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    Home»लाइफस्टाइल»ब्लॉग»शुरू तो हुई विरोध की लड़ाई
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    शुरू तो हुई विरोध की लड़ाई

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीDecember 7, 2016No Comments4 Mins Read
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    चंद्रभूषण : विपक्षी पार्टियों द्वारा आयोजित आक्रोश दिवस मिले-जुले प्रभावों के साथ संपन्न हुआ। वामपंथी पार्टियों ने इसे अपने सघन प्रभाव वाले इलाकों में बंद का रूप भी दिया, लेकिन बाकी पार्टियों ने कुछ जगहों पर सभाएं कीं और छोटे-मोटे जुलूस निकाले। इसका कुल प्रभाव इतना ही रहा कि विपक्ष ने नोटबंदी को लेकर जनता की तकलीफों के साथ अपने टूटे हुए तार जोड़े, साथ ही भविष्य में यह कहने की गुंजाइश बना ली कि जब सत्तारूढ़ बीजेपी के लोग उन्हें बैंकों में खड़े होने पर खुद को चोर और एटीएम के सामने खड़े होने पर भिखारी महसूस करने के लिए बधाई दे रहे थे,

    तब सरकार की मनमानी का विरोध करते हुए वे लोगों के साथ खड़े थे, लेकिन विपक्ष को उसकी इस पहल के लिए धन्यवाद देने और उसकी सीमाओं को लेकर चिंतित होने से पहले हमें यह भी सोचना चाहिए कि भारत में संसदीय विपक्ष नाम की संस्था को तिरोहित हुए कितना वक्त गुजर चुका है। जिस समय देश में बड़े-बड़े घोटालों की खबरों की खबरें आ रही थीं, तब भारतीय विपक्ष की कमान अभी की सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के हाथ थी। क्या किसी को याद है कि इन घोटालों के खिलाफ उसने कितने जुलूस-प्रदर्शन निकाले थे, कितनी बार देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया था? बीजेपी के लोगों का कहना है कि उन्होंने इस मुद्दे पर एक साल से भी ज्यादा समय तक संसद ठप रखी थी। लेकिन संसद ठप रहने से सरकार को क्या फर्क पड़ता है? क्या पिछले कई दिनों से संसद में लगातार हंगामा होने से मोदी सरकार को कोई फर्क पड़ रहा है?

    उस दौर में अगर लोगों को बीजेपी या किसी भी संसदीय दल की जरा भी सक्रियता नजर आती तो वे लाखों की तादाद में दूर-दराज के इलाकों से आकर अन्ना आंदोलन को अपना समर्थन देने के लिए कई-कई दिन तक अपना घर-बार छोड़ कर दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में न पड़े रहते। इस देश के लिए सबसे बड़े अफसोस की बात कोई है तो यह कि इसे सत्ता पक्ष और विपक्ष ने ही नहीं, खुद को जनता का पक्ष घोषित करने वाले स्वतंत्र आंदोलनकारियों ने भी या तो पूरी तरह छला है, या देश बदलने के लिए आये लोगों को मझधार में छोड़ कर उनकी कुर्बानियों का इस्तेमाल अपना चेहरा चमकाने में किया है।

    यह स्थिति अब बदलनी चाहिए। नीचे से ऊपर तक सड़ चुकी भारत की राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था को जीने लायक बनाने का वादा जो भी करे, चाहे वह सत्ता पक्ष में हो, चाहे विपक्ष में, या फिर स्वतंत्र जनपक्ष में, उसे अपने सिद्धांत और व्यवहार में सुसंगत और पूरी तरह पारदर्शी होना चाहिए। अभी का समय तो हर पक्ष के कन्फ्यूजन का है। सत्ता पक्ष का कहना है कि नोटबंदी के जरिये वह देश में काले धन का खात्मा करने जा रहा है। लेकिन दृश्य यह है कि उसके पक्ष में बोलने वाला कोई घोषित दलाल है, कोई पनामा लीक्स में सामने आया अघोषित विदेशी खाता धारक। सरकारी बैंकों से लाखों करोड़ कर्ज लेकर साफ हजम कर जाने वाले तक तो उसके हितैषियों में हैं, और नोटबंदी के माहौल में भी उन्हें नए कर्ज मिलने का सिलसिला थमा नहीं है। विपक्ष की काले धन के मुद्दे पर न तो कोई साख है, न ही उसने ऐसा कुछ कहा है कि उसके पास देश को खोखला कर रही इस बीमारी से निपटने की कोई वैकल्पिक योजना है।

    नोटबंदी पर बनी फौरी एकता को छोड़ दें तो देश में एकजुट संसदीय विपक्ष जैसी कोई चीज है, ऐसा कोई भ्रम किसी को नहीं होना चाहिए। स्वतंत्र पक्ष तो इस मामले में ही नहीं, पिछले तीन वर्षों से सारे ही मामलों में पूरी तरह दृश्य से नदारद है। अन्ना हजारे फिलहाल अपने ऊपर बन रही फिल्म के प्रमोशन में व्यस्त हैं और नोटबंदी का तहेदिल से समर्थन करके उन्होंने अभी के माहौल में अपना पक्ष भी जाहिर कर दिया है।
    किसी और ताकत ने भी अभी तक देश की साठ फीसदी संपदा सिर्फ एक फीसदी अमीरों के हाथ में सौंप देने वाली नरभक्षी विकास प्रक्रिया का आखिरी दम तक विरोध करने का कोई संकल्प नहीं जताया है, लेकिन विरोध के इस कमजोर परिदृश्य से निराश होने की कोई जरूरत नहीं है।
    उत्तराखंड के प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय गिरीश तिवारी गिर्दा का एक शेर है- दिल लगाने में वक्त लगता है, डूब जाने में वक्त लगता है/ वक्त जाने में कुछ नहीं लगता, वक्त आने में वक्त लगता है।ह्ण इस आक्रोश दिवस से 2012 के बाद पहली बार संगठित विरोध की शुरूआत हुई है। देर-सबेर ईमानदार, प्रतिबद्ध लोग बड़े लक्ष्यों को सामने रखकर एकजुट होना शुरू करेंगे। भारत में एक बार फिर प्रतिरोध की आवाज बुलंद होगी और ह्यसर्वशक्तिमानह्ण लोगों के खिलाफ आने वाले दिनों में कहीं ज्यादा बड़ी और सघन एक और लड़ाई लड़ी जाएगी।

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