सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने बुधवार को जो कुछ कहा वह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के नाते हमारे देश का एक बड़ा तकाजा है। ‘यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट’ की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि सैन्य बलों का राजनीतिकरण हुआ है, लेकिन सेना को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए। सेना को राजनीति से दूर रखे जाने के उनके आग्रह पर शायद ही किसी को इत्तफाक हो। लेकिन सवाल है कि इस वक्त सेनाध्यक्ष को यह कहने की जरूरत क्यों महसूस हुई? क्या सचमुच, जैसा कि उन्होंने कहा, सैन्य बलों का राजनीतिकरण हुआ है? या, हो रहा है? शुरू से सेना को राजनीति से परे रखने की हमारी राष्ट्रीय नीति रही है। यह सेना के अनुशासन तथा साख और हमारे लोकतंत्र के लिए भी जरूरी है। पाकिस्तान, म्यांमा, थाईलैंड समेत जिन देशों में सेना को राजनीतिक शक्ति हासिल करने का माध्यम बनाया गया वहां लोकतंत्र की क्या दुर्दशा हुई यह दुनिया जानती है। सेना का काम सरहदों की रक्षा करना और कई बार आतंकवाद जैसे आंतरिक सुरक्षा के गंभीर खतरों से निपटना है। दंगों को रोकने और उग्रवाद प्रभावित इलाकों में शांति कायम करने में जब प्रांतीय बल नाकाम रहते हैं तब सेना ही काम आती है। आपदा जैसे हालात में भी सेना की मदद ली जाती रही है।
ऐसे सब मौकों पर ने सेना ने अपनी बहादुरी, कार्यकुशलता और विश्वसनीयता साबित की है। जब राज्यतंत्र के विभिन्न अंगों से देश के लोगों की उम्मीदें छीजती गई हैं, सेना के प्रति लोगों का आदर और भरोसा बना रहा है। यह इसी तरह हमेशा बना रहना चाहिए। इसके लिए यह जरूरी है, जैसा कि जनरल बिपिन रावत ने भी कहा है, सेना को राजनीति से अलग रखा जाए। यही नहीं, उसकी छवि भी पूरी तरह गैर-राजनीतिक रहे। लेकिन जब यह जताने की कोशिश होने लगती है कि हम सेना की तरफ हैं और सेना हमारी तरफ है, तो इसे सेना की छवि का राजनीतिक फायदा उठाने का प्रयास ही कहा जाएगा।
यह निहायत अनुचित है और यह बंद होना चाहिए। लेकिन कई बार खुद कोई सैन्य अधिकारी इस तरह का बयान दे देता है, जो उसे नहीं देना चाहिए। कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान क्या है या चीन और पाकिस्तान से कैसे निपटना है यह बताना सरकार का काम है। इसलिए सेना को राजनीति से अलग रखने की जिम्मेदारी जहां राजनीतिक नेतृत्व की है, वहीं सेना से भी यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी गैर-राजनीतिक छवि वह हर हाल में बनाए रखेगी।