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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»संथाल के लिए झामुमो और भाजपा में खूब हो रहा झकझूमर
    स्पेशल रिपोर्ट

    संथाल के लिए झामुमो और भाजपा में खूब हो रहा झकझूमर

    adminBy adminNovember 24, 2023No Comments7 Mins Read
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    -दोनों दलों ने तीन संसदीय और 18 विधानसभा सीटों को साधने के लिए लगाया जोर
    -हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी का राजनीतिक भविष्य तय करेगी विद्रोह की धरती

    कहा जाता है कि यदि किसी को झारखंड की राजनीति समझनी और जाननी हो, तो उसे सबसे पहले ‘विद्रोह की धरती’ यानी संथाल परगना पहुंचना होगा। कुल तीन संसदीय सीटों और विधानसभा की 18 सीटों वाला संथाल परगना आर्थिक और सामाजिक रूप से भले ही पिछड़ा नजर आता हो, लेकिन झारखंड की राजनीति यहां से ही शुरू होती है। आजादी से पहले और अलग राज्य को लेकर हुए आंदोलन का केंद्र बिंदु भी संथाल ही रहा है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इस इलाके को साधने के लिए राजनीतिक दलों के बीच रस्साकशी चलती है। हाल के दिनों में झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा और विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने अपना-अपना ध्यान संथाल पर केंद्रित किया है, क्योंकि दोनों को इस बात का आभास है कि संथाल को साधे बिना झारखंड की सत्ता हासिल करना नामुमकिन है। जहां तक संथाल के चुनावी परिदृश्य का सवाल है, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां की दो सीटें, दुमका और गोड्डा जीती थी, जबकि झामुमो ने राजमहल सीट पर कब्जा जमाया था। लेकिन उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में झामुमो ने यहां की 18 में से नौ सीटें जीत ली थीं, जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस की झोली में चार सीटें आयी थीं। भाजपा को महज तीन सीटों पर जीत मिली थी। बाकी दो सीटों में से एक पर झाविमो और दूसरे पर निर्दलीय ने कब्जा जमाया था। हालांकि बाद में झाविमो से जीते प्रदीप यादव कांग्रेस में शामिल हो गये, जबकि निर्दलीय अमित मंडल भाजपा में। उसके बाद से झारखंड की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन संथाल को साधने के लिए रस्साकशी का नया दौर इस राजनीति को नया आयाम दे रहा है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी एक बार फिर जहां संथाल प्रवास पर निकलनेवाले हैं, वहीं हेमंत सोरेन भी ‘आपकी सरकार-आपके द्वार’ कार्यक्रम का आगाज संथाल की धरती से करनेवाले हैं। झारखंड की राजनीति के इन दोनों दिग्गजों के संथाल पर फोकस ने राज्य की सियासत को नया कलेवर दे दिया है। क्या है संथाल की राजनीति और झामुमो-भाजपा के बीच शुरू हुए इस झकझूमर के पीछे क्या है कारण, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड की राजनीति का प्रवेश द्वार कहे जानेवाले संथाल परगना की धरती इन दिनों एक बार फिर सियासी गतिविधियों से गुलजार हो गयी है। एक तरफ ‘संकल्प यात्रा’ के समापन के बाद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी फिर से संथाल प्रवास पर निकलनेवाले हैं, तो दूसरी तरफ झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपनी बेहद लोकप्रिय योजना ‘आपकी सरकार-आपके द्वार’ के तीसरे चरण का आगाज हूल क्रांति के केंद्र भोगनाडीह से करनेवाले हैं। इन दोनों राजनीतिक दिग्गजों के इन कार्यक्रमों से साफ हो जाता है कि संथाल परगना, जिसे ‘विद्रोह की धरती’ भी कहा जाता है, राजनीतिक रूप से कितना संवेदनशील और महत्वपूर्ण है।
    संथाल परगना का राजनीतिक परिदृश्य
    जहां तक संथाल परगना के राजनीतिक परिदृश्य का सवाल है, तो अभी यह पूरा इलाका किसी भी दल के कब्जे में नहीं है। 2019 के संसदीय चुनाव में संथाल परगना की तीन लोकसभा सीटों में से दो पर भाजपा ने कब्जा जमाया था, जबकि एक सीट झामुमो के पास गयी थी। उस चुनाव में भाजपा को सबसे बड़ी कामयाबी दुमका में हासिल हुई थी, जब उसके प्रत्याशी ने झारखंड के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन को हरा दिया था। लेकिन करीब छह महीने बाद दिसंबर 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में संथाल परगना में झामुमो को शानदार कामयाबी हासिल हुई थी। झामुमो ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए इलाके की 18 में से नौ सीटें जीत ली थीं, जबकि कांग्रेस के खाते में चार और भाजपा के खाते में तीन सीटें आयी थीं। बाकी दो सीटों में से एक झाविमो के पास और दूसरी निर्दलीय के पास गयी थी। बाद में पोड़ैयाहाट से झाविमो के टिकट पर जीते प्रदीप यादव कांग्रेस में चले गये, जबकि गोड्डा के निर्दलीय विधायक अमित मंडल भाजपा के पाले में। इस तरह संथाल की 18 विधानसभा सीटों में से नौ पर झामुमो का कब्जा है, जबकि पांच पर कांग्रेस का और चार पर भाजपा का। झामुमो ने शुरू की संथाल की किलेबंदी
    विधानसभा चुनाव में संथाल में मिली कामयाबी को झामुमो के शीर्ष नेतृत्व और खास कर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने संजीवनी माना और सरकार बनाने के साथ ही इस किले को मजबूत बनाने में जुट गये। चार साल बाद अब साफ हो गया है कि हेमंत सोरेन संथाल को झामुमो का अभेद्य किला बनाने की राह पर बहुत आगे निकल चुके हैं। उन्होंने अपनी सरकार में संथाल परगना को चार सीटें दी हैं और विधानसभा अध्यक्ष का पद भी दिया है। इलाके के चार मंत्रियों में दो झामुमो के और दो कांग्रेस के हैं।
    संथाल में भाजपा का प्रदर्शन
    झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से अब तक हुए विधानसभा चुनावों में झामुमो और भाजपा के बीच संथाल में थोड़ी ऊंच-नीच के साथ मजेदार मुकाबला होता रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने संथाल की 18 विधानसभा सीटों में सात पर बढ़त हासिल की। इलाके में भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। भाजपा के लिए इस आंकड़े को पार कर आगे जाने की चुनौती अब भी बरकरार है। वैसे 2014 में झारखंड की सत्ता में आयी भाजपा की रघुवर दास सरकार ने भी संथाल को साधने के लिए कई योजनाएं चलायीं। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संथाल को केंद्र सरकार की योजनाओं का लांचिंग पैड ही बना दिया था। अब भाजपा 2024 को ध्यान में रखकर संथाल को मिशन मोड में रखकर केंद्र की योजनाओं को पूरा करने में जुट गयी है।
    वैसे भी संथाल परगना में आदिवासियों की बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में करने के लिए भाजपा लंबे समय से कोशिश कर रही है। उसकी कोशिशें 2019 के लोकसभा चुनाव में सफल होती दिखने लगी थी। लेकिन हेमंत ने इसे पूरी तरह बदल दिया है। अब संथाल में भाजपा की वापसी की राह बेहद कठिन हो गयी है। इसका सीधा असर बाबूलाल मरांडी के राजनीतिक भविष्य पर पड़ेगा। विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा में उनकी वापसी को संथाल की राजनीति से जोड़ कर देखा गया था। भाजपा के पास ऐसा कोई आदिवासी चेहरा नहीं था, जिसकी पहचान संथाल परगना में भी हो। इसलिए उसने बाबूलाल मरांडी को अपने पाले में किया, क्योंकि वह भी संथाल के हैं।
    किसकी क्या मजबूती, कमजोरी
    झारखंड के सबसे बड़े नेता और ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन टुंडी होते हुए संथाल पहुंचे थे। 1970 के दशक में महाजनी प्रथा के विरोध में अपने आंदोलन से चर्चित हुए शिबू ने इसी क्षेत्र को अपनी राजनीतिक कर्मभूमि बनाया। इस कारण संथाल में शिबू सोरेन का प्रभाव रहा है। इसके अलावा झामुमो ने वहां इसाई, मुस्लिम और आदिवासी वोट बैंक को ध्यान में रख कर हमेशा राजनीति की है। झामुमो के इसी गढ़ को ध्वस्त करने के उद्देश्य से ही बाबूलाल मरांडी (जब भाजपा में थे) ने भी संथाल पर विशेष ध्यान केंद्रित किया था। दुमका सीट पर शिबू सोरेन को पराजित करने के कारण ही वह राष्ट्रीय राजनीति में चर्चा में आये। उन्हें केंद्र में बनी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री और फिर राज्य के मुख्यमंत्री पद मिलने में सहूलियत हुई। लेकिन बाद में मरांडी ने जब 2009 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा छोड़ दिया, तो इसका सीधा असर हुआ। संथाल में भाजपा दो सीटों तक सिमट गयी।
    वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को समझते हुए संथाल में भाजपा की खास नजर सवर्ण, वैश्य और गैर-आदिवासी वोट बैंक पर है। इसके अलावा संथाली नेताओं के माध्यम से पार्टी आदिवासी और इसाइ वोट बैंक में घुसपैठ के जरिये स्थिति को सुधारने की कोशिश में लगी है।
    संथाल की यह किलेबंदी झामुमो और हेमंत सोरेन के लिए आनेवाले दिनों में बेहद लाभदायक साबित होगी, वहीं बाबूलाल मरांडी और भाजपा के लिए इस किले को भेद पाना लगातार मुश्किल होता जायेगा, क्योंकि तब बाबूलाल मरांडी की भाजपा में वापसी का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि झारखंड के सियासी मुकाबले का असली रंग अब संथाल के रण में ही देखने को मिलेगा।

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