अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यरुशलम की बाबत जो घोषणा की है, उसका कोई औचित्य नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने यरुशलम को इजराइल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का एलान करते हुए वहां के अमेरिका दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम स्थानांतरित करने का निर्णय भी सुना दिया। स्वाभाविक ही उनकी इस घोषणा पर दुनिया भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। मध्य पूर्व के तमाम देशों को तो यह नागवार गुजरना ही था, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे अमेरिका के पुराने मित्र-देशों ने भी इस पर नाराजगी जताई है। इस तरह ट्रंप का निर्णय किसी के भी गले नहीं उतरा है। मामला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी पहुंच गया है। यही नहीं, उनकी इस घोषणा ने इजराइल और फिलस्तीन के बीच नए सिरे से खूनी टकराव का दौर शुरू करने के अलावा इजराइल और अरब देशों के बीच भी एक तरह की नई अशांति के बीज बो दिए हैं।ट्रंप ने यरुशलम की बाबत अमेरिका की सात दशक से चली आ रही नीति को क्यों उलट दिया, इस पर दुनिया भर में हैरानी जताई जा रही है। एक कारण ट्रंप का अपना मुसलिम-विद्वेषी मानस हो सकता है। दूसरी वजह यह हो सकती है कि उनकी कूटनीतिक टीम में यहूदी लॉबी प्रभावी हो। पर दुनिया के सबसे ताकतवर शासनाध्यक्ष को इतनी अहम कूटनीतिक घोषणा करने से पहले सोचना चाहिए था कि इसके संभावित परिणाम क्या होंगे। ट्रंप की घोषणा से किसी का भला नहीं होगा, अमेरिका को तो हर तरह से नुकसान ही उठाना पड़ेगा। यरुशलम के मसले पर ट्रंप अलग-थलग तो पड़ ही गए हैं, उन्होंने अमेरिका को ऐसी जगह ला खड़ा किया है जहां वह नाहक हमास के निशाने पर होगा। हमास ने फिलस्तीनियों से शांति-प्रयासों से किनारा करने और इजराइल पर नए सिरे से हमले करने का आह्वान किया है। ऐसे में यरुशलम में अमेरिकी दूतावास कितना सुरक्षित रहेगा?दुनिया भर में इस पर आम राय रही है कि इजराइल-फिलस्तीन संघर्ष का शांतिपूर्ण व स्थायी समाधान दो-राष्ट्र के सिद्धांत के जरिए ही हो सकता है। ट्रंप की घोषणा इस मान्यता को पलीता लगाने जैसी है। इजराइल के वजूद में आने के बाद भी यरुशलम के एक हिस्से यानी पूर्वी यरुशलम पर फिलस्तीन का कब्जा बना रहा। पर इजराइल ने 1967 के युद्ध में उसे भी हड़प लिया। पूर्वी यरुशलम पर फिलस्तानी अपना दावा जताते हुए दशकों से यह सपना देखते रहे हैं कि एक दिन इसे वे अपनी राजधानी बनाएंगे। अमेरिका की शानदार भूमिका यही हो सकती थी कि इजराइल पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर वह ऐसा समाधान निकालता जो फिलस्तीनियों के लिए भी स्वीकार्य होता। लेकिन ट्रंप ने उस उम्मीद की बलि चढ़ा दी है।

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