थल सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि सेना का राजनीतिकरण करने के प्रयास हो रहे हैं। यदि सेना का राजनीतिकरण हुआ है या होता है तो भारत देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह गंभीर चिंता का विषय है। हालांकि जनरल रावत ने किसी खास घटना, किसी खास नेता या सरकार का नाम नहीं लिया, जो इसके लिए जिम्मेदार हो, फिर भी उन्होंने ‘यूनाडटेड सर्विस इंस्टीट्यूट’ की ओर से आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में राजनीतिकरण संबंधी मुद्दे को उठाया है। सेना को राजनीति से हर हाल में दूर रखा जाना चाहिए और जनरल रावत के इस मत से शायद ही कोई असहमत हो। लेकिन सवाल यह भी है कि इस वक्त जनरल रावत को यह मसला उठाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? यदि सचमुच सेना का राजनीतिकरण हो रहा है या कभी हुआ है तो उन्हें एक-दो उदाहरण भी सामने रखने चाहिए। ताकि बात को पूरी तरह समझा भी जा सके। हो सकता है कि वे सैनिक धर्म और कर्तव्य से बंधे हैं तो उन्होंने किसी का नाम लेना और किसी घटना विशेष का जिक्र करना उचित नहीं समझा है और यह काफी हद तक उचित भी है। वैसे जनरल रावत अपने स्वभाव के कारण कोई भी बात कहने में हिचकते नहीं हैं और कई बार ऐसी बात का जिक्र कर देते हैं, जो चर्चा का विषय बन जाती है।
वैसे राजनीतिक क्षेत्रों में वर्तमान सरकार पर विपक्षी दल यह जरूर आरोप लगाते रहे हैं कि वह सेना का राजनीतिकरण करने की कोशिश कर रही है। अब जनरल रावत ने राजनीतिकरण की बात की है तो यह भी एक तरह से सेना के हितों की रक्षा के लिए ही कहा होगा और उन्हें इसे सार्वजनिक करना भी उचित समझा होगा। यहां यह गौरतलब है कि हमारे देश में शुरू से ही सेना को राजनीति से परे रखने की हमारी राष्ट्रीय नीति रही है। यह सेना के अनुशासन तथा साख और हमारे लोकतंत्र के लिए भी जरूरी है।
पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड समेत जिन अन्य देशों ने सेना को राजनीतिक शक्ति हासिल करने का माध्यम बनाया है वहां लोकतंत्र की क्या दुर्दशा हुई यह बात सारी दुनिया जानती है। दरअसल, भारत की सेना का रूतबा देशभर में इसीलिए बहुत ऊंचा है कि यह राजनीतिक आग्र्रहों से पूरी तरह दूर रहते हुए अपने कर्तव्य का पालन करती है और नागरिक- प्रशासनिक पेचीदगियों में नहीं उलझती। मगर हाल के वर्षों में जिस तरह मीडिया से लेकर राजनीतिक मंचों पर सेना के पूर्व अधिकारियों के माध्यम से देश के राजनीतिक मसलों में फौज को घसीटने की कोशिश हो रही है वह न तो फौज के लिए उचित है और न ही लोकतंत्र के लिए। सेना का काम सीमाओं की रक्षा करना और कई बार आतंकवाद जैसे आंतरिक सुरक्षा के गंभीर खतरों से निपटना है।
दंगों को रोकने और उग्र्रवाद प्रभावित इलाकों में शांति कायम करने में जब प्रांतीय बल नाकाम रहते हैं तब सेना की ही मदद ली जाती है। आपदा जैसे हालात में भी सेना ही नागरिकों का सहारा बनती है। ऐसे सभी अवसरों पर सेना ने अपनी बहादुरी, कार्य कुशलता और विश्वसनीयता की साख को कायम रखा है जब राजतंत्र के विभिन्न अंगों से देश के लोगों की उम्मीदें टूटती हैं तो सेना के प्रति भरोसा और आदर कायम बना रहा है। और यह बना भी रहना चाहिए।
इसके लिए यह जरूरी है कि सेना को हमेशा राजनीतिक प्रपंच से दूर रखना चाहिए और इसीलिए जनरल रावत ने अपनी बात रखी है। इतना ही नहीं सेना की छवि पूरी तरह गैर- राजनीतिक ही बने रहे। लेकिन जब यह जताने की कोशिश होने लगती है कि हम सेना की तरफ हैं और सेना हमारी तरफ है तो इसे सेना की साख का राजनीतिक फायदा उठाने की प्रयास ही माना जाएगा। यह काफी अनुचित है और इस पर पाबंदी लगनी चाहिए।