणि देवी-उम्र 70 साल, सखी देवी-उम्र 70 साल, उर्मिला देवी-उम्र 65 साल, विधवा लादीमनी देवी, पति स्व साधुचरण मुंडा-जन्म 1969, सावित्री कुमारी-जन्म 1957, टुसुमनी देवी जन्म 1961, डोमनी देवी-उम्र 62 साल, कुइली देवी-उम्र 61 साल, रूपम देवी-जन्म 1948, गंजी देवी-जन्म 1953, शिरोमणि कुमारी-जन्म 1962, सोनाराम-जन्म 1952। ये तो चंद नाम हैं, जो ग्राम सभा में आये थे। ऐसे कई और जरूरतमंत हैं, जिन्हें विधवा या वृद्धा पेंशन नहीं मिलती।

    अधिकारियों की बाट जोहते-जोहते पथरा गयीं आंखें
    हर दिन ये अधिकारियों की बाट जोह रहे हैं। आंखें पथरा गयीं, लेकिन अफसर नहीं आये। कुरुचुडीह के ग्राम प्रधान यदुगोपाल सिंह मुंडा कहते हैं, सर हमारे पास भी पैसे नहीं हैं कि इन्हें लेकर हम तमाड़ जायें और पेंशन पानेवालों की सूची में इनका नाम जुड़वायें। कहने के बावजूद बीडीओ यहां नहीं आते। सरकारी अधिकारियों की पहल नहीं होने के कारण ये लोग सरकारी सुविधाओं के लाभ से वंचित हैं। यहां एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा कि आजाद सिपाही के तमाड़ संवाददाता स्वरूप भट्टाचार्य के प्रयास से आधा दर्जन लोगों का राशन कार्ड बन गया है और वह लगातार प्रयास कर रहे हैं कि इन लोगों को सरकारी सुविधाएं मिलें।
    चलते-चलते: इमली पेड़ के पास गांववालों ने खिचड़ी की व्यवस्था की थी। हर घर से एक किलो चावल और बाजार से दस किलो दाल की व्यवस्था की गयी थी। खिचड़ी खाकर जाने का आग्रह हम अस्वीकार नहीं कर पाये। हमने आग्रह को तो स्वीकार लिया, लेकिन एक-एक कौर बहुत मुश्किल से कंठ से नीचे जा पाया। सोचता रहा, पता नहीं इनके हिस्से सुख के दिन कब जायेंगे। इनके दिन कब बहुरेंगे। इन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ कब मिलेगा। काश, सरकार की नजर एक बार इन गांववालों पर पड़ती, तो शायद इनका भला हो जाता। फिर भी उम्मीद हमें है। भगवान ने इन्हें जन्म दिया है, तो निवाला भी देगा। सरकारी योजनाओं का लाभ इन्हें आज नहीं तो कल जरूर मिलेगा। सरकारी अधिकारी अपने चैंबरों से निकल कर इनका हालचाल लेने जरूर आयेंगे। अभी बस इतना ही, क्योंकि इनकी हालत देख कर मन भर आया है।

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